इंसान के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना सुख की चाहत है। सुख की चाहत में ही इंसान ने सुविधाओं की खोज की और जब भौतिक सुख से उसे शान्ति नहीं मिली, तो उसने ईश्वर की तरफ़ देखा। एक ऐसे अनंत सुख की तलाश में, जो कभी समाप्त न हो। इसके लिए ही धीरे-धीरे ईश्वर को पाने के रास्ते तलाशे, जिन्हें धर्म यानी मज़हब का नाम दिया। धर्म / मज़हब दरअसल अच्छाई और सच्चाई का वह मार्ग है, जो इंसान को इंसान तो बनाये रखता ही है; देवता भी बना सकता है। इसीलिए धर्म भ्रष्ट लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। लेकिन अब बहुत-से धर्म भ्रष्ट लोग भी धर्मों के ठेकेदार बने बैठे हैं और मूर्खों तथा नासमझों के पूज्यनीय हैं।
सही मायने में मज़हब इंसान के आत्मिक सुख के लिए बने हैं। मज़हब भौतिक सुखों से ऊब होने या सांसारिक झंझावातों से दु:खी होने के बाद सुकून पाने के लिए हैं, जिनके ज़रिये इंसान ईश्वर की शरण में जाने का रास्ता तलाश करता है।
सामान्य लोग अमूमन यही मानते हैं कि उनका मज़हब दूसरे मज़हबों से श्रेष्ठ है। उनका मज़हब उन्हें स्वर्ग तक ले जाने में मददगार साबित होगा। उनका उद्धार करेगा। उनका मज़हब ही सही है। उनका मज़हब ईश्वर का बताया वह रास्ता है, जिस पर चलने से उनका ईश्वर से मिलन पक्का है। यह सम्भव भी है। लेकिन दूसरों के मज़हब को निकृष्ट मानने की सोच ने लोगों में ऐसी फूट डाल दी है, जो उन्हें कभी चैन से नहीं रहने देगी।
आज जिस तरह से विभिन्न मज़हबों में फूट पड़ी हुई है, अगर वह ऐसे ही बढ़ी, तो आने वाले समय में और भी घातक परिणाम वाली और मानव जाति के लिए संकट पैदा करने वाली साबित होगी। अगर आपसी नफ़रतें और बढ़ीं, तो सम्भव है कि जो मज़हब इंसानों को अमन-चैन से रहने, दूसरों की सेवा करने, उनका हक़ न मारने और ईश्वर की ओर जाने के लिए बनाये गये थे, वही मज़हब इंसानों की असमय और हिंसक मौत का कारण बन जाएँ।
स्वामी विवेकानंद ने कहते हैं- ‘हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद हैं, न बाइबिल है, न क़ुरान; परन्तु वेद, बाइबिल और क़ुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।’
यह बात सभी मज़हबों के कट्टरपंथियों के लिए असहनीय हो सकती है, किन्तु है बहुत महत्त्वपूर्ण और बड़ी। इसे सरलता से इस तरह समझा जा सकता है- मसलन, किसी मंज़िल तक पहुँचने के लिए लोग अलग-अलग संसाधनों और अलग-अलग मार्गों से जा सकते हैं। लेकिन सभी का ध्येय एक ही है- मंज़िल। ईश्वर वही मंज़िल है। भले ही लोगों ने भाषाओं के हिसाब से उसके अलग-अलग नाम रख लिये हैं और उसको अलग-अलग समझने-मानने का भ्रम पाल बैठे हैं। लेकिन दुनिया के किसी इंसान की बात तो दूर, पूरे ब्रह्माण्ड में किसी में भी वह ताक़त या हिम्मत नहीं, जो ईश्वर को बाँट सके। ईश्वर को तो क्या, कोई ईश्वर की बनायी किसी भी तत्व रचना को न नष्ट कर सकता है और न ही बाँट सकता है; चाहे वह ब्रह्माण्ड की कोई भी चीज़ क्यों न हो। फिर ईश्वर को बाँटने की बात ही कहाँ पैदा होती है?
जो लोग उसे और उसकी सृष्टि को बाँटने की बात करते हैं, उनसे बड़ा मूर्ख दुनिया में कोई नहीं। ऐसे लोग दोषी भी हैं और पापी भी; जो लोगों को बाँटने का दोष करते हैं और यह किसी भयंकर पाप से कम नहीं है।
दरअसल यह लड़ाई धर्मों की नहीं, बल्कि कुछ मूर्खों की है; जिन्हें भौतिक सुख की चाहत में मज़हबों की आड़ लेकर चंद धार्मिक और राजनीतिक सत्ताधारी लोग मु$र्गों की तरह लड़वाते रहते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ मवाली भी पालने पड़ते हैं। पक्का मज़हबी होने का ढोंग भी करना पड़ता है। मीठा ज़हर भी उगलना पड़ता है। अपने मज़हब के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में नफ़रत की चिंगारी भी सुलगानी पड़ती है। दूसरे मज़हबों के लोगों को भडक़ाना पड़ता है और उन्हें तंग भी करना पड़ता है।
समझदार ऐसे लोगों से वास्ता नहीं रखते। बँटवारा नफ़रत, दुश्मनी और विनाश के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। अफ़सोस जो मज़हब इंसान के उद्धार के लिए बनाये गये थे, आज वही मज़हब उसके पतन, उसके विनाश का कारण बनते जा रहे हैं। अगर इस बात को सभी मज़हबों को मानने वाले लोग अब भी नहीं समझेंगे, तो उनकी नस्लें किसी भी हाल में सुरक्षित नहीं रह पाएँगी। इससे न केवल उनका सुकून छिनता जाएगा, बल्कि एक-न-एक दिन उनका आपस में लडक़र मरना तय है। ईश्वर ने इंसान को सृष्टि (पृथ्वी) के सभी प्राणियों और प्राकृतिक संसाधनों के रक्षार्थ बनाया है। लेकिन इंसान ने अपने भोग, लिप्सा के लिए सभी मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए, कर्तव्यों से मुँह मोडक़र सब कुछ तहस-नहस करना शुरू कर दिया; केवल अपने स्वार्थ के लिए। धर्मों के कई ठेकेदार कहते हैं कि यह सब भ्रमजाल और मायाजाल है। अगर वास्तव में यह सब भ्रमजाल या मायाजाल है, तो वे लोग ख़ुद इसमें उलझे हुए क्यों हैं? क्यों नहीं वे इस भ्रमजाल और मायाजाल से बाहर आना चाहते? और क्यों दूसरे सामान्य लोगों को इसमें उलझाकर रखना चाहते हैं? यह सवाल हर सामान्य व्यक्ति को उनसे ही पूछने चाहिए।