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14 मई, 2013 को उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पुलिस ने चार लोगों को हिरासत में लिया. उन्हें महीने भर पुराने एक कत्ल के मामले में पकड़ा गया था. तीन दिन बाद उनमें से एक बलबीर सिंह की लखनऊ के एक अस्पताल में मौत हो गई. सिंह के रिश्तेदार सुनुल कुमार इसकी वजह पुलिस की थर्ड डिग्री को बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पुलिस ने उन्हें बिजली के झटके दिए थे. उन्हें पेट्रोल और तेजाब के इंजेक्शन भी लगाए गए. पुलिस ने उन्हें जबरन बिजली के हीटर पर बैठाया जिससे वे बुरी तरह जल गए.’ कुमार के मुताबिक बलबीर ने मरने से पहले उनसे बात की थी. वे कहते हैं, ‘उनका कहना था कि पुलिस उनसे हत्या में शामिल होने की बात कबूलवाना चाहती थी.’
बलबीर सिंह की हालत कितनी खराब हो चुकी थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पहले उन्हें जिला अस्पताल एटा में भर्ती कराया गया, यहां बात नहीं बनी तो उन्हें एसएन मेडिकल कॉलेज आगरा भेजा गया और आखिर में जीएमसी मेडिकल कॉलेज लखनऊ जहां आईसीयू में उनकी मौत हो गई. मरने से पहले मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान में उन्होंने उन पुलिसवालों के नाम लिए जिन्होंने उन्हें यातनाएं दी थीं. इसके बाद पुलिस को हत्या का मामला दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बाद निचले स्तर के पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया. खबर लिखे जाने तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई थी. एक सब-इंस्पेक्टर फरार है. संबंधित थाने के एसओ देवेंद्र पांडे को सिर्फ तबादला करके छोड़ दिया गया, जबकि कुमार के मुताबिक सिंह को बिजली के झटके पांडे ने ही दिए थे. सिंह का एक साल का बेटा है और उनकी पत्नी दूसरी संतान को जन्म देने वाली हैं.
ऐसा ही एक मामला चार अगस्त 2013 को भी सुर्खियों में आया. पंजाब में अमृतसर के सुल्तानविंड इलाके सतिंदरपाल सिंह नाम के एक युवक की पुलिस हिरासत में मौत के मुद्दे पर लोगों ने जमकर हंगामा किया. सतिंदर की पत्नी और मां का आरोप था कि पुलिस ने उसे पकड़कर गैर कानूनी हिरासत तरीके से हिरासत में रखा. उनका कहना था कि इस दौरान दी गई यातनाओं से जब उसकी मौत हो गई तो परिवार को सूचना दिए बिना आनन-फानन में पोस्टमाटर्म करवाकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया. इस मुद्दे पर जब बवाल होने लगा तो एक एएसआई और दो अन्य पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया.
2010 में अपने एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए तो सभ्य समाज का अस्तित्व खत्म हो जाएगा….आपराधिक कृत्य करने वाले पुलिसकर्मियों को दूसरे लोगों के मुकाबले और भी कड़ी सजा दी जानी चाहिए, क्योंकि उनका कर्तव्य लोगों की सुरक्षा करना है न कि खुद ही कानून तोड़ना.’ यह फैसला उस मामले में आया था जिसमें थाने में एक व्यक्ति का जननांग काटने के दोषी बाड़मेर के एक कांस्टेबल किशोर सिंह को अदालत ने पांच साल कैद की सजा सुनाई थी. अदालत ने पुलिस की मानसिकता की निंदा करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक देश के कानून में थर्ड डिग्री जैसे गैरकानूनी तरीकों के इस्तेमाल की कोई जगह नहीं है.
लेकिन पुलिस या जेल अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न और आम भाषा में कहें तो टॉर्चर के आरोपों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा. बीती 18 मई को ही फैजाबाद अदालत में पेशी के बाद लखनऊ जेल ले जाए जा रहे 32 साल के खालिद मुजाहिद ने दम तोड़ दिया. सात जून, 2012 को इस तरह का एक और मामला सामने आया. बदायूं के रहने वाले 23 वर्षीय रिंकू यादव की पुलिस हिरासत के दौरान खून की उल्टियां करने के बाद मौत हो गई.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2001 से 2010 के बीच देश 14 हजार से भी ज्यादा लोगों की पुलिस हिरासत और जेल में मौत की घटनाएं दर्ज की हैं. यानी औसतन देखा जाए तो चार मौतें रोज. आयोग के मुताबिक पिछले तीन साल में ही पुलिस हिरासत में 417 और न्यायिक हिरासत में 4,285 मौतें हुई हैं. इस दौरान पुलिस हिरासत में शारीरिक शोषण और यातना के 1,899 मामले देखे गए हैं, जबकि 75 मामले आयोग ने ऐसे दर्ज किए हैं जिनमें पुलिसकर्मियों पर ही बलात्कार का आरोप है.
पुलिसिया उत्पीड़न से जुड़ी इस तरह की ज्यादातर घटनाओं पर कोई खास चर्चा नहीं होती. सवाल उठता है कि ऐसा क्यों होता है. दरअसल इसके दो कारण हैं. पहला कारण तो यह आम धारणा है कि उत्पीड़न उन्हीं का होता है जिनका होना चाहिए. दूसरा कारण भी एक धारणा ही है और वह यह है कि गैरकानूनी होने पर भी उत्पीड़न ही एक ऐसा तरीका है तो आतंकी घटनाओं या माफिया गतिविधियों के संदेह में गिरफ्तार लोगों से कुछ अहम जानकारियां उगलवा सकता है.
लेकिन जानकारों के मुताबिक ये दोनों ही धारणाएं सही नहीं हैं. ज्यादातर मामलों में उत्पीड़न से सटीक जानकारी नहीं मिलती. बल्कि एक लिहाज से यह सुरक्षा व्यवस्था के लिए संकट की बात ही होती है क्योंकि अक्सर इससे डरकर लोग वे अपराध कबूल लेते हैं जो उन्होंने किए ही नहीं जबकि असल अपराधी खुले घूमते रहते हैं. दूसरी बात यह है कि उत्पीड़न सिर्फ कुछ दुर्लभ मामलों तक ही सीमित नहीं है. अक्सर यह छोटे-मोटे अपराध में पकड़े गए आरोपितों के साथ होता है.
रतनजी वाघेला का मामला इसका एक उदाहरण है. उन्हें इस साल 27 अप्रैल को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया. डिप्रेशन और याद्दाश्त की कमी जैसी बीमारियों के मरीज वाघेला का कसूर यह था कि वे एक सरकारी काफिले के रास्ते में आ गए थे. उनके परिवार का आरोप है कि उन्हें प्रताड़ित किया गया जिसकी वजह से उन्हें बहुत चोटें आईं और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. नई दिल्ली में इस मुद्दे पर अभियान चला रहे सुहास चकमा कहते हैं, ‘दुनिया में बहुत कम देश ऐसे होंगे जहां उत्पीड़न इतना व्यवस्थित और व्यवस्थागत है. ‘ सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं, ‘भारत में उत्पीड़न अपवाद नहीं है. यह तो आम बात है.’
फिर भी वाघेला खुशकिस्मत हैं. उनके मामले में चकमा की शिकायत के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने गुजरात सरकार को आदेश दिया है कि वह वाघेला को तीन लाख रु का अंतरिम मुआवजा दे. यही नहीं, उससे चकमा को प्रताड़ित किए जाने के आरोप की जांच करने के लिए भी कहा गया है. लेकिन उन लाखों लोगों के लिए उम्मीद की कोई किरण नहीं है जो भारत के थानों और जेलों में बर्बर यातना के शिकार हो रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में दो साल जेल में बिताने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बिनायक सेन कहते हैं, ‘मैंने देखा है कि लोगों को तब तक पीटा जाता है जब तक वे ढेर नहीं हो जाते. और ऐसा करने वालों को सजा का कोई डर नहीं होता. भारतीय जेलों में यह रोज की हकीकत है.’ सेन को 2010 में राष्ट्रद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और उनका मामला अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन गया था. ऊपरी अदालत में इस फैसले के खिलाफ अपील करने के बाद वे फिलहाल जमानत पर बाहर हैं. सेन कहते है कि जब उन्होंने साथी कैदियों के उत्पीड़न का विरोध किया तो उनका मजाक उड़ाया गया. उनके मुताबिक उन्होंने उत्पीड़न से पीड़ित एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो इसके खिलाफ न्याय चाहता हो.
वैसे तो सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न के मामले बाकी दुनिया में भी सामने आते रहते हैं, लेकिन भारत का जिक्र इस मायने में उल्लेखनीय है कि कमोरेस या गिनी-बिसाऊ जैसे छोटे-छोटे पांच-छह देशों की लिस्ट में वह अकेला बड़ा देश है जो उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के साथ समझौता करने के बावजूद इसे अपने यहां लागू नहीं कर पाया है. हिरासत में यातना, अमानवीय व्यवहार और सजा के खिलाफ 1997 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र के साथ समझौता किया था. इसे लागू करने के लिए मौजूदा कानूनी प्रावधानों में संशोधन कर नया कानून बनाना जरूरी था. हालांकि हिरासत में उत्पीड़न के खिलाफ कुछ प्रावधान भारतीय दंड संहिता में हैं, लेकिन उनमें न उत्पीड़न की व्याख्या है और न इसे आपराधिक माना गया है. इस बर्बरता को रोकने के लिए जरूरी है कि इसे गैरकानूनी घाेषित करते हुए इसके लिए सजा का प्रावधान हो. 2010 में प्रिवेंशन ऑफ टॉर्चर बिल के साथ ऐसी एक कोशिश हुई तो थी मगर बिल के मसौदे में कई गड़बड़ियां थीं जिन पर ध्यान दिलाए जाने पर उनकी जांच के लिए एक संसदीय समिति बनाई गई और तब से मामला ठंडे बस्ते में ही है.
नतीजा यह है कि भारत में कानून का पालन सुनिश्चित होने की जो प्रक्रिया है उत्पीड़न इसका एक अभिन्न हिस्सा बना हुआ है और न्यायपालिका भी इससे आंखें फेरे रहती है. इस मुद्दे पर लंबे समय से अभियान चला रही उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘ज्यादातर मामलों में उत्पीड़न पर न्यायपालिका सिर्फ जुबानी गुस्सा दिखाती है. इसे अंजाम देने वालों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई नहीं होती.’ कभी किसी मामले पर हल्ला हो जाता है तो ज्यादा से ज्यादा पीड़ित को मुआवजा दे दिया जाता है. लेकिन जहां तक दोषी पर कार्रवाई का सवाल है तो मामला हमेशा के लिए घिसटता रह जाता है. हैरानी की बात है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े ही बता रहे हैं कि हिरासत में उत्पीड़न के आरोप में पुलिस और जेल अधिकारियों के खिलाफ इतने मामलों के बावजूद आज तक एक भी उदाहरण ऐसा नहीं जहां आरोप सिद्ध हो गए हों.
सामाजिक कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि हिरासत के दौरान होने वाली मौतों में से ज्यादातर उत्पीड़न के चलते होती हैं. हालांकि स्वाभाविक ही है कि अधिकारी हमेशा इससे इनकार करते हैं. अधिकांश ऐसी मौतें खुदकुशी के तौर पर दर्ज होती हैं तो कइयों के पीछे की वजह बीमारी बताई जाती है.
और जो इस बर्बरता के बावजूद बच जाते हैं उनके लिए कभी न खत्म होने वाले एक बुरे सपने की शुरुआत हो जाती है. 24 जनवरी, 2012 को बिहार के शेखपुरा जिले में पुलिस ने मुकेश कुमार नाम के एक व्यक्ति को अवैध शराब बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया था. बाद में राज्य मानवाधिकार आयोग में दर्ज एक शिकायत के मुताबिक 21 साल के कुमार को जिले के एसपी बाबू राम के सरकारी आवास पर ले जाया गया और वहां बुरी तरह पीटा गया. उसके मल द्वार में डंडा घुसेड़ दिया गया. (हालांकि पुलिस इससे इनकार करती है). चार दिन बाद जब उसे अस्पताल लाया गया तो डॉक्टरों ने पाया कि उसकी आंत बुरी तरह फट चुकी है. हालत बिगड़ने पर उसे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाना पड़ा जहां उसके ऑपरेशनों पर अब तक करीब दो लाख रु खर्च हो चुके हैं. डॉक्टरों के मुताबिक उसकी चोट शायद ही कभी ठीक हो.
कुमार के मामा धीरज सिंह बताते हैं, ‘जब कानून के रखवाले ही ऐसा अपराध करेंगे तो आदमी कहां जाए?’ मामला सुर्खियों में आया तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एसपी के तबादले के आदेश दिए. शेखपुरा की नई एसपी मीनू कुमारी कहती हैं, ‘एसपी सहित मामले में शामिल सभी पुलिसकर्मियों का
तबादला कर दिया गया है. मैं इस मामले पर कोई और टिप्पणी नहीं कर सकती.’
हिरासत से होने वाली मौतों के मामले में महाराष्ट्र ने जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है. आरोप लग रहे हैं कि बार-बार हो रहे बम धमाकों, जिनके बारे में माना जाता है कि उनमें देश में ही मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथियों का भी हाथ है, और राज्य के कुछ हिस्सों में फैले नक्सलवाद ने उत्पीड़न के लिए कानूनी एजेंसियों की भूख बढ़ा दी है.
26 मार्च, 2012 को गढ़चिरौली जिले में एक बम धमाका हुआ. इसमें अर्धसैन्य बल केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 12 लोग मारे गए. इसकी प्रतिक्रिया में पुलिस ने घटनास्थल के आस-पास वाले गांवों में छापे मारे और 11 लोगों को गिरफ्तार किया. इन्हीं में से एक 28 वर्षीय एनसी बापरा बताते हैं, ‘रोज सुबह-शाम हमें उल्टा लटकाया जाता और हमारे पैरों और कमर पर डंडे बरसाए जाते.’ 18 साल के शत्रुघ्न राजनेताम आगे बताते हैं, ‘चार दिन बाद पुलिस ने यह तो बंद कर दिया मगर हमें छोड़ा नहीं.’ इन सभी पर राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया. तीन महीने बाद जाकर उनकी जमानत हो सकी.
उनके वकील जगदीश मेश्राम कहते हैं, ‘उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, लेकिन उन्हें इसलिए उठाया गया कि यह आसान था.’ 26 साल के नरेश कुजूरी अपने माथे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब वे पैर के तलवे पर डंडे बरसाते थे तो दर्द यहां तक जाता था. जब झेलना बर्दाश्त से बाहर हो गया तो तीन दिन बाद मैंने मान लिया कि बम रखने वाला मैं था.’ कानूनी और स्वास्थ्य संबंधी खर्चों पर इन सभी गरीब किसानों के परिवारों के लाखों रुपये खर्च हो चुके हैं. पुलिस इस आरोप का खंडन करती है. गढ़चिरौली के एसपी सुवेज हक तहलका से कहते हैं, ‘इनमें से किसी का भी उत्पीड़न नहीं किया गया है. और हमने उन्हें सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किया है.’
नागपुर में टेलर 46 साल के बंधु मेश्राम को उत्पीड़न के मामले में तजुर्बेकार कहा सकता है. उन्हें पहली बार 1984 में गिरफ्तार किया गया था. 1996 और 2010 में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया. मेश्राम बताते हैं कि शुरुआती सालों में उन्हें ट्रेड यूनियन में उनकी सक्रियता और अलग विदर्भ राज्य की मांग करने के कारण निशाना बनाया गया. 2010 में पुलिस ने उन्हें माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया. मेश्राम कहते हैं, ‘जब उन्हें आपसे कुछ कबूलवाना होता है तो वे आपको पूरी तरह तोड़ देते हैं. वे जानते हैं कि आदमी को कैसे चोट पहुंचानी है और उसे डराना है.’ मेश्राम के मुताबिक उन्हें एक टायर के बीच उल्टा लटकाया गया और एक घंटे तक उन पर डंडे बरसाए गए. उन्हें यकीन दिलाया गया कि दूसरे कमरे में उनकी पत्नी और मां के साथ बलात्कार हो रहा है. कई घंटों तक वे चीखें सुनते रहे जबकि पुलिसवाले हंसते रहे. एक दूसरे कैदी ने उन्हें बताया कि उनकी पत्नी की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई है. और यह भी कि उनका शव काटकर कहीं फेंक दिया गया है. वे बताते हैं, ‘मैं अपनी जिंदगी खत्म करना चाहता था. शुक्र है कि अगले दिन मैंने अपनी पत्नी को कोर्ट में देख लिया.’ तीन महीने जेल में गुजारने के बाद मेश्राम को जमानत मिल गई. 2012 में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया. अब उन्होंने खुद को यातना देने वाले पुलिसवालों के खिलाफ याचिका दायर की है.
क्या भारतीय कानून हिरासत में उत्पीड़न को वैधता देता है? कानून के मुताबिक इसका जवाब ‘नहीं’ है. सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फेरेरा जनवरी, 2012 में अपनी रिहाई के पहले चार साल तक जेल में रह चुके हैं. उन्हें गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) के तहत हिरासत में लिया गया था. जेल में कई साथी कैदियों को उत्पीड़न का शिकार होते देख चुके फेरेरा कहते हैं, ‘ वैसे तो एकांत कारावास भी हमारे यहां गैरकानूनी है लेकिन देश की सभी जेलों में एकांत कारावास के लिए सेल बनी हुई हैं.’ वे सरकार के दोहरे रवये की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि सरकार 2008 में उत्पीड़न निरोधक विधेयक पास कराने की जल्दबाजी में थी, लेकिन बाद में कार्यकर्ताओं ने पाया कि इसमें भी कुछ मामलों में उत्पीड़न को वैध बताया गया था.
लखनऊ में रहने वाले भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी हिरासत में उत्पीड़न पर एक अलग और महत्वपूर्ण बात बताते हैं. वे कहते हैं, ‘ सबसे बुरा पक्ष यह है कि अदालतें ऐसी शिकायतों को कोई तवज्जो नहीं देतीं. जब ये पीड़ित अदालत के सामने आते हैं तो अपने साथ हुए उत्पीड़न की शिकायत करते हैं, लेकिन अदालत इन बातों को दरकिनार कर देती है. हमारा पूरा तंत्र इस बीमारी से ग्रस्त है.’ जहां तक अदालतों का संबंध है तो अब कुछ हद तक वे पुलिस और जेल कर्मियों द्वारा उत्पीड़न पर गंभीर रुख दिखाने लगी हैं फिर भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि वे इस प्रथा को पूरी तरह रोकने के लिए बड़ी कोशिश कर रही हों.
हिरासत में उत्पीड़न के मामलों पर वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका गोंजाल्विज और विजय हीरेमथ ने बंबई उच्च न्यायालय में 2003 में एक जनहित याचिका दाखिल की थी. यह मामला भी तब से धूल फांक रहा है. यही नहीं, छह साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को एक ऐसा सुरक्षा आयोग गठित करने का निर्देश दिया था जो कानून के क्रियान्वयन पर निगरानी रखे ताकि यह पूरी प्रक्रिया राजनीतिक दबावों से मुक्त रहे. हैरानी की बात है कि यह भी अब तक नहीं हुआ है. इस मामले में एक याचिकाकर्ता रहे उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘ हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम पूरी तरह ढह चुका है. छोटे-मोटे मामले सुलझने में भी हमारे यहां तीन से पांच साल का वक्त लगता है.’ उधर, समाज उम्मीद करता है कि नतीजे जल्द निकलें. ‘ अच्छे-अच्छे लोग भी मुझसे पूछते हैं हम अपराधियों और आतंकवादियों को फौरन क्यों नहीं पकड़ते. उन्हें लगता है कि उत्पीड़न ठीक है क्योंकि इसके बिना कानून नहीं चल पाएगा. ‘
सिंह कहते हैं कि पुलिस सुधार ही एकमात्र तरीका है जो हमारे पुलिसतंत्र को ज्यादा लोकतांत्रिक और जवाबदेह बना सकता है और यही उन्हें अपने राजनीतिक आकाओं की कठपुतली बनने से रोक सकता है. हालांकि वृंदा ग्रोवर इससे पूरी तरह सहमत नहीं. वे कहती हैं, ‘ सुधारों से ज्यादा हमें जवाबदेही की जरूरत है. पुलिस की सोच दलित, महिला, गरीब तबके और अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रहों से भरी हुई है. इसके ऊपर हमारा राजनीतिक तबका अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में उसका इस्तेमाल करता है. इससे वह और असंवेदनशील होती है. ‘ मुंबई के एक वकील युग मोहित चौधरी पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के कई मामलों में पीड़ितों की तरफ से पैरवी कर चुके हैं. कर्मचारियों की कमी, संसाधनों का अभाव, कम तनख्वाह और काम के बोझ तले दबे पुलिसबल की दिक्कतों की तरफ ध्यान खींचते हुए चौधरी कहते हैं, ‘ उन्हें कानून और प्रशासन से लेकर घरेलू विवादों तक से जूझना पड़ता है. हम उनसे जानवरों की तरह काम लेते हैं. ऐसे में वे जानवरों की तरह व्यवहार भी करते हैं.’
पर शायद ज्यादातर मामलों में जानवर बेहतर व्यवहार करते हैं.
यह इसी साल 16 मार्च की घटना है. नवी मुंबई की एक जेल में 45 साल के नौशाद शेख की मौत हो गई थी. उन पर चोरी का आरोप था. पुलिस का कहना है कि नौशाद ने लोहे की ग्रिल पर अपना सिर पटककर आत्महत्या की है. जबकि ऑटोप्सी की रिपोर्ट बताती है कि उनके पूरे शरीर में अलग-अलग जगह घाव के निशान थे. नौशाद के साथ रहे सहअभियुक्त ने महाराष्ट्र सीआईडी को पूछताछ के दौरान बताया कि शेख के साथ ‘बाजीराव’ किया गया था, यानी उन्हें पुलिस बेल्ट से बेतहाशा पीटा गया था. नौशाद के सिर पर बेल्ट के बकलस से बने घाव थे. इस आरोपित ने यह भी बताया कि नौशाद को उल्टा लटकाकर क्रिकेट के बैट से पीटा गया था. मुंबई पुलिस के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त कैसर खालिद इस मामले पर तहलका से बात करते हुए कहते हैं, ‘ हिरासत में मौत अमानवीय है. किसी के साथ उत्पीड़न नहीं होना चाहिए. हमें सीआईडी की जांच का इंतजार करना चाहिए. ‘ लेकिन क्या निष्पक्ष जांच हो पाएगी? रफीक शेख का उदाहरण लें तो यह काफी मुश्किल दिखता है. एक कॉस्मेटिक कंपनी में बतौर एग्जीक्यूटिव काम करने वाले 35 साल के रफीक को फर्जी नोट रैकेट चलाने के मामले में 28 नवंबर, 2012 को हिरासत में लिया गया था. जब उनके भाई मझल दो दिसंबर को उनसे मिलने जेल पहुंचे तो रफीक की मौत हो चुकी थी. मझल बताते हैं, ‘उनके पैरों में काफी गहरे घाव थे. पैर के तलवे पिटाई की वजह से काले पड़ चुके थे. मैं चाहता हूं कि जिन पुलिसवालों ने उनके साथ यह किया है उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए.’
इस मामले में भी एक सहअभियुक्त का कहना था कि पुलिसवालों ने बेल्ट और डंडे से घंटों तक रफीक को पीटा था. बंबई उच्च न्यायालय के एक जज ने भी माना था कि मृतक के शरीर पर घावों के निशान पिटाई से बने हैं. रफीक के परिवारवालों ने जब इस मामले में एक आपराधिक प्रकरण दर्ज करवाया तब पुलिस ने मामले की जांच सीआईडी की एक टीम को सौंप दी. इस टीम में सहायक पुलिस आयुक्त प्रफुल्ल भोंसले भी शामिल हैं और विडंबना यह है कि भोंसले खुद ख्वाजा यूनुस नाम के एक व्यक्ति की हिरासत में मौत के आरोपित हैं. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और कथित 74 अपराधियों को मारने वाले भोंसले 2003 के इस मामले में चार साल तक निलंबित रहे और 2010 में उनकी वापस नियुक्ति हुई है.
हिरासत में उत्पीड़न की कहानियां पूरे भारत में एक जैसी हैं. 15 अप्रैल, 2011 को उत्तर-पूर्वी राज्य त्रिपुरा में पुलिस ने 32 साल के एक युवा आदिवासी हरक चंद्र चकमा को एक आदिवासी त्योहार में शामिल होने के बाद हिरासत में लिया था. हरक का दावा है कि पुलिस ने उन पर एक भोंथरे हथियार से हमला किया था. हरक की उस समय की तस्वीरें देखने से पता चलता है कि उनकी जांघों, पीठ और घुटनों के नीचे घाव के निशान हैं. उन्हें दस दिन तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था. पुलिस उत्पीड़न के चार दिन बाद आदिवासियों के लिए काम करने वाला एक गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) यह मामला मानवाधिकार आयोग ले गया. जांच में यह साबित भी हो गया कि इस आदिवासी युवा को प्रताड़ित किया गया था. तो जाहिर है दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. रिपोर्ट में जिन तीन दोषियों के नाम थे, उनमें से सिर्फ एक को निलंबित किया गया. बाकियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.
हिरासत में उत्पीड़न की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं हमें बेंगलरु के पत्रकार मुथी-उर-रहमान सिद्दीकी से सुनने को मिलती हैं. सिद्दीकी को छह महीने जेल में रहने के बाद इसी फरवरी में रिहा किया गया है. उन पर आतंकी साजिश में शामिल होने का आरोप था. कुल मिलाकर इस मामले में 14 आरोपित थे. सिद्दीकी बताते हैं, ‘ एक को उल्टा लटकाकर काफी मारा पीटा गया, उसके गुप्तांगों में पेट्रोल डाल दिया गया.’ एक अन्य आरोपित हैदराबाद के ओबेद-उर-रहमान की मारपीट के दौरान उंगली टूट गई. वे तहलका को बताते हैं, ‘ ज्यादातर को गुप्तांगों में बिजली के झटके दिए जाते थे. ‘
आम तौर पर ऐसे उत्पीड़न के शिकार रहे लोगों को न्याय पाने में लंबा वक्त लग जाता है. नवी मुंबई में 1989 का यह मामला यही बताता है. घरेलू नौकर के रूप में काम करके आजीविका कमाने वाले सरफराज स्थानीय पुलिस थाने में यह रिपोर्ट लिखाने गए थे कि उनकी पत्नी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है. पुलिस ने इस मामले में तुरंत ही कार्रवाई करते हुए सबसे पहले सरफराज को ही गिरफ्तार किया और पत्नी की मौत के मामले में उन्हें जिम्मेदार ठहरा दिया. उसके बाद पुलिस ने कथित तौर पर सरफराज की मां को भी थाने बुलवाया. सरफराज उस दिन की घटनाओं का वर्णन ऐसे करते हैं जैसे सब कुछ उनके साथ कल ही घटा हो. वे बताते हैं कि हजारों मिन्नतें करने के बाद भी पुलिस ने उनकी मां और उनके कपड़े उतरवाए और दोनों को सबके सामने शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया. पुलिस ने बाद में सरफराज की बिना कपड़ों के उनके मोहल्ले में परेड भी करवाई थी. वे 1991 में सभी आरोपों से बरी कर दिए गए, इसके बाद उन्होंने उन तीन पुलिसवालों के खिलाफ केस किया जो उनके उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार थे. यह मामला आखिरकार पिछले साल फास्ट ट्रैक कोर्ट में आया है.
हमारी पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के मामलों में खुद को सुरक्षित पाती है. दरअसल 1973 में बनाई गई आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धाराएं उसे यह सुरक्षा देती हैं. इनके मुताबिक अधिकारियों पर उनके कर्तव्यपालन के दौरान किए गए कामों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. हालांकि 1860 की भारतीय दंड संहिता में यह प्रावधान था कि उत्पीड़न जैसे मामलों में दोषियों को सात साल की सजा दी जा सके. लेकिन पुलिसवालों पर इन प्रावधानों के तहत कार्रवाई लगभग नामुमकिन होती है. कुछ गिने-चुने मामलों में ही पीड़ितों की फॉरेंसिक जांच हो पाती है. इसके अलावा अहम बात यह भी है कि गवाहों के लिए सुरक्षातंत्र का अभाव दोषियों के खिलाफ कार्रवाई में पीड़ित के सामने एक बड़ा अवरोध पैदा करता है. इन मामलों में हर्जाना अभी तक बुनियादी अधिकार नहीं है. अदालतों ने भी इस पर अभी तक गंभीर रवैया नहीं अपनाया है. इसलिए ऐसे मामलों में देश भर में अलग-अलग तरह के फैसले सुनने को मिलते हैं.
2005 में सीआरपीसी में संशोधन केे जरिए यह प्रावधान कर दिया गया कि हिरासत में मौत, व्यक्ति के गायब होने या महिला से बलात्कार होने की दशा में न्यायिक जांच की जाए. लेकिन हिरासत में उत्पीड़न के मामलों पर शायद ही इसका कोई असर पड़ा हो. ऐसे ज्यादातर मामलों में मौत होने पर उसे तुरंत ही आत्महत्या की तरह दिखाया जाता है. मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट कहती है, ‘ आखिर किस वजह से पीड़ित इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होते हैं और कैसे वे जूतों के फीतों, चादरों, जींस इत्यादि से आत्महत्या कर लेते हैं. कैसे हिरासत में रहते हुए उनकी पहुंच जहर, नशीली दवाएं, बिजली के तार आदि तक आसानी से होती है. ये सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं.’ कई आरोपित तो हिरासत के पहल तो स्वस्थ रहते हैं, जेल में जाने के बाद उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कई जटिल समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है. रिपोर्ट आगे कहती है, ‘ उनका उत्पीड़न किया जाता है और हत्या कर दी जाती है. डॉक्टरों की मिलीभगत से पुलिस ऐसे मामलों को बीमारी की वजह से मौत होने की बात साबित करने में सफल रहती है. ‘
आए दिन हो रही इन घटनाओं से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर बट्टा लग रहा है. 1997 में ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति भारत में कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न की घटनाओं पर आवाज उठा चुकी थी. नस्लभेद उन्मूलन समिति ने 2007 में और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से जुड़ी समिति ने 2008 में भारत में पुलिस को उत्पीड़न के मामलों में मिली सुरक्षा पर भारी चिंता जाहिर की थी. लेकिन अंतरराष्ट्रीय और घरेलू आवाजों पर सरकार अभी तक बहरी दिखाई दे रही है. जब तक उसकी नींद नहीं टूटती, दसियों हजार लोगों को हमारे यहां हिरासत में उत्पीड़न की बर्बर संस्कृति का शिकार होते रहना पड़ेगा.