एक सरकार मंत्री हजार!

फोटोः प्रमोद सिंह

राजनीति में भले ही मुलायम सिंह यादव और मायावती में 36 का आंकड़ा हो, लेकिन पूर्ववर्ती बसपा सरकार के एक विवादास्पद कदम का इस्तेमाल करने में मौजूदा सपा सरकार को कोई हिचक नहीं. दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार पूर्ववर्ती बसपा सरकार द्वारा 2007 में जारी एक शासनादेश (ऑफिस मेमोरेंडम) के आधार पर ‘मंत्रियों’ की एक ऐसी परिषद का संचालन कर रही है जिसका आकार राज्य कैबिनेट से करीब तीन गुना बड़ा है. उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्रीपद का दर्जा पाए 200 से ज्यादा ये लोग प्रदेश के कई बोर्डों या परिषदों के प्रमुख हैं या सरकारी विभागों के सलाहकार की भूमिका में हैं. ये सभी समाजवादी पार्टी में दूसरी या तीसरी पांत के नेता हैं  और किसी न किसी जाति या समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनको मायावती सरकार के दौरान जुलाई, 2007 में जारी एक शासनादेश के आधार पर कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री या उप मंत्री का दर्जा दिया गया है. सरकार द्वारा इन अतिरिक्त ‘ मंत्रियों ‘ की नियुक्ति को चुनौती देते हुए इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करने वाले सच्चिदानंद गुप्ता कहते हैं, ‘ इन लोगों का समूह अपने आप ही एक अलग कैबिनेट हो गई. यह चोर दरवाजे से बनाई गई मंत्रिेयों की परिषद है, जो संवैधानिक रूप से बने मंत्रिमंडल जिसके मुखिया मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हैं, से बहुत बड़ी है. यह सीधे-सीधे संविधान का उल्लंघन है. संविधान में 2003 में हुए 91वें संशोधन के मुताबिक सरकार राज्य विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी से ज्यादा मंत्री नहीं बना सकती है और इसमें मुख्यमंत्री भी शामिल है.’

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 13 दिसंबर, 2013 को एक अंतरिम आदेश जारी करके उत्तर प्रदेश में इस तरह की नई नियुक्तियों पर पाबंदी लगा दी थी. इसी आदेश में निगमों, स्थानीय निकायों, प्राधिकरणों के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों व सलाहकारों के पद पर बैठे इन लोगों द्वारा लाल बत्ती के इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगा दी गई है. बाद में उत्तर प्रदेश सरकार उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय चली गई. जहां यह अपील 15 फरवरी को खारिज हो चुकी है. इस माह के अंत तक इस मामले की अगली सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में होनी है.

प्रदेश सरकार ने जब इन लोगों को मंत्री का दर्जा दिया है तो उन पर सरकारी खजाने से खर्च भी होता होगा. तहलका ने जब यह जानने की कोशिश की तो पता चला कि इसका आंकड़ा किसी एक जगह मिलना मुश्किल है. उत्तर प्रदेश में बजट अनुदान के लिए 92 विभाग प्रमुख हैं. इनके जरिए ही प्रदेश के सभी खर्चों के लिए पैसा दिया जाता है. हालांकि वित्त विभाग के मुताबिक हर महीने ही इन लोगों पर खर्चा करोड़ों रुपये में है. ‘

उत्तर प्रदेश में मंत्रियों की अधिकतम संख्या 60 हो सकती है जबकि चोर दरवाजे से बने इन मंत्रियों की वजह से यह संख्या 200 के पार पहुंच गई है. ‘ गुप्ता कहते हैं, ‘ ये राजनेता खुद को मंत्री की तरह से पेश कर रहे हैं जो कि साफतौर पर संविधान का उल्लंघन है. संविधान में 91 वें संशोधन के द्वारा सरकार में मंत्रियों की संख्या सीमित कर दी गई है, इस हिसाब से प्रदेश में इतने लोगों को मंत्री का दर्जा देना न सिर्फ असंगत और मनमाना फैसला है, यह असंवैधानिक भी है. ‘ संविधान तो खैर इन दर्जा प्राप्त मंत्रियों में बारे में जो भी कहता हो, लेकिन ये अपने को कहीं से कम नहीं समझते. इन्होंने अपने-अपने गृहजिलों में खुद को मंत्री बताने वाले बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगवाए हैं. यही नहीं, ये अपने लेटरहेडों पर खुद को मंत्री बताते हुए सरकारी विभागों तक में सिफारिशी पत्र भेजते हैं. बतौर मंत्री मुख्यमंत्री तक को इनके सिफारिशी पत्र जाते हैं.

सच्चिदानंद ने अपनी याचिका में दलील दी है कि सरकार के पास यह कानूनी अधिकार नहीं है कि वह लोगों को सलाहकार, अध्यक्ष और विभागों, बोर्डों, निगमों और आयोगों आदि का प्रमुख बनाकर कैबिनेट या राज्य मंत्री का दर्जा दे. इन नियुक्तियों का कोई कानूनी आधार नहीं है. इन लोगों के पास सरकार से जुड़ी जानकारियां होती हैं और इनकी पहुंच आधिकारिक दस्तावेजों तक होती है. ऐसे दस्तावेज जो सरकार की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं और उन तक सिर्फ उन्हीं लोगों की पहुंच होनी चाहिए जिन्होंने गोपनीयता की शपथ ली है. इस तरह से इन दर्जा प्राप्त ‘मंत्रियों’ के पास सरकार के फैसले प्रभावित करने के पर्याप्त मौके होते हैं.

गुप्ता बताते हैं, ‘ राज्य सरकार ने अभी तक जुलाई, 2007 में जारी हुए शासनादेश को रद्द नहीं किया है. जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसे बीते दिसंबर में खारिज कर चुका है. ऐसे में तो यह न्यायालय की अवमानना का मामला बनता है. इन कैबिनेट मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के आधिकारिक वाहनों में लाल बत्ती का इस्तेमाल और  इनकी सहूलियतों के लिए जनता के पैसे का दुरुपयोग न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि गैरकानूनी भी है.’

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के पूर्व प्रदेश सचिव अशोक मिश्रा भी सच्चिदानंद की बात का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं कि राजनीतिक नियुक्तियों पर आए इन लोगों के पास अपने दर्जे के हिसाब से काम करने के अधिकार नहीं हैं. मिश्रा कहते हैं, ‘ इस तरह से राजनीतिक संरक्षण देना आजकल की राजनीति में बहुत चल रहा है लेकिन सरकार के विभिन्न विभागों में सलाहकार, सदस्य या अध्यक्ष बनाने के तरीके बिल्कुल नाजायज हैं. ये जल्दबाजी में कुछ लोगों को राजनीतिक संरक्षण देने के लिए सत्ता का दुरुपयोग है. ये नियुक्तियां अवैधानिक और मनमानी तो हैं ही ये जनता के पैसे की बर्बादी भी है.’

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दर्जा और सुख-लाभ

मायावती सरकार द्वारा 2007 में जारी शासनादेश के तहत मंत्री और राज्य मंत्री का दर्जा जिन लोगों को दिया जाएगा उन्हें कई सुविधाएं मिलेंगी

  • मंत्री और राज्य मंत्रियों को हर महीने 40,000 रुपये का मानदेय दिया जाएगा और यह मानदेय उस संबंधित निकाय या उससे जुड़ी प्रशासनिक इकाई को वहन करना होगा. उप मंत्री के लिए मानदेय की राशि 35,000 रुपये है.
  • ऐसे हर विशिष्टजन को वाहन चालक के साथ वाहन की सेवाएं उपलब्ध करवाई जाएंगी. इसमें लाल बत्ती होगी. ईंधन और अन्य खर्चे सरकार देगी
  • हर एक मंत्री को दो टेलीफोन कनेक्शन (एक घर में और एक कार्यालय में), दो निजी सहायक और दो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी उपलब्ध कराए जाएंगे
  • राज्य संपत्ति विभाग इन लोगों को सरकारी आवास देगा. यदि कोई मंत्री इस आवास में नहीं रहता तो सरकार उसे हाउस रेंट के रूप में 10,000 रुपये देगी. उपमंत्री के लिए यह अलाउंस 8,000 रुपये है.
  • आधिकारिक दौरे पर मंत्रियों को उनके सहायक के साथ हवाई जहाज या रेलवे का एसी प्रथम श्रेणी का टिकट दिया जाएगा
  • मंत्रियों के परिवार के सदस्यों का इलाज मुफ्त में होगा. निजी अस्पताल के खर्चे सरकार वहन करेगी
  • ये लोग यदि राज्य का दौरा कर रहे हैं तो प्रतिदिन के हिसाब से इन्हें 100 रुपये महंगाई भत्ता मिलेगा. राज्य के बाहर जाने पर यह 750 रुपये होगा
  • अतिथियों के लिए नाश्ते और खानपान के लिए मंत्रियों को हर महीने 10,000 रुपये का भत्ता देने का प्रावधान है. राज्य मंत्रियों के लिए यह राशि 7,500 रुपये और उप मंत्रियों के लिए 6,500 रुपये है

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इस पूरे मसले पर उत्तर प्रदेश सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता जफरयाब जिलानी सरकार की स्थिति को मुश्किल मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला कि सरकार ने जिन लोगों को कैबिनेट या राज्य मंत्री का दर्जा दिया है वे  लाल बत्ती लगे वाहनों का इस्तेमाल नहीं कर सकते, बिल्कुल स्पष्ट है. क्योंकि इन लोगों की किसी संवैधानिक पद पर नियुक्ति नहीं हुई है. हालांकि इस फैसले में नई नियुक्तियों पर ही पाबंदी लगाई गई है. इस अंतरिम आदेश के पहले जिन लोगों को मंत्री और राज्य मंत्री दर्जा दिया गया है उनको राज्य सरकार पहले की तरह सुविधाएं दे सकती है क्योंकि अदालत ने इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है.’

इस पूरी बहस के बीच एक पक्ष उन नेताओं का भी है जिन्हें ऐसे पदों से नवाजा गया है. इन्हीं में से एक सुरेश पांडे दावा करते हैं कि सरकार उनके लिए कोई अतिरिक्त सुविधाएं नहीं देती. वे कहते हैं, ‘ मैं चार दशकों से सार्वजनिक जीवन में हूं. मुझे नहीं लगता कि सरकार ने कुछ सुविधाओं के साथ मुझे मंत्री का दर्जा देकर कोई विशेष कृपा की है.’ राज्य योजना आयोग में सलाहकार पांडे यह भी कहते हैं, ‘ उच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने के लिए सरकार जो भी कदम उठाएगी मैं उसके साथ हूं. हालांकि जहां तक मुझे लगता है तो सरकार जल्द ही जुलाई,2007 के शासनादेश में बदलाव करेगी और कुछ सुविधाओं और लाभों में कटौती करेगी.’