दिल्ली के जीबी रोड को बदनाम गलियों में शामिल मत मानो; क्योंकि दिल्ली की तंग गलियों में एचआईवी एड्स के वायरस आसानी से अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। जीबी रोड में वेश्यावृत्ति में शामिल बदला नाम 24 वर्षीय प्रीति ने बताया कि 01 दिसंबर को विश्व एचआईवी एड्स दिवस पर सरकार और तमाम एड्स रोग से जुड़ी संस्थाएँ पूरी तरह से कार्यक्रम कर नाटक करेंगी कि वे एड्स रोग को समाप्त करने में सक्रिय हैं, परन्तु ऐसा है नहीं। सेक्स वर्कर ज्योति ने बताया कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में कंडोम तो मिलते हैं, पर यहाँ पर जो एनजीओ वाले हैं, वे कभी-कभार कंडोम वितरित करते हैं। ऐसे में एड्स उन्मूलन के नाम पर वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं, युवतियों के साथ खिलवाड़ हो रहा है। उन्होंने बताया कि जीबी रोड पर सरकार और पुलिस की नज़र है कि यह वायरस वाला रोड है; यह रोड बदनाम भी है। लेकिन उन गलियों का लेखा-जोखा सरकार या किसी संस्था के पास नहीं है, जो अब दिल्ली की नामी-गिरामी गलियों को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं।
इस जानलेवा महामारी को समाप्त करने के लिए सरकार करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा रही हैं। कहने को सरकार, नाको और हज़ारों की संख्या में लगे एनजीओ इस बीमारी से निपटने के लिए काम कर रहे हैं। फिर भी इस रोग की जड़ें सिर्फ दिल्ली के जीबी रोड तक ही महदूद नहीं हैं, बल्कि एड्स आसानी से पूरे देश में पैर पसार रहा है। इसकी वजह जागरूकता का अभाव है। पढ़े-लिखे युवाओं के बीच ये भ्रान्ति है कि एड्स नामक बीमारी लगभग खत्म हो चुकी है; जबकि सच्चाई यह है कि आज भी इस बीमारी का वायरस तेज़ी से फैल रहा है।
इन्हीं तमाम पहलुओं पर तहलका संवाददाता ने डॉक्टर्स, एड्स की रोकथाम से लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने काम कर रहे एनजीओ के प्रतिनिधियों केअलावा एड्स पीडि़तों से बातचीत की; साथ ही नाको के आला अधिकारियों से जाना कि कहाँ चूक हो रही है, जो एड्स का खात्मा होना तो दूर, उस पर रोक भी नहीं लग पा रही है। दिल्ली के अस्पतालों में इलाज करा रहे एड्स रोगी कुमार ने बताया कि इसका पता जब उन्हें चला, तो वो हतप्रभ रह गये कि किसको बताएँ, किसे नहीं। यह बीमारी है ही ऐसी कि समाज में और घर में बताने लायक नहीं है; क्योंकि लोग उनसे दूरी बना लेंगे, यहाँ तक कि समाज से बहिष्कार का खतरा रहता है। वे यहाँ दिल्ली के अलग-अलग अस्पतालों में जाकर इलाज करा रहे हैं। हालाँकि उनका कहना है कि यह रोग यौन सम्बन्ध के कारण नहीं हुआ है। उनका कहना है कि वह सरकार से पत्रों के ज़रिये सूचित व जानकारी देते हैं कि इस रोग को लेकर सरकार उन एनजीओ वालों पर कार्यवाही क्यों नहीं करती, जो तंग गलियों में दवा वितरित तक नहीं करते हैं। एनजीओ वाले विश्व एड्स दिवस के आस-पास अधिक सक्रिय दिखते हैं। बाकी पूरे साल दिखाई तक नहीं देते हैं। एनजीओ वालों की साँठगाँठ करने वाले अधिकारियों पर कार्यवाही क्यों नहीं होती है?
वहीं, बृजेश कुमार ने बताया कि वह मूल रूप से गाज़ीपुर के रहने वाले हैं। वह मुम्बई में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए गये थे; लेकिन किशोरावास्था में वह यार-दोस्तों की संगत में आकर असुरक्षित यौन सम्बन्ध के चलते एड्स की चपेट में आ गये। मगर उन्होंने रोग को छिपाया नहीं, बल्कि इसका उपचार करवाने के साथ एड्स उन्मूलन अभियान में लग गये और सार्वजनिक तौर पर वह एड्स रोग का इलाज करवा रहे हैं और ग्लोबल एलांयस फॉर ह्यूमन राइट्स नामक संस्था के नाम पर एड्स रोगियों के अधिकारों के लिए एनजीओ और नाको के िखलाफ संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि एड्स के नाम पर ज़्यादातर एनजीओ वाले लूट-खसूट कर रहे हैं। इसके िखलाफ उन्होंने प्रधानमंत्री से लेकर सीबीआई तक लिखित में शिकायत की है, परन्तु कार्यवाही नहीं होने से अदालत के दरवा•ो खटखटाने की बात कही। बृजेश की माँग है कि ऐसे एनजीओ, जो करोड़ों रुपये सरकार से लेतेे हैं, उनको और नाको जैसी संस्था को आरटीआई के दायरे में आना चाहिए, ताकि कामकाज और पैसा की पारदर्शिता बनी रहे। उन्होंने कहा कि एड्स रोगियों को इलाज के नाम पर मिलने वाला पैसा सही मद में खर्च हो। इंडिया एचआईवी एड्स अलायंस की चीफ एग्जीक्यूटिव सोनल मेहता ने बताया कि वे एड्स उन्मूलन के नाम पर दो दशक से काम कर रही हैं। वे केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार और दादर नागर हवेली को छोड़कर पूरे देश में काम करती हैं। सोनल मेहता ने बताया कि ग्लोबल फंड से सलाना 41 करोड़ रुपये मिलता है, जो उनके अलायंस के तहत 300 एनजीओ काम कर रहे हैं। पैसे का इस्तेमाल गाँव से लेकर शहरों तक में एड्स रोगियों को दवा के साथ-साथ विकास की मुख्यधारा मेें लाने के लिए किया जाता है। अभी तक 13 लाख लोगों को सोनल ने संस्था से जोड़कर उनका इलाज कराया है और मरीज़ों को जागरूक किया है। सोनल ने बताया कि मेक एड्स फंड एचएसबीसी बैंक वाले फंड बच्चों के इलाज के लिए जो माँ के गर्भ से या किसी लापरवाही के कारण एड्स रोग की चपेट में आ रहे हैं, उनका मनोबल बढ़ाने और पढ़ाई-लिखाई के नाम पर पैसों का सहयोग देती हैं। एल्टन जॉन एड्स फाउंडेशन भी एड्स के इलाज के लिए पैसा देती है। नाको के एडीजी डॉ. नरेश गोयल ने बताया कि नाको एड्स उन्मूलन पर सरकारी पैसे का सही तरीकेसे जागरूकता और दवाओं के नाम पर खर्च करती है और नाको के तहत 2,400 एनजीओ काम कर रहे हैं और नाको को 2,500 करोड़ सालाना अनुदान मिलता है। िफलहाल अब अन्य कहीं से फंड नहीं आ रहा है। इस बारे में दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल व नेशनल मेडिकल फोरम के चेयरमैन डॉ. प्रेम अग्रवाल ने बताया कि यह रोग अन्य रोग की तुलना में ज़्यादा घातक है। लेकिन इसका इलाज सम्भव है, अगर रोगी समय-समय पर इलाज करवाये, तो वह अपनी पूरी आयु आसानी से व्यतीत कर सकता है। उन्होंने बताया कि एचआईवी इम्यूनो डेफिशियंसी वायरस असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण होता है। रक्त के चढ़ाने से माँ और अजन्मे बच्चे को भी एड्स का खतरा हो जाता है। इसका संक्रमण तीन सप्ताह से लेकर छ: महीने तक संक्रमित खून की गिरफ्त में आने से अपना शिकार बना लेता है। सबसे गम्भीर बात यह है कि इसके विषाणु बिना किसी लक्षण के शरीर में तीन से 10 साल तक मौज़ूद रहते हैं। एड्स बीमारी शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम करती है, जो कैंसर और टीबी जैसे रोग के साथ तेज़ बुखार का कारण बनती है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि दुनिया चिकित्सा के क्षेत्र में तमाम तरक्की कर रही है, ऐसे में एड्स का जड़ से इलाज करने का उचित इलाज नहीं खोजा जा सका है। अभी तक कोई टीका नहीं तैयार किया जा सका है।
आज भी देश में एचआईवी-एड्स नामक जानलेवा बीमारी से हज़ारों की संख्या में हर साल मरीज़ मर-खप रहे हैं। •िाम्मेदारी होते हुए भी इस बात का जवाब न तो सरकार के पास है और न ही उन संस्थाओं के पास, जो इलाज के नाम जमकर सरकारी पैसे की लूट-खसूट कर रही हैं।
एड्स के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी बढ़ रहे हैं विषाणु।
नाको के मुताबिक, हर साल लगभग 70 हज़ार एड्स के रोगी मर रहे हैं; स्पष्ट आँकड़े नहीं।
एनजीओ पर जवाबदेही न होने के चलते सहायता-फंड का लेखा-जोखा नहीं है।
अन्य बीमारियों की तुलना में यह घातक बीमारी है।
सरकार की उदासीनता के कारण मामले बढ़ रहे हैं।
ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों में अन्य विभागों की तरह एड्स विभाग नहीं हैं।