‘तहलका’ ने लगातार अपने संपादकीय ‘आरबीआई और सरकार में मची तकरार: केंद्र ने जताया बड़ा कौन? और अपनी विशेष रपट ‘केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में ठनी’ में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार के बीच में चल रही तकरार पर हमेशा अपनी ओर से पाठकों को सजग रखा है।
अब जैसा लग भी रहा था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा देकर भारत सरकार को शर्म की गर्त में डाल दिया है। उर्जित पटेल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का काम संभाल सकेंगे इस उम्मीद से उन्हें चुना गया था। अब अचानक उनके इस्तीफे से मामला बिखर गया है। यह दोस्ती ज़्यादा दिन नहीं चल सकी। हालांकि पटेल ने इसकी वजह ‘निजी कारण’ बताया है। लेकिन जो कुछ हुआ वह चकित करने वाला, सहसा और धक्का देने वाला था। यदि आप ध्यान से हालात की समीक्षा करें तो आप इस बात से सहमत होंगे कि इसकी वजह ‘निजी’ तो नहीं कुछ और ही है।
यह सब होने की गुंजायश तब और बनी जब सेंट्रल बैंक और केंद्र सरकार के बीच रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता और आज़ादी को लेकर तकरार बढऩे लगी। यह सब उस महत्वपूर्ण बोर्ड की बैठक से पहले हुआ। केन्या में जन्मे पटेल के साथ हुए करार में बतौर रिजर्व बैंक के गवर्नर तीन साल की अवधि तक पद पर रहना तय हुआ था। इसकी अंतिम तारीख सितंबर 2019 थी लेकिन उन्होंने पहले ही तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे दिया। इस इस्तीफे से वे उदारीकरण युग के बाद के दौर में अपने काम की अवधि पूरी न कर पाने वाले पहले गवर्नर रहे। इसके पहले जो इस्तीफा हुआ था वह 1975 में हुआ।
आए नए गवर्नर
भारत सरकार ने भी कोई देर नहीं लगाई। फौरन सरकार ने आर्थिक मामलों के सचिव रहे शक्तिकांत दास को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का गवर्नर तीन साल के लिए नियुक्त कर दिया। दास 2015 से 2017 तक आर्थिक मामलों के सलाहकार थे। हाल-फिलहाल भारत के वित्त आयोग के सदस्य थे और ग्रुप 20 की शिखरवार्ताओं में भारत सरकार के प्रतिनिधि थे।
अब पटेल के इस्तीफे पर बात की जाए। इस इस्तीफे से सरकार की काफी किरकिरी हुई होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पटेल की खासी बढ़ाई की और बताया कि वाकई उन्होंने निजी कारणों से ही इस्तीफा दिया। हालांकि यह तर्क गले के नीचे नहीं उतरता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा,’उर्जित पटेल उम्दा किस्म के एक अर्थशास्त्री हैं जिनकी सूक्ष्म आर्थिक मुद्दो पर खासी पकड़ रही है। उन्होंने बिगड़ी हुई बैंक प्रणाली को दुरुस्त किया। उनके नेतृत्व में आरबीआई ने वित्तीय स्थायित्व पर ध्यान दिया।’’ केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने तो लिखा,’ डा. उर्जित पटेल ने आरबीआई के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर पदों पर रहते हुए जो सेवाएं दी सरकार उसकी प्रशंसा करती है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रधुराम राजन ने कहा कि अपने इस्तीफे में डा. पटेल ने एक बयान दिया है। अंतिम तौर पर यह बयान एक नियामक या एक नौकरशाह ही दे सकता है। हमें असहमति के उस मुद्दे के विस्तृत ब्यौरे को भी देखना चाहिए जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सभी भारतीयों को चिंता होनी चाहिए क्योंकि हमारे जो संस्थान हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण है।’ पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने टिप्पणी की, ‘बहुत दुख हुआ, हालांकि डा. पटेल के इस्तीफे पर कोई आश्चर्य नहीं कर सकता।’
पटेल के इस्तीफे के बाद आज़ाद ख्यालों के आत्मसम्मानी अर्थशास्त्रियों से काम लेने की केंद्र की योग्यता पर भी सवाल उठेंगे। पटेल के इस्तीफे के एक दिन बाद ही सुरजीत भल्ला ने भी इस्तीफा दे दिया। वे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में अंशकालिक सदस्य थे। इसके पहले नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढिय़ा और मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी इस्तीफे दिए।
असहमति की जड़ें
आरबीआई और सरकार के बीच असहमति की कानाफूसी डा. विरल बी. आचार्य, आरबीआई के ही डिप्टी गवर्नर के एक भाषण से झलकनी शुरू हो गई थी। वे मुबई में 26 अक्तूबर 2018 को एडी श्रौफ व्याख्यान में बोल रहे थे। उन्होंने सभी को सजग करते हुए कहा कि,’ सेंट्रल बैंक के संरक्षित कोष से सरकारी दायित्वों को पूरा करना उचित विकास नहीं है। संरक्षित कोष का जो अतिरिक्त धन है उस पर बहस ज़रूर होनी चाहिए। इसमें सेंट्रल बैंक की बैलेंस शीट कमजोर होती है। उन्होंने सेंट्रल बैंक की आज़ादी को अनर्थकारी बताया और इसकी एक तरह से ‘खुद की तमगा’ देने से तुलना की और कहा कि इससे पूंजी बाजारों में ‘विश्वास का संकट’ बढ़ जाएगा जिन्हें सरकारें अपनी वित्तीय ज़्रूरतें पूरी हो जाने में मददगार मानते हैं।
चार दिन बाद ही वित्तमंत्री अरुण जेटली ने यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक एंड पार्टनरशिप फोरम (यूएसआईएसपीएफ) में आरबीआई पर आरोप लगाया कि जब 2008 और 2014 के दौरान सरकारी बैंकों द्वारा अंधाधुंध तरीके से कजऱ्े बांटे जा रहे थे, तब आरबीआई क्या सो रहा था?
कुछ समय से ऐसी खबरें भी थी कि सरकार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट की धारा सात पर पुनर्विचार की योजना बना रही है जिससे सेंट्रल बैंक को यह कहा जा सके कि वह अपने अतिरिक्त कोष को भारत सरकार को स्थानांतरण करे ताकि उन्हें लोकलुभावन योजनाओं में लगाया जा सके। यह मामला अब आरबीआई बोर्ड में लटका पड़ा है। अब अचानक इस्तीफे से पहले ये तय बैठक पर अंदेशे के बादल हैं। वित्तमंत्री ने सारी बात बतंगड़ को साफ करते हुए कहा कि हमें किसी भी संस्थान से अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए कोई धन नहीं चाहिए। सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है। हम यह नहीं कर रहे हैं कि अगले छह महीनों के लिए हमें कुछ पैसा चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस धन का इस्तेमाल करके गरीबों का उत्थान करने में अगली सरकारें आगामी कई वर्षों तक कर सकेंगी। आरबीआई के पास कथित तौरपर रुपए 9.59 लाख करोड़ मात्र का संरक्षित धन है। उन्होंने कहा कि ‘सरकार का विचार है और हम हमेशा इसका सम्मान करते है। और चाहते भी हैं कि कानूनों के ही चैखट में स्वायत्तता को बनाए रखा जाए’।
आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने इस पर ट्वीट किया,’इस गलतफहमी में ढेरों अनुमान लगाए जाते रहे हैं। सरकार का वित्तीय जोड़-घटाव पूरी तौर पर दुरूस्त है। ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है जैसा अनुमान है कि आरबीआई रुपए 3.6 या एक लाख करोड़ मात्र का ट्रांस्फर करे। यह स्पष्टीकरण भी तब आया जब खबरें छपी कि सरकार रिजर्व बैंक के रुपए 9.6 लाख करोड़ के संरक्षित धन पर नजऱ गड़ाए हुए है। और उसमें से एक तिहाई राशि की मांग कर रही है।
अब निगाहें नए गवर्नर पर
डा. पटेल ने दस दिसंबर को इस्तीफा दिया यानी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के एक दिन पहले। उनके इस्तीफे के कुछ ही दिन बाद यानी 19 दिसंबर को आरबीआई बोर्ड की बैठक तय थी। सवाल है कि क्या सरकार असंतोष को शांत करना चाहती है और क्या आरबीआई की स्वायत्तता को बनाए रखने की खातिर इस्तीफा दिया गया। सरकार के सामने प्राथमिकता यह है कि वह बताए कि यह संस्थाओं की स्वायत्तता बनाए रखने के पक्ष में है और यह आरबीआई को महज कोई और सरकारी महकमा नहीं मानती।
बहरहाल अब सभी की निगाहें आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास पर जमी हैं।