एमपी, यूपी या उमा भारतीय!

भाजपा में वापसी के बाद जब उमा भारती को उत्तर प्रदेश भेजा गया तब किसी को भी यह भ्रम नहीं था कि वे वहां जाकर क्रांति करने वाली हैं. भाजपा और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी समेत खुद उमा भारती भी जानती थीं कि पार्टी में वापसी के बाद यूपी में उन्हें मिली पहली पोस्टिंग का क्या मतलब है. खैर, कार्यकर्ता, संगठन और नेतृत्व विहीन या कहें मरणासन्न प्रदेश भाजपा के साथ उन्होंने काम किया. नतीजा सामने है. पार्टी बुरी तरह चुनाव हार चुकी है. 2007 के मुकाबले न सिर्फ उसे चार सीटें कम मिली हैं बल्कि वोट प्रतिशत में भी कमी आई है. हां, उमा चरखारी विधानसभा से अपनी सीट जीतने में कामयाब हुईं. अब फिर से वही यक्ष प्रश्न सामने है कि उमा भारती का अगला राजनीतिक कदम क्या होगा.

अगर उमा भारती के गृह प्रदेश की बात करें तो 2003 के मध्य प्रदेश और अब के मध्य प्रदेश में बहुत परिवर्तन आ गया है. वहां अब प्रदेश भाजपा में बहुत कम ऐसे लोग बचे हैं जो साल 2003 के उस वक्त को याद करना चाहते हैं जब उमा ने राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह को चुनावी दंगल में धूल चटाई थी. उनके जो थोड़े-बहुत शुभचिंतक यहां हैं भी उनकी स्थिति बेहद कमजोर है.

उमा इस बात को जानती हैं कि वापसी के समय जिन शर्तों को उन्होंने स्वीकार किया उनमें सबसे बड़ी यही थी कि वे मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहेंगी. ऐसे में एक चीज स्पष्ट है कि भले ही उमा की और कहीं कोई भूमिका निकल सकती हो लेकिन मध्य प्रदेश के राजनीतिक कपाट उनके लिए बंद हो चुके हैं. यहां के भाजपा नेताओं ने उमा की वापसी का सबसे ज्यादा विरोध किया था. उन्हें डर था कि वापसी के बाद प्रदेश के मामलों में उमा हस्तक्षेप जरूर करेंगी.

यह भी रोचक तथ्य है कि जैसे ही उमा को बुंदेलखंड के चरखारी से विधानसभा का टिकट दिया गया उमा से ज्यादा खुशी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अन्य नेताओं को हुई. इससे वे आश्वस्त हो गए कि उमा अब उत्तर प्रदेश में ही रहने वाली हैं. यही कारण है कि जो उमा शिवराज सिंह चौहान पर कभी बच्चा चोर होने का आरोप लगाती थीं वही कुछ समय बाद उनके गले लगते दिखाई दीं. और जिन उमा को शिवराज अपनी राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे उन्हीं को चुनाव जितवाने की अपील वे चरखारी की जनता से करते हुए नजर आए. शिवराज को उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत या हार से उतना मतलब नहीं था जितना कि चरखारी में उमा की जीत से था क्योंकि ऐसा होने पर उनके वापस मध्य प्रदेश जाने की आशंका कुछ और कम हो जाती.

जानकारों का मानना है कि उमा इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी हैं कि मध्य प्रदेश में अब उनके लिए कोई राजनीतिक जमीन बची नहीं है और राष्ट्रीय स्तर पर नेताओं के बीच ऐसे ही पद और वर्चस्व को लेकर सिर-फुटौव्वल मची हुई है. उमा के एक अत्यंत करीबी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘देखिए, दीदी जानती हैं कि उनके पास विकल्प नहीं है. मध्य प्रदेश वे जा नहीं सकती. केंद्र में अभी न कोई जगह है न ही पार्टी के कई नेता उन्हें वहां देखना चाहते हैं ऐसे में उनके लिए यूपी ही एकमात्र विकल्प बचता है.’

कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि उमा आगे क्या करेंगी, पार्टी में उन्हें क्या नई जिम्मेदारी मिलेगी, उनकी राजनीतिक हैसियत कितनी कमजोर या मजबूत होगी यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि नितिन गडकरी की स्थिति आने वाले समय में कैसी रहती है. तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए पार्टी में उन्हें वापस लाने वाले गडकरी अगर कमजोर होते हैं तो उमा की राजनीतिक यात्रा में जबरदस्त मुश्किलें पेश आने वाली हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि खुद को स्थापित करने और खोई हैसियत पाने के साथ ही पार्टी को स्थापित करने के लिए भी यह जरूरी है कि उमा उत्तर प्रदेश में रहकर काम करें क्योंकि वर्तमान चुनाव परिणामों ने बता दिया है कि जब तक दिल दिल्ली में लगा रहेगा तब तक उत्तर प्रदेश में जीत नामुमकिन है. उमा ने भी जीत के बाद पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा है कि वे यूपी में ही काम करना चाहेंगी, उनकी नई पहचान उत्तर प्रदेश के चरखारी की विधायक के तौर पर है और वे इससे बहुत खुश हैं. अब देखने वाली बात यह होगी कि जो व्यक्ति विधानसभा में सबसे पहली पंक्ति के सबसे पहले स्थान पर कभी बैठा हो वह 403 लोगों की भीड़ में किसी कोने में बैठा कैसा महसूस करेगा. मगर पिछले सात-आठ साल में उमा इससे कहीं ज्यादा अजीबोगरीब और बुरा एक नहीं बल्कि कई-कई बार देख चुकी हैं.