उत्तर प्रदेश में विधानसभा के हालिया चुनावी नतीजों ने सियासत में अर्श से फर्श की जो मिसाल पेश की है अक्सर भारतीय राजनीति में दिख जाती है. हालांकि न तो सपा ने इतनी बड़ी कामयाबी के ख्वाब देखे थे और न ही बसपा सुप्रीमो मायावती को इतने बड़े सदमे का इल्म था. 20 करोड़ की आबादी वाले सूबे में दुर्गति तो कांग्रेस और भाजपा की भी हुई है, लेकिन सबसे बड़ी चोट उन मायावती को लगी है जिन्हें पांच साल पहले सोशल इंजीनियरिंग के नए फॉर्मूले ने 16 साल बाद प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने का अवसर दिया था. जिस सामाजिक ताने-बाने के चुनावी गणित ने मायावती को पिछली मर्तबा स्टार बनाया था, उसी के उलटने से बसपा को इस बार जमीन सूंघनी पड़ी है. वस्तुतः उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर उसी मुकाम पर वापस पहुंच गई है जो इसके संस्थापक कांशीराम के चरम काल में हुआ करता था.
दरअसल मायावती के इस दुःस्वप्न के लिए उनकी कार्यशैली और वे विश्वस्त जिम्मेदार हैं जिन पर पूरी तरह निर्भर रहते हुए बसपा प्रमुख ने पांच साल तक प्रदेश में राज किया. शासन-प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी जिन अफसरों पर थी उन्होंने ज्यादा वक्त मुख्यमंत्री को इस असलियत से दूर रखा कि अगड़ी जातियों खास तौर से ब्राह्मणों में सरकार के खिलाफ भारी आक्रोश था. यही नहीं, बसपा के जिन जोनल और जिला कोऑर्डिनेटरों के जिम्मे पार्टी संगठन मजबूत करने और सरकार की नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी थी उन्होंने भी पार्टी सुप्रीमो को जमीनी हकीकत से दूर रखा. एक वक्त दो जोड़े कपड़ों में महीनों गुजार देने वाले बसपा के शुरुआती मूवमेंट से जुड़े ज्यादातर कोऑर्डिनेटर महंगी गाड़ियों में घूमने लगे, लेकिन मायावती को यह सब नहीं दिखा.
सरकार के ज्यादातर मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त रहे, लेकिन मुख्यमंत्री को यह तभी नजर आया जब तमाम मामले लोकायुक्त तक पहुंच गए. चुनाव के ऐन पहले तक लोकायुक्त की सिफारिश पर बर्खास्त होने वाले मंत्रियों की संख्या 17 तक पहुंच गई तो जनता को भी लगने लगा कि अगर लोकायुक्त नहीं होता तो शायद मुख्यमंत्री की आंखों को भ्रष्टाचार की भद्दी सूरत नजर ही नहीं आती.
जिन ब्राह्मणों ने पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को वोट दिया था उन्हें सम्मान की बजाय एससी-एसटी ऐक्ट के फर्जी मुकदमों के जरिए अपमान मिला. हालांकि इस ऐक्ट के दुरुपयोग पर मायावती ने सख्ती के निर्देश दिए थे, लेकिन कुछेक घटनाओं के चलते अगड़ी जातियों में सरकार के खिलाफ आक्रोश का माहौल बन गया.
2007 में ऐतिहासिक जीत के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती को सभी जातियों का भरपूर समर्थन मिला. सदियों से एक-दूसरे के खिलाफ रहने वाले ब्राह्मण और दलित बसपा के छाते के नीचे इकट्ठा हो गए, लेकिन मायावती यह संतुलन कायम रख पाने में बुरी तरह असफल रहीं. बसपा सुप्रीमो ने पांच साल तक कमोबेश घर में ही बैठकर सरकार का संचालन किया.
असल में मायावती ने मुलायम सिंह के जंगल राज से निजात दिलाने के सपने तो दिखा दिए थे लेकिन उसको वास्तविकता में बदलने का काम उन्होंने खुद करने की बजाय कुछ चुनिंदा अफसरों के सिर पर छोड़ दिया. प्रदेश के इतिहास में पहली मर्तबा कैबिनेट सचिव का पद बनाकर मुख्यमंत्री नौकरशाही के आसरे हो गईं. पहले जिन मंत्रियों की भीड़ शासकीय दिशानिर्देश के लिए मुख्यमंत्री के दफ्तर में जमती थी वह लाइन कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के दफ्तर में लगने लगी. जनता तो कोसों दूर, मंत्रीगण तक आसानी से मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते थे. यही हाल प्रमुख सचिव और सचिव स्तर के आईएएस अफसरों का था. संवाद का जरिया थे कैबिनेट सचिव और गिनती के कुछ अन्य अफसर और शायद इसी वजह से मायावती को धरातल की खबर हालिया विधानसभा चुनाव के बाद ही मिल पाई.
सत्ता छिनने के बाद मायावती ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन और मुसलमानों के 70 फीसदी मतों के सपा के पक्ष में जाने से बसपा का नुकसान हुआ. मायावती का जोर इस बात पर था कि वे दलितों का पूरा वोट पाने में सफल रही हैं. मायावती के इस बयान में उनकी सबसे बड़ी चिंता छिपी हुई है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे इसे छिपाने की कोशिश कर रही थीं. आंकड़े बताते हैं कि मायावती का दलित जनाधार उनसे दूर हुआ है. वास्तव में गैरजाटव दलित वोटों के बंटने से बसपा का सबसे बड़ा नुकसान हुआ और सूबे की 85 सुरक्षित सीटों में पार्टी को कुल 15 सीटें ही मिल पाईं. पिछली बार यह संख्या 61 थी. इसके विपरीत सपा को 57, कांग्रेस को चार, रालोद और भाजपा को तीन-तीन सीटें मिलीं. मायावती का कहना है कि बसपा की बड़ी हार के पीछे मुसलिम आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच हुई घमासान और हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की चिंता में मुसलिम वोटों का सपा के पक्ष में ध्रुवीकरण एक बड़ा कारण रहा जबकि दलित वोट बैंक पूरी तरह उनके पक्ष में एकजुट रहा. नतीजों पर निगाह डालें तो साफ है कि जाटवों ने तो बसपा का साथ दिया लेकिन धोबी, पासी, बाल्मीकि जैसे गैरजाटव दलितों ने उससे इस बार किनारा कर लिया. मायावती भले ही सफाई दें लेकिन एक हकीकत यह भी है कि गैरजाटव दलित तो 2009 के लोकसभा चुनाव में ही उनसे छिटक गया था. प्रदेश की 17 सुरक्षित लोकसभा सीटों में मुलायम को 11 मिली थीं, जबकि बसपा सिर्फ एक सीट ही जीत सकी थीं.
2007 में सरकार बनते ही मायावती ने अगड़ी जातियों को ज्यादा तवज्जो देते हुए सामाजिक संतुलन का जो ताना-बाना बुना वह दलितों को रास नहीं आया. गांव-गांव और जिलों-जिलों में अंबेडकर की मूर्ति न लगाने के आदेश हुए और एससी/एसटी ऐक्ट का कथित दुरुपयोग रोकने के लिए पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अफसर की सहमति प्राप्त करने का प्रावधान किया गया. दलितों को लगा कि यह मायावती का अगड़ी जातियों के प्रति समर्पण है और गैरजाटव दलितों में इसकी खासी प्रतिक्रिया हुई जो 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों में परिलक्षित हुई.
मायावती सपा के जंगल राज से निजात दिलाने के नाम पर सत्ता में आई थीं, लेकिन उसको लागू करने का काम उन्होंने कुछ अफसरों के सिर पर छोड़ दिया
इसके बाद मायावती ने अपना स्टैंड बदला और बाकी के ढाई साल उनका रवैया अति दलित प्रेम का रहा. इस अवधि में सूबे में बहुत-से स्थानों पर एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग के मामले हुए, लेकिन मुख्यमंत्री को उनके पसंदीदा अफसरों ने इसकी भनक तक नहीं लगने दी जिसका नतीजा अब सामने आया है.
एंटी इन्कंबेन्सी फैक्टर से निपटने के लिए मायावती ने इस बार 100 से ज्यादा मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए. उनकी सोच थी कि जनता में इन चेहरों के प्रति गुस्सा है इसलिए नए चेहरों के साथ चुनाव में उतरने पर वह सारे कुकर्मों को भूल जाएगी. लेकिन जनता का गुस्सा बसपा से था. ज्यादातर क्षेत्रों में अगड़ी जातियों ने बसपा को हराने के लिए जिसे भी सक्षम पाया उसे वोट दिया. यही काम गैरजाटव दलितों ने भी किया. अंबेडकर नगर बसपा का पुराना गढ़ रहा है जहां से मायावती एक मर्तबा लोकसभा भी पहुंच चुकी हैं. अंबेडकर नगर की सभी पांच सीटों पर पिछली बार बसपा के प्रत्याशियों ने चुनाव जीता था. लेकिन इस बार इस जिले में पार्टी का खाता तक नहीं खुला. आस-पास के जिलों बाराबंकी, गोंडा, फैजाबाद, जौनपुर, सुलतानपुर, लखनऊ और प्रतापगढ़ में भी पार्टी शून्य रही जबकि सात-सात विधायक देने वाले आजमगढ़ से पार्टी का केवल एक प्रत्याशी बमुश्किल जीत सका.
वैसे आनुपातिक लिहाज से सपा के मुकाबले बसपा 3.24 प्रतिशत ही पीछे है, लेकिन कुल साढ़े चौबीस लाख वोटों के अंतर के चलते उसे सपा के मुकाबले 144 सीटें कम मिली हैं.
चिंता की साफ लकीरें
दलितों की उदासीनता और ब्राह्मणों की नाराजगी ने मायावती को बैकफुट पर ला दिया है. संभवतः इन्हीं हालात के मद्देनजर बसपा सुप्रीमो ने सूबे में शीघ्र संभावित स्थानीय निकाय चुनाव से दूर रहने का फैसला किया है. इसके पीछे मायावती की खास रणनीति है. बसपा प्रमुख को लगता है कि लोकसभा के चुनाव वक्त से पहले होंगे और स्थानीय निकाय चुनाव में अगर पार्टी हिस्सा लेती है तो उम्मीदन इसके खराब नतीजे बड़ी लड़ाई में पार्टी की हालत और बिगाड़ सकते हैं. फिलहाल मायावती राज्य में पार्टी संगठन को अपनी देखरेख में मजबूत करके एक बार फिर सामाजिक भाईचारा की कवायद शुरू करने जा रही हैं. बसपा सुप्रीमो ने पार्टी के सभी कोऑर्डिनेटरों के काम-काज में बड़ा बदलाव करते हुए प्रदेश को दो हिस्सों में बांटकर संगठन संचालन स्वयं अपने हाथ में लेने का फैसला किया है.
विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद मायावती ने लखनऊ में लगातार दो दिन तक पार्टी संगठन के साथ बैठक करके कार्यकर्ताओं को नए सिरे से निर्देश जारी किए हैं. इन बैठकों में खास बात यह रही कि सतीश चंद्र मिश्रा और नसीमुद्दीन जैसे कद्दावर नेताओं को मायावती ने पहली बार प्रदेश भर से जुटे पार्टीजनों के सामने ही लताड़ लगाई. बसपा सुप्रीमो ने पांच साल में पहली बार इन नेताओं को मंच पर न बैठाकर आम कार्यकर्ताओं के साथ बैठाया. मायावती ने स्वीकार किया कि इन नेताओं ने उन्हें अंधेरे में रखा. पर इससे उनकी अपनी खामी ही उजागर होती है. मायावती ने नसीमुद्दीन को कार्यकर्ताओं के सामने ही डांटते हुए कहा, ‘तुम चुप रहो, मैं सब देख लूंगी.’ इस पर हॉल में बैठे बसपाइयों ने जमकर तालियां बजाईं. मायावती ने पार्टी के प्रमुख कोऑर्डिनेटर जुगल किशोर को भी खरी-खोटी सुनाई, ‘यह अकेले ही अस्सी-नब्बे सीटें जिता रहा था, अपने बेटे के लिए टिकट मांगा तो मैने दे दिया, उसको भी नहीं जिता पाया. अब चुपके से पीछे बैठा है.’
बसपा सुप्रीमो ने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टीजनों के बीच अपना एजेंडा साफ कर दिया है. दलित वर्ग के कार्यकर्ताओं के साथ ही सभी सांसदों, विधायकों, पराजित प्रत्याशियों और कोऑर्डिनेटर को कहा गया है कि प्रदेश में एससी/एसटी ऐक्ट के तहत मुकदमे दर्ज कराने से यथासंभव परहेज किया जाए. यदि किसी दलित के साथ कोई संगीन जुर्म होता है तभी थाने जाने की जरूरत है. दरअसल मायावती का सोचना है कि इस ऐक्ट के दुरुपयोग का भ्रामक प्रचार करके दूसरी पार्टियों ने उन्हे बड़ा सियासी नुकसान पहुंचाया है और अब सत्तारूढ़ दल के समर्थक एक बार फिर ऐसा माहौल बनाने की साजिश कर सकते हैं.
अगड़ी जातियों के साथ रिश्ते सुधारने के साथ ही मायावती का दूसरा खास एजेंडा ओबीसी वोट बैंक के बीच फिर से अपनी पहुंच बनाना है. मायावती ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए हैं कि वे पिछड़ी जातियों के बीच जाकर भरोसा पैदा करें और उन्हें समझाएं कि आज उन्हें आरक्षण का जो लाभ मिल रहा है वह वास्तव में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की देन है. बसपा सुप्रीमो ने स्वीकार किया है कि उन्होने अपने दलित पदाधिकारियों पर भरोसा किया लेकिन वे सवर्णों के बीच स्थान नहीं बना पाए.
जाहिर है कि मायावती को अपने सोशल इंजीनियरिंग का गणित फेल होने का अहसास हुआ है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो इसके ठोस उपाय ढूढ़ने की कवायद उन्होने शुरू कर दी है. मायावती की रणनीति अब न्यूनतम गलती करने और समाजवादी पार्टी सरकार की हर गलती पर नजर रखने की होगी.