एका की चाह, एकला राह

कुछ माह पहले जब नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी की ओर से पटना के गांधी मैदान में चार नवंबर को अधिकार रैली की घोषणा की थी तो लगे हाथ उसी समय बिहार में विधायकविहीन राजनीतिक दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) की ओर से भी नौ नवंबर को गांधी मैदान में ही परिवर्तन रैली की घोषणा हुई थी. तभी से यह कहा जाने लगा था कि भला सत्ताधारी दल की रैली के तुरंत बाद भाकपा माले की रैली की क्या बिसात होगी.

लेकिन आठ नवंबर को जब पटना के गांधी मैदान के आस-पास दूर-दराज के लोग अपने-अपने झोले-बोरे और खुद से ही खाने-पीने के इंतजाम के साथ पहुंच ठंड में डेरा जमाने लगे और नौ को अल-सुबह से ही हर सड़क जब लाल झंडा लिए लोगों की भीड़ से पटी हुई दिखी तो पूर्वानुमान ध्वस्त हो गए. परिवर्तन रैली में करीब एक लाख की भीड़ गांधी मैदान पहुंची. भाकपा माले  के नेताओं में उत्साह भर गया. केंद्र और राज्य सरकार, दोनों की नीतियों पर जमकर निशाना साधा गया. भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य कहते हैं, ‘हम इस रैली के जरिए केंद्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों के साथ यह भी बताना चाहते थे कि नीतीश अगर भाजपा की गोद में बैठकर राजनीति कर रहे हैं तो लालू प्रसाद भी कांग्रेस की गोद में बैठे हुए हैं और बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार से लेकर खुदरा विदेशी निवेश के खिलाफ एक लाइन तक नहीं बोलते, न बोलेंगे.’ बकौल दीपांकर नीतीश हों या लालू, दोनों कमोबेश एक ही राह के राही हैं और उनकी नीतियों में कोई फर्क नहीं इसलिए वे वाम और लोकतांत्रिक समाजवादियों का एक समन्वय बनाना चाहते हैं.

यही संदेश उनकी रैली से मिला भी. इस रैली में भाकपा माले नेताओं के अलावा भाकपा और माकपा जैसे दो प्रमुख वाम दलों के राज्य सचिव भी मंच पर पहुंचे और समन्वय-साझेपन पर हामी भरी. कुछ पुराने समाजवादी नेता भी परिवर्तन रैली के मंच पर पहुंचकर इस एका में साथ देने की घोषणा कर गए. समाजवादी नेताओं में पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव प्रमुख रहे. पिछले दिनों मुजफ्फरपुर में शराब का विरोध करने के बाद शराब कारोबारियों द्वारा बुरी तरह पीटे गए राज्य के पूर्व मंत्री हिंद केसरी यादव भी मंच पर पहुंचे और अपने घाव दिखाते हुए जनता के सामने अपनी बात रखी.

लेकिन कुछ पुरानी और कुछ नई बातों को जोड़ने  से सवालों का एक सिलसिला बनता है. पहला सवाल तो यही कि परिवर्तन रैली करके भाकपा माले ने अपनी राजनीतिक ताकत तो दिखा दी लेकिन इससे मिले सकारात्मक संकेत को क्या वह आगे धरातल पर उतार पाएगी? भाकपा माले की रैली में ही नहीं अमूमन हर वाम रैली में निष्ठा,  प्रतिबद्धता और अनुशासन के साथ भीड़ जुटती रहती है लेकिन उसका रूपांतरण वोट और सीट में नहीं हो पाता. विशेषकर बिहार में तो वाम दलों का आधार तेजी से नीचे खिसका है. 2005 में बिहार में माकपा का एक विधायक, भाकपा के तीन और भाकपा माले के चार विधायक थे, जिससे बिहार विधानसभा में कुल वाम विधायकों की संख्या आठ थी लेकिन 2010 में भाकपा ही सिर्फ एक सीट पर जीत सकी थी.

सवाल और भी हैं. पिछले साल दिसंबर के अंत में पटना में ही भाकपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी बड़े और नामचीन वाम नेताओं ने समन्वय, एकता और साझेपन का वादा किया था, लेकिन 11 माह बाद भी वह वादा धरातल पर उतरता नहीं दिखा. परिवर्तन रैली के मंच पर समाजवादियों की उपस्थिति से यह सवाल भी उठा कि क्या देवेंद्र यादव जैसे समाजवादी नेता ज्यादा दिनों तक और ज्यादा दूर तक वाम राजनीति के साथ समन्वय बनाकर चल सकने की स्थिति में रहेंगे.

गांधी मैदान(पटना) में परिवर्तन रैली को संबोधित करते हुए पार्टी महासचिव दिपांकर भटाचार्य; फोटो-आफताब आलम सिद्दिकी

महेंद्र सुमन जैसे राजनीतिक विश्लेषक के हिसाब से भाकपा माले की इस रैली में एक नई बात यह है कि इस बार खुद माले ने बिहार में वाम एका-समन्वय की पहल की है, जबकि पहले वही इससे परे जाते रहती थी. बेशक इस नजरिये से बिहार में वाम राजनीति के लिए एक नई उम्मीद जगती है. लेकिन धरातल पर आकलन करें तो परेशानी दूसरी किस्म की भी है. चुनावी समन्वय-एका तो दूर की बात है यहां संघर्ष के दौरान भी वाम दलों ने एक होकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाया है.

हालिया वर्षों में बिहार और झारखंड में भाकपा माले ही सबसे सक्रिय वाम पार्टी मानी जाती है और दिखती भी रही है. विधायकविहीन होने के बावजूद नीतीश सरकार की दूसरी पारी में भाकपा माले ही अकेले विपक्ष की तरह सरकार को घेरने का काम करती रही. चाहे वह फारबिसगंज कांड का मामला हो या बढ़ते सामूहिक बलात्कार का. एक समय में बिहार में सबसे बड़ी वाम पार्टी रही भाकपा आज वैसी सक्रिय नहीं है और माकपा भी यहां कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकी है. लेकिन जब चुनाव की बारी आती है तो वाम दलों पर श्रेष्ठताबोध हावी होने लगता है. भाकपा अतीत की दुहाई देकर अधिक सीटों पर टिकट चाहती है तो माकपा देश के स्तर पर वाम राजनीति का प्रतिनिधित्व करने के एवज में अपना हिस्सा ठीक-ठाक मांगती है. और इन दोनों के बीच भाकपा माले का अपना बड़ा दावा स्वाभाविक तौर पर होता है. भाकपा से संबद्ध वाम विचारक व बांग्ला कवि विश्वजीत सेन कहते हैं, ‘माले की रैली से यह जरूर हुआ है कि नीतीश को दिखाया जा सका है कि वाम भी एक ताकत है और माले के साथ जनता का जुड़ाव बना हुआ है. लेकिन महज ऐसी रैली से वाम दलों में समन्वय और एका नहीं होने वाला क्योंकि इसमें खुद भाकपा माले और माकपा रोड़ा हैं.’ सेन कहते हैं कि दोनों दलों में सौतिया डाह दिखता है.

माकपा के राज्य सचिव विजयकांत ठाकुर इस बारे में बात करने पर कहते हैं कि बेशक परिवर्तन रैली से वाम दल एका और समन्वय की ओर एक कदम बढ़े हैं लेकिन चुनावी एकता से पहले एकताबद्ध संघर्ष करना होगा और ऐसे संघर्ष में दूसरी विचारधारा वालों को शामिल करने से खतरा बना रहेगा क्योंकि वे सत्ता की संभावना बनते ही खिसक जाएंगे. ठाकुर ऐसा कहकर परिवर्तन रैली में शामिल हुए समाजवादी नेताओं की ओर इशारा करते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘भाकपा माले इस रैली में तीसरे विकल्प की जो बात कर रही थी, वह समझ में नहीं आई, क्योंकि विकल्प तो सिर्फ दो ही होते हैं. एक नवउदारवाद का समर्थन और दूसरा उसका विरोध.’ बहरहाल, अधिकार रैली के चार दिन बाद ही हुई भाकपा माले की परिवर्तन रैली ने यह संदेश जरूर दिया है कि राज्य में नाराज और निराश जनता एक बड़े मंच और विकल्प की तलाश में है. उम्मीद के रूप में वाम की भी संभावना बची-बनी हुई है. यह संदेश भी मिला कि निकट भविष्य में राजद और भाजपा द्वारा गांधी मैदान में जो रैलियां होने वाली हैं, उसका एक मानक परिवर्तन रैली को भी माना जाएगा. इस लिहाज में कि हजारों की भीड़ बिना किसी शोर-शराबे के, लेकिन पूरे उत्साह के साथ, बिना शहर की दिनचर्या बाधित किए राजनीतिक रैलियों में आ सकती है और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ कर सकती है.