दुनिया का हर आदमी यह बात अच्छी तरह जानता है कि उसे इस दुनिया से शरीर छोडक़र जाना है। कहाँ जाना है? यह कोई नहीं जानता। लेकिन अंतर्मन की आवाज़ और मज़हबी सीखों के मुताबिक, वह यह मानता है कि मरने के बाद उसे ईश्वर के पास जाना है। उसके मन की भी यही इच्छा रहती है कि वह इस लोक को जब छोड़े, तो उसे ईश्वर की शरण में स्थान मिले। अर्थात् हर इंसान ईश्वर को पाना चाहता है। लेकिन कोई भी यह नहीं जानता कि वह ईश्वर कैसा है? उसका स्वरूप क्या है? उसके कितने नाम, कितने स्वरूप हैं? वह प्राणियों, ख़ासकर इंसानों से क्या चाहता है? उसके बारे में जो कुछ भी लोग जानते हैं, वह या तो ग्रन्थों में लिखे हुए के अनुसार है या उसकी सोच के अनुसार। इससे बाहर और ज़्यादा कम-से-कम आम इंसान तो नहीं जानता।
यही वजह है कि आम लोग ईश्वर को अपनी-अपनी समझ और जिस-जिस मज़हब को वो मानते हैं, उसी के बताये अनुसार उसे पुकारते और मानते हैं। लेकिन लोग ईश्वर के नाम पर मरने-मारने को तैयार रहते हैं। मज़हबों में कहा गया है कि ईश्वर एक है। उसका कोई स्वरूप नहीं है। उसकी बराबरी की कोई दूसरी शक्ति नहीं है। उसका कोई पिता नहीं है, कोई माता नहीं है। लेकिन वह सबका पिता है; परमपिता है। उसने सारे ब्रह्माण्ड को बनाया है, हर जीव, हर चीज़ उसी की मर्ज़ी से पैदा हुई है। नष्ट हो रही है। पैदा होती रहेगी, और नष्ट भी होगी। जीवन-मृत्यु उसी के हाथ में है। इससे बढक़र ज़र्रे-ज़र्रे में उसका वास है। लोगों के दिलों में उसका वास है।
सवाल यह है फिर लोग उसके नाम पर क्यों लड़ते हैं और क्यों आपस में मरने-मारने को तैयार रहते हैं? क्या ईश्वर यही चाहता है? अगर ऐसा है, तो फिर वह दयालु कहाँ है?
आज दुनिया में कोई अल्लाह हू अकबर का नारा देकर आतंकवादी बन बैठा है। कोई गॉड के नाम पर दूसरों को पैरों के नीचे रौंद रहा है। कोई अनल हक़ का नारा देकर सभी मज़हबों के लोगों को नेस्तनाबूद कर देना चाहता है, तो कोई जय श्रीराम के नाम पर मारपीट करने पर आमादा है। हालाँकि सभी मज़हबों में सब लोग ऐसे नहीं है; लेकिन जो ऐसा करते हैं, क्या वे ईश्वर के बताये नेक रास्ते पर चल रहे हैं? आज धर्मयुद्ध के नाम पर हर धर्म (मज़हब) के लोग दूसरे धर्म के लोगों को मार डालना चाहते हैं। किसलिए? क्या इससे उनकी सोच में बैठा ईश्वर $खुश होगा? क्या यह धर्म का रास्ता है? क्या मज़हबों ने इसकी इजाज़त दी है? क्या इससे मन को शान्ति मिल जाएगी? क्या इससे अमरता या स्वर्ग की प्राप्ति होगी?
ईश्वर को पाने के दूसरों के ख़ून बहाने वाली आततायी लोगों की इस सोच पर हँसी आती है। मुझे एक कहानी याद आती है। एक अमीर आदमी के छ: बेटे थे। वह चाहता था कि उसके सभी बेटे $खूब तरक़्क़ी करें, पूरी दुनिया पर राज करें और उसका नाम रौशन करें। यही सोचकर उसने सभी बेटों को अलग-अलग मज़हबों में उनके तरीक़े से अलग-अलग भाषाओं में शिक्षित करने की सोची; ताकि वे हर मज़हब के लोगों पर शासन कर सकें। जब उसके सभी छ: बच्चों की शिक्षा पूरी हुई, तो वे सभी अपने भविष्य की शुरुआत करने से पहले पिता का आशीर्वाद लेने घर आये। जब चारों पिता के सामने बैठे और उनसे अपने-अपने गुण, अपने-अपने काम और अपने-अपने ज्ञान के बारे में बताने को कहा, तो वे सभी अपनी-अपनी तारीफ़ और एक-दूसरे की बुराई करने लगे। देखते-देखते वे मज़हबी बहस पर उतर आये और फिर झगडऩे लगे। हालात यहाँ तक बिगड़े कि छ:-के-छ: भाई एक-दूसरे को मारने पर आमादा हो गये। पिता ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की; लेकिन वह नाकाम रहा। वह समझ चुका था कि इनके बीच दुश्मनी की वजह इनके बुद्धि के विकास के लिए दी गयी अलग-अलग मज़हबों और भाषाओं की शिक्षाएँ हैं।
आज दुनिया भर के लोगों के आपसी मतभेद और झगड़े की वजह भी अलग-अलग भाषाओं, अलग-अलग मज़हबों में मिली शिक्षा और अलग-अलग परिवेश में हुई परवरिश का नतीजा है। लेकिन हम यह भूल चुके हैं कि हमारा परमपिता एक ही है। जिसने एक ही पृथ्वी बनायी है। एक ही हवा बनायी है। एक ही तरह का पानी बनाया है। एक ही तरह का शारीरिक ढाँचा दिया है। एक ही तरह सबको पैदा किया है और सबको ही आख़िरकार मौत आनी है। फिर भी लोग आपस में सिर्फ़ इसलिए लड़-मर रहे हैं, क्योंकि उनको यह लगता है कि उनका ईश्वर अलग है। वे एक-दूसरे से अलग हैं। कैसी विडम्बना है? कितने पागल लोग हैं?
कबीर दास ने कहा है-
पोथी पढि़-पढि़ जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय॥
इसका मतलब तो इतना ही है कि किताबें पढ़-पढक़र जग में कोई पंडित अर्थात् विद्वान नहीं हुआ है, जो प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ता है, सही मायने में वही पंडित होता है। लेकिन इसका भाव यह है कि इंसान कितना भी किताबों, ग्रन्थों और धर्म-ग्रन्थों को पढ़ ले, वह तब तक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक दूसरे प्राणियों, इंसानों से प्रेम नहीं करेगा। यही बात ईश्वर को प्राप्त करने के मामले में लागू होती है। विद्वानों, सन्तों-ऋषियों ने कहा है कि दूसरे प्राणियों, ख़ासकर ग़रीबों, मूक व निरीह प्राणियों की सेवा और उनसे प्रेम ही एक मात्र ईश्वर को पाने का रास्ता है। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम तो एक-दूसरे से घृणा कर रहे हैं। दूसरों को ख़त्म करना चाहते हैं। दूसरों पर शासन करना चाहते हैं। क्या इससे ईश्वर मिल सकेगा?