‘मैं ख्याति. जयपुर की रहने वाली, 11वीं कक्षा में हूं. संस्कृत को सबसे सामर्थ्यवान भाषा मानती हूं. भारतीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ संस्कृति.’ सिर्फ नाम पूछने पर इतनी बातें बताती है ख्याति. फिर तुरंत ही शुरू हो जाती है. किसी टोक-टोक या सवाल की गुंजाइश छोड़े बगैर. आगे कहती है, ‘भईयाजी, आपने बहुत मंदिर देखे होंगे, लेकिन अब आप देश ही नहीं, दुनिया का अनोखा मंदिर देखेंगे. पाणिनी मंदिर नाम है इसका. पाणिनी को तो आप जानते ही होंगे. लाहौर के थे. उन्होंने ही अष्टाध्यायी लिखा था. पूरी दुनिया में शब्द विद्या का ऐसा प्रामाणिक शास्त्र अब तक तैयार नहीं हो सका है. अगर अष्टाध्यायी न होता तो संस्कृत भाषा जिंदा न रह पाती. व्याकरण लोकमानस की समझ से परे की चीज बनी रहती. भारत कई तरह के ज्ञान से वंचित रह जाता…’
ख्याति को बीच में टोकना पड़ता है कि अब थोड़ा मंदिर के बारे में बताओ. वह कहती है, ‘देखिए, मंदिर की दीवारें. अष्टाध्यायी के चार हजार सूत्र अंकित हैं. मंदिर से सटा अनुसंधान केंद्र और इंटरनेशनल हॉस्टल बन रहा है. मालूम क्यों? क्योंकि अब विदेशी लोगों की बहुत रुचि है व्याकरण के सूत्र जानने-समझने में, इसीलिए. वे आएंगे तो यहीं रहकर अध्ययन-अनुसंधान वगैरह करेंगे. दुनिया भर में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के दीवाने बढ़ रहे हैं और अपने देश में अंग्रेजी-अंग्रेजियत और…!’
मंदिर के बारे में जानकारी दे रही ख्याति किसी विशेषज्ञ की तरह हमें समझा रही है. मैं पूछता हूं, ‘तुम तो पक्का पंडित हो जी.’ फट जवाब मिलता है, ‘पंडित-पंडिताइन क्या होता है? जो वेद-शास्त्र-पुराणों को जानेगा-समझेगा, वही ज्ञानी है, जाति से नहीं.’
बेहद बातूनी और हाजिरजवाब ख्याति से पार पाना आसान नहीं लगता. उसका आत्मविश्वास उसके वाक्यों को और मजबूत बना रहा है. उससे बात करते हुए एक बार भी नहीं लगता कि हमारी बात उस लड़की से हो रही है जो पिछले कई साल से एक चारदीवारी की दुनिया में सिमटे उस स्कूल की छात्रा है जहां भौतिकवादी और उपभोक्तावादी दुनिया से सख्ती से परहेज बरता जाता है. जहां बदलती दुनिया की झांकी दिखाने वाले टीवी और सिनेमा जैसे माध्यमों की परछाई तक नहीं पड़ती.
ख्याति कहती है, ‘संस्कृत, संस्कृति और व्याकरण के बारे में कोई जिज्ञासा हो तो पूछ लीजिए, भईयाजी.’ मैं पूछने के बजाय कहता हूं, ‘तुम अच्छी शिक्षिका बनोगी!’ जवाब आता है, ‘वह तो मैं अभी भी हूं, आगे आईएएस बनूंगी.’
यह बनारस के तुलसीपुर इलाके की एक गली में बने पाणिनी कन्या महाविद्यालय का परिसर है. यहीं हमें सातवीं में पढ़ने वाली होशंगाबाद की अर्चना और हैदराबाद की मैत्रेयी भी मिलती हैं. उनमें भी उतनी ही हाजिरजवाबी और आत्मविश्वास. महाविद्यालय परिसर में घंटों गुजारने के बाद साफ होता है कि ख्याति, अर्चना और मैत्रेयी ही नहीं, आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, असम, नेपाल आदि से आई जो 100 लड़कियां यहां रहती और पढ़ती हैं, वे सब इतनी ही ऊर्जा, उत्साह और उम्मीदों से लबरेज हैं.
क्या काशी के मठाधीश पंडितों ने कभी ऐतराज नहीं किया कि लड़कियां जनेऊ पहनकर पारंपरिक तौर पर पुरुषों के आधिपत्य वाली इस विधा में हस्तक्षेप करें?
ख्याति जिस पाणिनी मंदिर को देश-दुनिया का खास मंदिर बताती है उसकी खासियत का आकलन तो उसके पूरा बनने के बाद होगा. फिलहाल जो महाविद्यालय 41 साल से तुलसीपुर की इस गली में चल रहा है वह कई मायनों में अनोखा लगता है. यहां सुबह चार बजे से रात नौ बजे तक की दिनचर्या है. सुबह चार बजे जगना, छह बजे योगासन-ध्यान, सात बजे यज्ञ, फिर वेद पाठ की कक्षा, फिर जलपान, फिर नौ से बारह बजे तक आधुनिक विषयों जैसे गणित, साइंस, भूगोल, कंप्यूटर आदि की कक्षाएं, फिर भोजन, इसके बाद दोपहर दो से पांच तक संस्कृत की कक्षा. और उसके बाद लाठी, भाला, तलवार, धनुष चलाने का खेल. आपस में संस्कृत में ही बात होती है. एक नजर में यह किसी पुरातन युग की दुनिया भी लगती है. स्कूल की आचार्या नंदिता शास्त्री और डॉ. प्रीति विमर्शिनी कहती हैं कि यह आपके नजरिये पर निर्भर करता है. नंदिता कहती हैं, ‘हमारी सोच साफ है कि यहां से जो लड़कियां निकलें वे सदियों से चली आ रही और जकड़ी हुई एक व्यवस्था को चुनौती दें. वेद पाठ, कर्मकांड, शास्त्रीयता और अन्य वैदिक विधाओं में जो पुरुषों का वर्चस्व कायम है, वह टूटे.’ ऐसा हो भी रहा है. डॉ. प्रीति कहती हैं, ‘हमने पिछले चार दशक में ऐसी कई लड़कियों को तैयार किया है जो देश-दुनिया के कोने-कोने में वेद पाठ, कर्मकांड आदि करवाने जा रही हैं, अपना वैदिक स्कूल खोलकर लड़कियों को पुरुषों के मुकाबले तैयार कर रही हैं.’
नंदिता बताती हैं कि पाणिनी कन्या महाविद्यालय सात साल के करीब उम्र वाली लड़कियों को दाखिला देता है. देश के कोने-कोने से हर साल 20 लड़कियों को लिया जाता है. यहां उनके लिए एमए तक की शिक्षा की व्यवस्था है. उसके बाद यह फैसला उन्हें खुद करना होता है कि वे क्या करेंगी. गृहस्थ आश्रम में जाएंगी या प्राध्यापक, आईएएस, शास्त्री आदि बनेंगी. नंदिता कहती हैं, ‘यहां आठवीं कक्षा तक को आगे की कक्षाओं में पढ़ रही लड़कियां ही पढ़ाती हैं. गोशाला संचालन, बिजली से चलने वाली आटे की चक्की चलाना, खेती करना और जरूरत पड़ने पर सभी का खाना बनाना भी वे जानती हैं.’ स्कूल परिसर से लड़कियां बाहर सिर्फ तभी निकलती हैं जब उन्हें मंगलाचरण, वेद पाठ या कर्मकांड के लिए बुलावा आए. या किसी गोष्ठी में भाषण देने जाना हो या फिर किसी विद्वान के साथ शास्त्रार्थ करने. अब गृहप्रवेश, मुंडन जैसे कार्यों में भी लोग इन्हें बुलाने लगे हैं और इनकी व्यस्तता तेजी से बढ़ती जा रही है. काशी की गलियों से लेकर जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन तक उनका जाना होने लगा है. वे जब सस्वर वेद पाठ करती हैं या कर्मकांड करवाती हैं तो लोग मुग्ध हो जाते हैं.
सहज सवाल उठता है कि क्या काशी के मठाधीश पंडितों ने कभी इस पर ऐतराज नहीं जताया कि लड़कियां जनेऊ वगैरह पहनकर पारंपरिक तौर पर पुरुषों के आधिपत्य वाली इस विधा में हस्तक्षेप करें और चुनौती की तरह खड़ी हों. डॉ. प्रीति बताती हैं, ‘बखेड़े कम नहीं होते. कभी कहा जाता है कि पुरुषों को चुनौती देने के लिए यह सब वितंडा खड़ा किया जा रहा है जो शास्त्र विरुद्ध है. निर्णय सिंधु का हवाला देकर कहा जाता है कि जो लड़की मंत्रोचारण करेगी, वह पुत्रहीन हो जाएगी.’ वे आगे कहती हैं, ‘शंकराचार्य से लेकर कई मनीषियों ने नारी को नरकद्वार, जहर जो अमृत की तरह दिखता है, छोड़ने योग्य आदि कहा है. लेकिन हम जानते हैं कि ये सारी उपमाएं इसलिए दी गई हैं क्योंकि अपने जमाने में गार्गी, घोषा, अपाला, सूर्या, भारती, यज्ञा, इंद्राणी, शचि जैसी महिलाएं हुई हैं जिन्होंने पुरुषवादी ज्ञान व्यवस्था को चुनौती दी.’
स्कूल कैसे शुरू हुआ उसकी एक दिलचस्प कहानी है. बताते हैं कि कई दशक पहले लाहौर के रहने वाले ब्रह्मदत्त जिज्ञासु नाम के एक विद्वान काशी में आकर बस गए थे. वे ऋषियों की प्रणाली और आर्य वेद पाठ प्रणाली से वेदों का अध्ययन-अध्यापन करवाते थे. उनका वास बनारस के मोतीझील में हुआ करता था. वर्षों पहले मध्य प्रदेश के सतना की निवासी एक महिला श्रीमती हरदेवी आर्या अपनी तीन बेटियों व एक बेटे को लेकर जिज्ञासु के पास आईं. जिज्ञासु ने उन्हें शिक्षा देनी शुरू की. हरदेवी आर्या की दो बेटियां प्रज्ञा देवी और मेधा देवी विदुषी निकलीं. दोनों ने मिलकर अपने गुरु के नाम पर अध्ययन केंद्र शुरू किया. पहले तो वह मोतीझील में ही चलता रहा लेकिन 1971 से तुलसीपुर में आ गया. तब से यहीं चल रहा है. अब वहीं महाविद्यालय परिसर के पास ही व्याकरणाचार्य पाणिनी के नाम पर विशाल मंदिर, अध्ययन केंद्र और अंतरराष्ट्रीय हॉस्टल बन रहा है जिस पर पांच करोड़ रु खर्च होने का अनुमान है.
सात साल की उम्र में ही यहां पढ़ने आई गया की डॉ. प्रीति कहती हैं कि इस महाविद्यालय को चलाने में बहुत-सी चुनौतियां आईं. वे बताती हैं, ‘इसे आज तक चलाते रहना और समय के साथ बढ़ाते रहना कोई आसान काम नहीं था और न अब है लेकिन समाज के सहयोग से ही यह आगे बढ़ता रहा और इसमें नामांकन के लिए देश के कोने-कोने से अभिभावक आते हैं लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम 100 से ज्यादा लड़कियों को नहीं रख सकते और फिर यह भी देखना होता है कि अभिभावक यह मानने को तैयार हैं या नहीं कि यदि बालिका यहां आई तो पहले के चार साल में उसे घर जाने की इजाजत नहीं मिलेगी. और फिर यह भी देखना होगा कि बाहर से बंद दिखने वाली इस दुनिया में वे अपनी बेटी को रखने के लिए तैयार हैं या नहीं.’
जब इतना कुछ है तो सरकार से सहयोग लेने में हर्ज क्या है? जवाब में आचार्या नंदिता कहती हैं, ‘सरकार का व्यर्थ का हस्तक्षेप कभी आपको सही ढंग से चलने नहीं दे सकता इसलिए हम उस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. सरकारों ने कई बार कोशिश की लेकिन हम दूरी बनाकर रखते हैं. हर लड़की के अभिभावक से सालाना 15 हजार रु लेते हैं. जो दे पाते हैं, ठीक नहीं दे पाते हैं तो समाज का कोई न कोई आकर दे जाता है.’ नंदिता एक पुरानी कहावत का हवाला देते हुए आगे जोड़ती हैं, ‘राजा के अन्न पर आश्रित रहो तो वह तेज का हरण कर लेता है.’
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