इसमें कोई दोराय नहीं कि इस दुनिया में लाखों लोग रोज़ पैदा होते हैं और लाखों मर जाते हैं; बिलकुल कीड़े-मकोड़ों की तरह। किसी-किसी के मरने पर तो रोने और अरथी को काँधा देने वाले तक नसीब नहीं होते। लेकिन ऐसा या तो उन लोगों के साथ होता है, जो अनाथ होते हैं या उनके साथ जिनके अपने उन्हें हमेशा के लिए छोड़ देते हैं। इस दुनिया में अधिकतर लोगों के सुख-दु:ख के संगी-साथी उनके परिजन, रिश्तेदार, मित्र और पड़ोसी होते हैं। ये वे रिश्ते होते हैं, जो इंसान दुनिया में आकर बनाता है। लेकिन दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी पैदा होते हैं, जो पूरी दुनिया का भला सोचते हैं; पूरी दुनिया के लिए कुछ बड़ा कर जाते हैं; कुछ-न-कुछ दे जाते हैं और पूरी दुनिया के हो जाते हैं। ऐसे लोगों को पूरी दुनिया अपना मान लेती है। ऐसे लोग जब भी कहीं जाते हैं, तो एक बड़ा हुजूम उनके प्रशंसकों का उन्हें घेर लेता है और उनके सम्मान में उनकी हर मदद तक को तैयार रहता है। और जब ऐसे लोग दुनिया से जाते हैं, तो उन्हें काँधा देने वालों की गिनती करना मुश्किल हो जाती है। लेकिन जब ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन के अंतिम समय में बिलकुल अनाथों, असहायों जैसा जीवन जीना पड़े तो न केवल मानवता शर्मसार होती है, बल्कि हृदय रुदन करने लगता है। ऐसी ही गुमनाम और अनाथों जैसी ज़िान्दगी भारत के महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने पूरे 40 साल जी और आिखर में 74 साल की अवस्था में इस स्वार्थी और बेरहम दुनिया को छोडक़र हमेशा के लिए चले गये।
बताया जा रहा है कि वशिष्ठ नारायण सिंह 40 साल से मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया से पीडि़त थे। लेकिन इस महान् गणितज्ञ को यह बीमारी कैसे हुई? किन परिस्थितियों में हुई? और उनका अच्छी तरह इलाज क्यों नहीं हो सका? ये सवाल किसी ने नहीं उठाये।
सुना है कि उनके देहावसान के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शोक जताया और उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। पर क्या फायदा? जब तक वे जीते रहे न तो उन्हें वह सम्मान मिला, जिसके वे हकदार थे और न ही परिजनों और रिश्तेदारों के अलावा किसी ने बाहरी व्यक्ति ने, जो कि उनके बारे में भले ही जानते थे; उनको अंतिम वर्षों में पहचानने और सेवा करने की ज़हमत उठायी। और अकेलेपन तथा बीमारी से जूझते हुए 14 नवंबर को इस महान् गणितज्ञ ने अपने प्राण त्याग दिये। वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के कुल्हरिया कॉम्पलेक्स में परिजनों के साथ रहते थे। पिछले कुछ दिनों से उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और 14 नवंबर को तबीयत ज़्यादा खराब होने के पर परिवार के लोग उन्हें पी.एम.सी.एच. पटना लेकर गये; लेकिन वहाँ पहुँचने पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। हालाँकि इस मामले में वशिष्ठ नारायण सिंह के परिजनों ने डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि वशिष्ठ नारायण की मृत्यु के तकरीबन दो घंटे के बाद एम्बुलेंस उपलध करायी गयी।
खैर, अस्पताल में जो भी हुआ हो, परन्तु महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने जिस गुमनामी का जीवन जिया, वह सभी भारतीयों और खासतौर पर सरकार के लिए बेहद शर्मनाक है। नीतीश सरकार ने बाद में भले ही उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी; लेकिन वे जिस सम्मान के हकदार थे, वह उन्हें जीते-जी तो कमसकम नहीं मिल सका। वशिष्ठ नारायण सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि अगर उनको मानसिक बीमारी नहीं होती, तो वे जीवन पर्यंत दुनिया को अपने असीमित ज्ञान से चकित करते रहते और दुनिया के बेहद बड़े तथा सम्मानीय गणितज्ञ होते।
अपने ही अध्यापक को समझा देते थे सवाल
बताया जाता है कि वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस कॉलेज में पढ़ाई करते थे, तब वे अपने गणित के अध्यापक को गणित के सवाल कई विधियों से समझा दिया करते थे। उनकी इस प्रतिभा के बारे में जैसे ही कॉलेज के प्रधानाचार्य को पता चला, तो उन्होंने वशिष्ठ नारायण सिंह की कठिन परीक्षा ली और सभी उनके गणित ज्ञान से चकित रह गये। इसी दौरान कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली को उनके बारे में पता चला, तो प्रोफेसर कैली ने उनकी विद्वता को पहचाना और उन्हें आगे बढऩे की सलाह दी। 1965 में वशिष्ठ नारायण सिंह अमेरिका चले गये। वहाँ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से 1969 में उन्होंने पीएच.डी. की। इसके बाद वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर नियुक्त हो गये। इसके बाद कुछ समय नासा में भी काम किया और 1971 में भारत लौट आये। भारत लौटने के बाद उन्होंने क्रमश: आईआईटी (कानपुर), आईआईटी (बम्बई) और आईएसआई (कोलकाता) में नौकरी की। 1973 में उन्होंने अपनी गृहस्थी बसायी; लेकिन विवाह के कुछ समय बाद ही वे सिजोफ्रेनिया (एक मानसिक बीमारी) से पीडि़त हो गये और उनकी पत्नी ने उनसे तलाक ले लिया।
आइंस्टीन के सिद्धांत को दे डाली चुनौती
महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत तक को चुनौती दे डाली और अपनी चुनौती पर खरे उतरे। एक बार नासा में अपोलो की लॉङ्क्षन्चग से पहले गणना के लिए लगाये गये वहाँ के कम्प्यूटर कुछ समय के लिए बन्द हो गये थे। सभी वैज्ञानिक बेहद परेशान थे, मगर वशिष्ठ नारायण सिंह अपनी गणना करने में लगे रहे और कम्प्यूटर ठीक होने से पहले ही सही गणना कर ली। जब सभी कम्प्यूटर ठीक हुए, तो पाया कि उनकी गणना और कम्प्यूटर्स की गणना एक जैसी थी।
चाँद पर पहली बार इंसान भेजने में किया बड़ा योगदान
जाने-माने गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ऐसी महान् शिख्सयत थे, जिन्होंने नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) में गणितज्ञ के रूप में काम करने के दौरान सन् 1969 में अपोलो मिशन लॉङ्क्षन्चग के दौरान पहली बार इंसान को चाँद पर भेजने में अहम भूमिका निभायी। ये वह वक्त था, जब वशिष्ठ नारायण पूरी दुनिया में चॢचत हो गये थे। केवल बिहार ही नहीं, बल्कि समूचे भारत में उनको सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा था।
लेकिन दुर्भाग्य, जब वे तन्हा और बीमार थे, तब हम सभी भारतीयों ने जैसे उन्हें पूरी तरह भुला ही दिया था। दुनिया से उनका जाना भारत के लिए एक बड़ी और अपूर्णीय क्षति है। क्योंकि जिस महान् गणितज्ञ को आज हमने हमेशा के लिए खोया है, वह उन आम लोगों की तरह नहीं है, जिसे अंतिम संस्कार के बाद ही लोग भूल जाया करते हैं। इस महान् गणितज्ञ को तो सदियों तक दुनिया याद रखेगी। अफसोस इसी बात का रहेगा कि ऐसे महान् व्यक्तित्व के अंतिम दिन बेहद पीड़ा और गुमनामी में बीते। इससे भी ज़्यादा अफसोस इस बात का रहेगा कि उनका अच्छी तरह इलाज भी न हो सका। शायद उन्हें ऐसा कोई सदमा था, जिसे वे सहन नहीं कर सके और मानसिक बीमार हो गये। क्योंकि एक बार जब वे अपने भाई के साथ रहने के लिए पुणे में जा रहे थे, तब रास्ते में ट्रेन से अचानक गायब हो गये थे। काफी तलाशाने के बाद सबके हाथ निराशा ही लगी। लेकिन चार साल बाद अचानक वे अपनी पूर्व पत्नी के गाँव के पास एक कूड़े के ढेर के पास मिले और उनकी स्थिति काफी दयनीय थी। ईश्वर उस महान् आत्मा को शांति प्रदान करे। हम उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अॢपत करते हैं।