कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा और नीतीश की कोशिशें क्या रंग लाएँगी?
विपक्ष 2024 के आम चुनाव के लिए कमर कस रहा है। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा और दिल्ली आकर नीतीश कुमार की विपक्ष के नेताओं से मुलाक़ात, ये दोनों ही गतिविधियाँ सत्ता पक्ष की भाजपा को चुनौती देने की तैयारी के लिहाज़ से काफ़ी अहम हैं। उधर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी सक्रिय हैं, जिससे लगता है कि विपक्ष बिखराव से बाहर निकलकर किसी सर्वसम्मत फार्मूले के तहत एक मंच पर आ सकता है, या दो ध्रुवों में एकजुट हो सकता है; भले इसमें अभी वक़्त लगे। पूरे हालात और भविष्य की सम्भावनाओं को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
राहुल गाँधी के महँगे नीले जूते और हज़ारों की टी-शर्ट पर तंज! महँगाई, बेरोज़गारी के विरोध में और देश में एकता के लिए कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा को कमतर आँकने का यह भाजपा का तरीक़ा था। जवाब में कांग्रेस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महँगे पेन, सूट और चश्मे की क़ीमत बतानी पड़ी। उधर भाजपा से अलग हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सितंबर के पहले पखवाड़े राजधानी दिल्ली में सक्रिय रहे। उन्होंने राहुल गाँधी से शुरू कर शरद पवार, मुलायम सिंह / अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी और अरविंद केजरीवाल सहित कई बड़े नेताओं से मुलाक़ात की, जिसका मक़सद विपक्ष को एक धुरी पर लाने की शुरुआत करना था। भले संगठित और आक्रामक भाजपा के मुक़ाबले विपक्ष की यह कोशिशें शुरुआत भर हों, भविष्य में इनके वृहद आकार लेने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। और यदि विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा साथ आता है, तो निश्चित ही साल 2024 के लिए भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा से अलग होने के बाद अब उसी के ख़िलाफ़ विपक्ष को एकजुट करने की उनकी कोशिश बहुत मायने रखती है। नीतीश विपक्षी दलों को यह सन्देश भी दे रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विपक्ष ताक़तवर नहीं हो पाएगा। हालाँकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव ग़ैर-कांग्रेसी विपक्षी मंच खड़ा करना चाहते हैं। राव हाल में जब पटना आये थे, उन्होंने कोशिश की थी कि नीतीश अगले चुनाव में प्रधानमंत्री उम्मीदवार होने की बात स्वीकार करें; लेकिन नीतीश ने ऐसा करने से मना कर दिया।
दो बार से लगातार सत्ता में बैठी भाजपा के भीतर भी अगले चुनाव को लेकर चिन्ताएँ हैं। भाजपा के बड़े नेताओं ने भले ख़ुद को जनता के सामने एक ऐसी पार्टी के रूप में पेश करने का तरीक़ा सीख लिया है, जिसे कोई हरा नहीं सकता और जो आने वाले कुछ और दशक तक सत्ता में रहेगी। इसका कारण नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता पर उसका अतिविश्वास है। लेकिन पार्टी के नेता यह भी जानते हैं कि यह सम्भव नहीं है। जनता कब किसी सरकार से ऊब जाए और उसे सत्ता से बाहर कर दे, इसकी भविष्यवाणी नहीं की सकती।
लिहाज़ा विपक्ष की एकता की कोशिशों से चिन्तित भाजपा भी है। लेकिन उसकी चतुराई यह है कि वह इसे ज़ाहिर नहीं होने देती। कांग्रेस का नेतृत्व कमज़ोर दिखे इसके लिए भाजपा एक रणनीति के तहत नीतीश के साल 2024 में प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने की बातों हो हवा दे रही है। ख़ुद नीतीश साफ़ रूप से कह चुके हैं कि वह उम्मीदवार नहीं है। हालाँकि उनकी पार्टी के नेता गाहे-ब-गाहे कह देते हैं कि नीतीश प्रधानमंत्री उम्मीदवार हैं। उनके ऐसा कहने की राजनीतिक ज़रूरतें हो सकती हैं।
नीतीश की सक्रियता
भाजपा से अलग होने के बाद भाजपा के ख़िलाफ़ नीतीश कुमार की सबसे बड़ी पहल सितंबर के पहले हफ़्ते दिखी, जब वह दिल्ली आये। उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गाँधी से सबसे पहले मुलाक़ात की। उसके बाद वह कई और नेताओं से मिले। इनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के मुख्यालय में पार्टी महासचिव डी. राजा से उनकी मुलाक़ात भी शामिल है। नीतीश ने माकपा नेता सीताराम येचुरी से भी भेंट की और विपक्षी एकता को लेकर चर्चा की। उनसे मुलाक़ात के बाद नीतीश ने कहा कि उनके माकपा के साथ पुराने और लम्बे सम्बन्ध हैं। कहा कि वह जब भी दिल्ली आते हैं, माकपा कार्यालय जाना नहीं भूलते।
येचुरी का कहना है कि नीतीश कुमार की विपक्ष में वापसी और भाजपा के ख़िलाफ़ लड़ाई का हिस्सा बनने की उनकी इच्छा भारतीय राजनीति के लिए एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है। येचुरी कहते हैं- ‘पहली बात तो मक़सद विपक्षी दलों को एकजुट करने का है, प्रधानमंत्री उम्मीदवार का चयन करने का नहीं। जब समय आएगा, हम प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुनेंगे और आपको बताएँगे।’ नीतीश हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला से भी मिले।
राहुल गाँधी के बाद नीतीश जनता दल(यू) के प्रमुख एच.डी. कुमारस्वामी से मिले। उनकी एक और महत्त्वपूर्ण मुलाक़ात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के मुखिया शरद पवार से भी हुई। हाल में पवार के क़रीबी सहयोगी पार्टी नेता प्रफुल्ल पटेल ने कहा था कि उनके नेता पवार न तो कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे, न ही उन्होंने आगे के लिए ऐसी कोई मंशा जतायी है। नीतीश पुराने मित्र और बिहार के मुख्यमंत्री रहे राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के अलावा अस्वस्थ चल रहे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और उनके पूर्व मुख्यमंत्री बेटे सपा नेता अखिलेश यादव से भी मिले।
निश्चित ही यह क़वायद भाजपा को परेशान करने वाली है; लेकिन ख़ुद विपक्ष इस शुरुआत को कितना आगे तक लेकर जाएगा? यह देखने वाली बात होगी। इस कोशिश की निरंतरता पर भी उसका साथ होना सम्भव होगा।
विपक्ष का चेहरा
लोकसभा के साल 2024 के चुनाव के लिए भाजपा के पास निश्चित ही नरेंद्र मोदी इकलौता चेहरा हैं। भले भाजपा के भीतर मोदी की शख़्सियत को लेकर विचारों की भिन्नता हो, मोदी और शाह पार्टी में इतने ताक़तवर हैं कि उन्हें हटाने की बात करने की हिम्मत कोई पार्टी में जुटा नहीं सकता। मोदी के नज़दीकी नेता तो यह भी दावा करते हैं कि आरएसएस भी आज की तारीख़ में मोदी को हटाने की नहीं सोच सकता, क्योंकि वे पार्टी के लिए अपरिहार्य हो चुके हैं। बेशक वरिष्ठ और कामयाब केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को मोदी-शाह के लिए चुनौती माना जाता हो, उन्हें हाल में पार्टी के सबसे ताक़तवर बोर्ड से बाहर कर दिया गया था।
ऐसे में विपक्ष के लिए सन् 2014 में भाजपा की चुनौती जितनी बड़ी है, उतनी ही बड़ी चुनौती यह भी है कि मोदी के ख़िलाफ़ उसका चेहरा कौन होगा? भाजपा कांग्रेस को कमज़ोर दिखाने के लिए नीतीश कुमार को विपक्ष का चेहरे बनाने की मीडिया और सोशल मीडिया में मुहिम को $खूब हवा दे रही है। ख़ुद नीतीश कुमार दिल्ली में आकर कह चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। लेकिन हाल में उनकी दिल्ली यात्रा और सक्रियता से यह उत्सुकता बढ़ी है कि क्या बिहार का यह दिग्गज सचमुच विपक्षी एकता के लिए ऐसा कर रहा है, या उनकी अपनी भी कोई महत्त्वाकांक्षा है। लेकिन यहाँ सबसे दिलचस्प बात यह है कि विपक्षी एकता के लिए नीतीश जब दिल्ली आये, तो वह सबसे पहले कांग्रेस नेता राहुल गाँधी से मिले। इससे ज़ाहिर होता है कि नीतीश कांग्रेस को विपक्षी एकता के लिए कितना महत्त्वपूर्व कारक (फैक्टर) मानते हैं।
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, नीतीश साल 2024 के लिए कांग्रेस की योजना का बड़ा हिस्सा हैं। पार्टी उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रखना चाहती है। नीतीश देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का बड़ा और निर्विवाद चेहरा हैं। ज़ाहिर है हाल तक भाजपा का साथी होने के बावजूद नीतीश भाजपा के ख़िलाफ़ एक बड़ा और ज़्यादा स्वीकार्य चेहरा हैं। वैसा ही जैसा राहुल गाँधी हैं, जो हाल तक अकेले ही भाजपा सरकार से लड़ते रहे हैं। नीतीश की छवि बेशक राहुल गाँधी की तरह देशव्यापी न हो, उत्तर भारत और उससे बाहर भी क्षेत्रीय दलों में उनके लिए समर्थन राहुल गाँधी से इसलिए ज़्यादा होगा; क्योंकि राहुल गाँधी और कांग्रेस की मज़बूती क्षेत्रीय दलों के लिए ख़तरा है, नीतीश की नहीं।
लिहाज़ा नीतीश की क़वायद क्या रंग लाती है और कांग्रेस उनकी विपक्षी एकता की क़वायद का कितना बड़ा हिस्सा रहती है, यह देखना दिलचस्प होगा। इस का एक बड़ा कारण है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी फ़िलहाल कांग्रेस से दूर दिख रही हैं। हाल में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव में उनके कांग्रेस से मतभेद सामने आये थे। तृणमूल कांग्रेस के ही नेता यशवंत सिन्हा, जो राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के साझे उम्मीदवार थे; को कांग्रेस ने तो समर्थन दिया था; लेकिन उप राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस की मार्गरेट अल्वा को ममता की तृणमूल ने समर्थन नहीं दिया और मतदान से दूर रही थी।
देखा जाए, तो नीतीश कुमार के मुक़ाबले ममता बनर्जी ज़्यादा बड़ी देशव्यापी छवि रखती हैं। दक्षिण से उत्तर तक लोग उन्हें जानते हैं। अनुभवी भी हैं। यह माना जाता है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिए कोशिश कर सकती हैं। ऐसे में कांग्रेस से उनका तनाव विपक्षी एकता में आड़े आ सकता है। यह माना जाता है कि नीतीश कांग्रेस को साथ रखने के लिए ममता को मनाने की कोशिश कर सकते हैं। हालाँकि यदि ममता या राहुल गाँधी (कांग्रेस) में से एक को चुनने की नौबत आ गयी, तो नीतीश कांग्रेस के साथ जाएँगे।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव भी फ़िलहाल कांग्रेस से अलग लाइन पकड़े हुए हैं। हाल में वह पटना में नीतीश कुमार के साथ मंच साझा कर चुके हैं। राव नीतीश के मुँह से बुलवाना चाहते थे कि वह (नीतीश) प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं; लेकिन नीतीश बड़ी सफ़ाई से बच निकले थे। लेकिन यह माना जाता है कि कांग्रेस से ही निकले राव अंतत: कांग्रेस के साथ खड़े हो सकते हैं; क्योंकि वे भाजपा के विरोधी हैं। राव ख़ुद विपक्षी एकता के लिए काफ़ी सक्रिय हैं और ममता और नीतीश सहित अन्य विपक्षी नेताओं से मिलते रहे हैं। वामपंथी दल फ़िलहाल अलग पंक्ति में हैं और विपक्ष की एकता की पहला खुलकर साथ नहीं आये हैं। वैसे नीतीश ने दिल्ली दौरे में सीपीएम के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी से मुलाक़ात की थी। लेकिन कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के केरल में लम्बे ठहराव पर माकपा ने सवाल उठाये थे और कांग्रेस से पूछा था कि वह उत्तर प्रदेश में ऐसा क्यों नहीं करने जा रही?
विपक्ष के चेहरा बनने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी हैं। नीतीश उनसे भी मिले थे। यहाँ यह बता दें कि जब नीतीश कुमार दिल्ली के अपने समकक्ष अरविंद केजरीवाल से मिले, उस समय दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) नेता संजय झा भी मौज़ूद थे। केजरीवाल की अभी अखिल भारतीय छवि नहीं है; लेकिन वह चर्चा के केंद्र में रहते हैं। केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी पर यह भी आरोप हैं कि वह भाजपा की ‘बी’ टीम हैं। यह कहा जाता है कि भाजपा आप को उन राज्यों में इस्तेमाल करती है, जहाँ उसे कांग्रेस के मत (वोट) कटवाने हों। गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी मैदान में है, और यह माना जाता है कि जितने मत वह लेगी, उससे भाजपा नहीं, बल्कि कांग्रेस का नुक़सान होगा; क्योंकि यह सारे मत विरोधी लहर (एंटी इंकम्बेंसी) के होंगे। यदि गुजरात में आप कोई बड़ा उलटफेर कर देती है, तो निश्चित ही वह बड़ी चर्चा में आ जाएगी। पंजाब में उसने 92 सीटें जीतकर पहले ही कांग्रेस को झटका दे दिया था। ऐसी स्थिति में केजरीवाल 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए ख़ुद को विपक्ष के चेहरे के चेहरे के रूप में सामने करना चाहेंगे। और यदि कांग्रेस वहाँ भाजपा को हरा देती है, तो निश्चित ही वह विपक्ष की धुरी बन जाएगी।
कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमार स्वामी भी सक्रिय हैं। इसी तरह तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे और वरिष्ठ नेता फ़ारूक़ अब्दुला भी विपक्षी एकता की बैठकों का हमेशा हिस्सा रहते हैं। कुमार स्वामी से लेकर अब्दुल्ला और पीडीपी की नेता महबूबा मुफ़्ती कांग्रेस के साथ हाल के दशकों में गठबंधन में रहे हैं। ऐसे में उन्हें कांग्रेस के साथ जाने में शायद ही दिक़्क़त आये। हालाँकि वह स्थिति के मुताबिक, किसी के भी साथ जा सकते हैं। अभी तक की स्थिति देखें, तो ऐसा भान होता है कि अंतत: 2024 तक मामला राहुल गाँधी और नीतीश कुमार के बीच अटकेगा। कौन चेहरा बने? इसका फ़ैसला इन दो में से होगा। कांग्रेस लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है। लिहाज़ा विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए उसका वज़न तो रहेगा ही। लेकिन विपक्ष के कितने दल यूपीए दलों के अलावा उसके साथ खड़े होते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
अरे…, घबरा गये क्या? भारत जोड़ो यात्रा में उमड़े जनसैलाब को देखकर। मुद्दे की बात करो, बेरोज़गारी और महँगाई पर बोलो। बाक़ी कपड़ों पर चर्चा करनी है, तो मोदी जी के 10 लाख के सूट और 1.5 लाख के चश्मे तक बात जाएगी। बताओ, करनी है भाजपा?’’
(राहुल की टी-शर्ट पर कांग्रेस का भाजपा को जवाब)
पदयात्राओं का इतिहास
कन्याकुमारी, जो उगते और डूबते सूरज को देखने के लिए देश भर के सैलानियों के आकर्षण का केंद्र है; से शुरू हुई कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा क्या पार्टी का सूर्य फिर चमका पाएगी? यह कहना अभी मुश्किल है। यात्रा का समापन कश्मीर में होना है, जहाँ दशकों तक कांग्रेस के साथ रहे ग़ुलाम नबी आज़ाद बाग़ी होकर अपनी अलग पार्टी बना रहे हैं। लेकिन यह सच है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं के ज़मीन पर उतरने से पार्टी के आम कार्यकर्ता और नेता ख़ुश हैं और उन्हें भाजपा के ख़िलाफ़ अभियान चलाने का अवसर मिला है। कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि बड़ी संख्या में सिविल सोसायटी के लोग भी पदयात्रा से जुड़ चुके हैं। रिपोर्ट्स देखें, तो राहुल गाँधी और कांग्रेस को दक्षिण में इस यात्रा के दौरान जबरदस्त समर्थन मिला है।
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इसके बाद कांग्रेस एक और यात्रा आयोजित करने की योजना बना चुकी है, जो पूर्व से पश्चिम तक होगी। पूर्वोत्तर राज्यों से शुरू होकर यह सम्भावित यात्रा उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और गुज़रात से होकर गुज़रेगी।
चूँकि भारत जोड़ो यात्रा में पार्टी जनता के मुद्दों को लेकर मैदान में उत्तरी है, इसलिए जनता भी इसमें दिलचस्पी दिखा रही है। भले बड़े टीवी चैनल पदयात्रा की कवरेज को लेकर ठण्डा रुख़ अपनाये हों और इसके पीछे उनकी अपनी मजबूरी हो; लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि जहाँ-जहाँ से पद यात्रा गुज़र रही है, जनता की इसमें अच्छी भागीदारी दिख रही है।
यदि हाल के दशकों में ऐसी किसी बड़ी राजनीतिक पदयात्रा की बात करें, तो कभी युवा तुर्क कहे जाने वाले दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की भारत यात्रा याद आती है। उनकी वह यात्रा भी कन्याकुमारी से ही 6 जनवरी, 1983 को शुरू होकर 25 जून, 1983 को दिल्ली के राजघाट पर आकर पूर्ण हुई थी। इसका यह लाभ हुआ कि चंद्रशेखर की पार्टी जनता दल का कर्नाटक और कुछ हद तक तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में विस्तार हो गया। बाद में चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने, भले कुछ ही महीनों के लिए।
इसके बाद मुरली मनोहर जोशी की तिरंगा यात्रा और लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा भी भाजपा का विस्तार करने में बहुत मददगार साबित हुईं। नहीं तो इससे पहले भाजपा को दो सीटों वाली पार्टी ही कहा जाता था। इनके अलावा राज्य स्तर पर दलों और नेताओं ने यात्राएँ निकाली हैं; लेकिन कांग्रेस की पदयात्रा निश्चित ही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में है। भले बेरोज़गारी, महँगाई और देश की एकता की बात उसके एजेंडे में हो, पार्टी का बड़ा ध्येय मोदी सरकार के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करना और ख़ुद की ज़मीन हासिल करना है। राहुल गाँधी की यह क़वायद उस (पप्पू) छवि से बाहर निकलने की भी है, जो भाजपा ने एक सुनियोजित अभियान चलाकर 2014 के बाद उनकी बनायी है। राहुल गाँधी को लेकर लोगों की राय बदले, यह पार्टी के लिए बहुत ज़रूरी है। वह अध्यक्ष बनेंगे या नहीं? यह तो पता नहीं; पार्टी में देशव्यापी छवि वाले नेता निश्चित रूप से राहुल ही हैं। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा द्वारा गढ़ी गयी उनकी पप्पू वाली छवि को सभी लोग सही ही मानते हों। बहुत-से लोग राहुल गाँधी से प्रभावित दिखते हैं। यह राहुल ही हैं, जिन्होँने देश के सबसे प्रमुख मुद्दों को समय रहते उठाया है। किसी भी राष्ट्रीय सर्वे में लोकप्रियता के लिहाज़ से आज भी प्रधानमंत्री मोदी के बाद लोग राहुल गाँधी को ही वोट करते हैं। इसी साल होने वाले गुज़रात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनावों और नवंबर से शुरू होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र से पहले राहुल गाँधी और कांग्रेस की यह पद यात्रा कुल 150 दिन में देश के 12 राज्यों और दो केंद्र-शासित प्रदेशों से गुज़रकर 3,570 किलोमीटर का सफ़र तय करके जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में समाप्त होगी। वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह कह चुके हैं कि राहुल गाँधी पूरी यात्रा के दौरान साथ पैदल चलेंगे। बीच में वह गुज़रात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रचार करने ज़रूर जा सकते हैं।
तमिलनाडु के कन्याकुमारी से यात्रा शुरू करने के पीछे एक मक़सद दक्षिण में अपने पाँव और मज़बूती से जमाना है, जहाँ भाजपा अपनी एंट्री की पूरी कोशिश कर रही है। हालाँकि यात्रा चुनाव वाले राज्यों गुज़रात और हिमाचल से नहीं गुज़रेगी। पार्टी के कुछ नेता मानते हैं कि दोनों राज्यों को शामिल किया जाना चाहिए था। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, यात्रा में 119 लोग ऐसे हैं, जो पूरी पदयात्रा करेंगे।
ख़ास बात यह भी है कि राहुल गाँधी इस पदयात्रा के दौरान सुख-सुविधा वाले होटल में नहीं रुक रहे हैं, बल्कि रात अन्य नेताओं की तरह कंटेनर में ही बिता रहे हैं। पार्टी ने नेताओं के रुकने के लिए ट्रक में यह कंटेनर बनाया है। इसमें मोबाइल टॉयलेट्स हैं। कुल 60 कंटेनर हैं, जिनमें कुल मिलाकर 230 लोग रह सकते हैं। कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा तिरुवनंतपुरम, कोच्चि, नीलांबुर, मैसूर, बेल्लारी, रायचूर, विकाराबाद, नांदेड़, जलगाँव, जामोद, इंदौर, कोटा, दौसा, अलवर, बुलंदशहर, दिल्ली, अम्बाला, पठानकोट और जम्मू से होते हुए श्रीनगर में समाप्त होगी।
कांग्रेस आरोप लगा रही है कि भारत जोड़ो यात्रा से भाजपा घबरा गयी है और राहुल गाँधी के जूतों और टी-शर्ट की बात कर रही है, ताकि यात्रा में उठाये जा रहे मुद्दों से जनता का ध्यान भटका सके। कांग्रेस नेता यह भी आशंका जाता रहे हैं कि भाजपा फिर ईडी पर दबाव डालकर राहुल गाँधी को पूछताछ के बहाने बुलाकर यात्रा से दूर करने की कोशिश करे। फ़िलहाल यात्रा के शुरू के आठ दिन तक ऐसा नहीं हुआ है।
यात्रा के दौरान राहुल गाँधी लगातार लोगों से मिल रहे हैं और उनसे बातचीत भी कर रहे हैं। निश्चित ही राहुल को इस दौरान पार्टी को लेकर और मोदी सरकार के कामकाज पर भी फीडबैक मिलेगा। यह पार्टी के काम आएगा। यात्रा में शामिल पार्टी के एक नेता ने ‘तहलका’ से कहा- ‘जनता से मिले सहयोग से हम बेहद उत्साहित हैं। जनता में वर्तमान केंद्र सरकार के कामकाज और नीतियों के प्रति नाराज़गी तेज़ हो रही है। देश को तोडऩे की कोशिश से जनता नाराज़ है और परिवर्तन चाहती है।’
राहुल गाँधी की यात्रा में बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश व बिहार पर ध्यान केंद्रित नहीं रखा गया है। उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर को ज़रूर यात्रा छुएगी और इसके बाद सीधे दिल्ली में दस्तक देगी। यह सब पार्टी की रणनीति का हिस्सा है; क्योंकि कांग्रेस ने फ़िलहाल यात्रा में उन जगहों को शामिल किया है, जहाँ उसकी ज़मीन है और वे सीधे विपक्षी पार्टी को चुनौती देती है। कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान में यह यात्रा कार्यकर्ताओं को उत्साह से भरेगी, ऐसा भरोसा पार्टी को है। यात्रा का चेहरा राहुल गाँधी ही हैं, और निश्चित ही इससे दोनों को फ़ायदा होगा। वैसे कांग्रेस इसके बाद एक और पदयात्रा की तैयारी कर रही है, जो पूर्व से पश्चिम तक चलेगी। ‘तहलका’ को मिली जानकारी के मुताबिक, पार्टी अब लगातार ज़मीन पर रहेगी और मोदी सरकार पर दबाव बनाती रहेगी। अगली यात्रा में पार्टी की योजना पूर्वोत्तर राज्यों से शुरू होकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और गुज़रात को छूने की है। कांग्रेस समझ चुकी है कि उसके ज़मीन पर उतरने से भाजपा में बेचैनी बढ़ी है।
कांग्रेस विपक्षी एकता से पहले ख़ुद को ज़मीन पर मज़बूत करने की क़वायद में जुट गयी है, ताकि मोदी सरकार के ख़िलाफ़ माहौल तैयार किया जा सके और ख़ुद को विपक्ष के नेतृत्व के लिए खड़ा किया जा सके। वर्तमान यात्रा को दक्षिण में ज़्यादा वक़्त देकर कांग्रेस भाजपा के दक्षिण में विस्तार के प्रयास को कुन्द करना चाहती है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी दक्षिण राज्यों में भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस के पैर कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं, भले क्षेत्रीय दल उसे वहाँ रोकने की कोशिश करें; क्योंकि कांग्रेस का फैलाव उनके अपने ही अस्तित्व को ख़तरे में डालता है।
“हिंसा और नफ़रत के दम पर आप चुनाव तो जीत सकते हैं; लेकिन इसके दम पर और कुछ भी नहीं कर सकते। कुछ लोगों ने इस समय भारत जोड़ो यात्रा की ज़रूरत के बारे में पूछा है। मैं कहना चाहता हूँ कि भारत के पास कई महत्त्वपूर्ण लक्ष्य हैं। हमें लाखों गरीब लोगों की पीड़ा को कम करना है। यह आसान नहीं है। अगर भारत बँटा हुआ है। क्रोधित है। अपने लिए घृणा से भरा हुआ है; तो ऐसी स्थिति में उन महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को पाना सम्भव नहीं हो सकता। भाजपा और संघ की विचारधारा नफ़रत फैलाने वाली है, और हमारी यह यात्रा उन दोनों की विचारधारा के ख़िलाफ़ है।’’
राहुल गाँधी
कांग्रेस नेता
“मैं न तो प्रधानमंत्री पद का दावेदार हूँ और न ही इसके लिए इच्छुक हूँ। आज फिर सब एक साथ हैं और हमारा पूरा ध्यान सभी वाम दलों, क्षेत्रीय दलों, कांग्रेस को एकजुट करने पर है। हम सभी के साथ आने के बड़े मायने होंगे।’’
नीतीश कुमार
मुख्यमंत्री, बिहार
“जो अपने को अपनी पार्टी से भी नहीं जोड़ सके, वो भारत जोडऩे की यात्रा पर निकले हैं। यह देखकर बड़ी हैरानी हो रही है। राहुल गाँधी आप पहले अपना घर, पार्टी जोड़ लेते; तब देश जोडऩे की बात करते। यह सिर्फ इनका छलावा है और दिखावा है।’’
रविशंकर प्रसाद
भाजपा नेता
“विपक्षी दलों, देश और संविधान को बचाने के लिए नीतीश की कोशिश एक सकारात्मक संकेत हैं।’’
सीताराम येचुरी
माकपा नेता