उधर कुआं, इधर खाई

लगातार बढ़ते वित्तीय घाटे ने मनमोहन सरकार को इस हालत में ला पटका है कि वह कुछ करे तो मुश्किल है और न करे तो और भी बड़ी मुसीबत है.

कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अगर अचानक ही एक के बाद एक आर्थिक फैसले लेने लगी है तो उसके पीछे का संदर्भ जानना भी जरूरी है. 31 अगस्त को भारत के लेखा महानियंत्रक ने जो आंकड़े जारी किए वे बताते हैं कि इस बार बजट में पूरे साल के लिए जितने वित्तीय घाटे का अनुमान लगाया गया था उसमें से 51.5 फीसदी घाटा तो इस वित्तीय वर्ष के पहले चार महीने में ही हो चुका है. मार्च में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने वादा किया था कि वित्तीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 5.1 फीसदी से आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा. अब चिंता जताई जा रही है कि यह आंकड़ा छह फीसदी को पार कर सकता है. गौरतलब है कि 2011-12 में सरकार ने वित्तीय घाटे को 4.6 फीसदी तक सीमित रखने का वादा किया था लेकिन साल बीतते-बीतते यह रहा 5.9 फीसदी. 

दरअसल लगातार दो साल के बेलगाम सार्वजनिक व्यय से देश का वित्तीय तंत्र चरमरा गया है. अंतरर्राष्टीय रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग बुरी तरह से गिराने के लिए तैयार बैठी हैं. इस साल तो सरकार के पास पिछले साल जैसा बहाना भी नहीं है जब तेल के दाम बहुत ऊंचे थे और कच्चे तेल के आयात और उस पर दी जाने वाली सब्सिडी से राजकोषीय घाटे पर बहुत ज्यादा दबाव था. आज तो स्थिति उलट है. 2012 में कच्चे तेल के दाम गिरे हैं. इसलिए सरकार की पहली प्राथमिकता वित्तीय घाटे पर अपेक्षित लगाम लगे, ऐसी स्थिति बहाल करना है. गौरतलब है कि डीजल के दाम पांच रु प्रति लीटर बढ़ाने और सस्ते एलपीजी सिलेंडरों पर एक सीमा बांधने से भी1,87000 करोड़ रु के तेल सब्सिडी बिल में महज 11 फीसदी की कमी आएगी.

सीधी-सी बात है कि घाटा कम करना है तो या तो खर्च में कमी लानी होगी या फिर आय यानी राजस्व के स्त्रोत बढ़ाने होंगे

अब सीधी-सी बात है कि घाटा कम करना है तो या तो खर्च में कमी लाइए या फिर आय यानी राजस्व के स्रोत बढ़ाइए. यह घाटा असाधारण रूप से ज्यादा हो गया है तो इसका एक कारण यह भी है कि पिछले आठ साल में यूपीए सरकार ने लोकलुभावन योजनाओं पर बेतहाशा खर्च किया है. कर्ज माफी सहित तमाम कल्याणकारी योजनाओं ने सरकारी खजाने पर बुरा असर डाला है. अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के चलते कांग्रेस को यह लोकलुभावन राह छोड़ना मुश्किल लग रहा है. 2013 के बजट सत्र में आने वाला खाद्य सुरक्षा बिल वित्तीय घाटे के इस बोझ में और बढ़ोतरी ही करेगा. 

अब सरकार के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह आय के स्रोत बढ़ाए. यानी ज्यादा राजस्व का इंतजाम करे. लेकिन पिछले कुछ साल के दौरान विकास पहले जैसी रफ्तार से नहीं हो रहा इसलिए कर संग्रह में भी अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो पा रही. यानी लीक से हटकर कुछ सोचना होगा. वित्त मंत्री पी चिदंबरम कुछ अस्थायी इंतजामों से उम्मीद कर रहे हैं. जैसे कि टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी जो जनवरी, 2013 से पहले होनी है. सरकार भले ही ए राजा के समय हुए आवंटनों का बचाव करे लेकिन सच्चाई यह है कि इन आवंटनों के रद्द होने से उसे एक तरह से फायदा ही हुआ है. नीलामी के लिए रिजर्व प्राइस यानी एक तय कीमत 14,000 करोड़ रु रखी गई है. यह रकम संकट के इस समय सरकार के बहुत काम आएगी.

इसके बाद दूसरा जरिया है चुनिंदा सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी का विनिवेश. मार्च, 2012 में जब बजट पेश हुआ था तो उसमें इस रास्ते के माध्यम से 30 हजार करोड़ रु जुटाने का लक्ष्य रखा गया था. 2011 में यह लक्ष्य 40 हजार करोड़ रु रखा गया था, लेकिन साल के आखिर में 14 हजार करोड़ रु ही जुटाए जा सके. इस साल यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है बशर्ते शेयर बाजार का रुख सकारात्मक रहे. इसके लिए अच्छे संकेत जाने जरूरी हैं और वित्त मंत्री की सारी कवायद इसी दिशा में केंद्रित लगती है. रीटेल या उड्डयन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश का फैसला लेने या रेट्रोएक्टिव टैक्स (पुराने सौदों पर लगने वाला कर) पर ढील का रुख दिखाने का मकसद यही है कि अर्थव्यवस्था में कुछ उम्मीद का संचार हो. सरकार के ये कदम उसकी मजबूरी हैं.

इस हकीकत को देखते हुए कांग्रेस के लिए यही एक रास्ता होगा कि वह लोगों के सामने खुद को इस तरह पेश करे कि वह तो आर्थिक सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन तृणमूल कांग्रेस इस राह में अड़ंगा लगा रही है. अगर चौतरफा आलोचना के बीच वह लोगों को यह समझाने में कामयाब हो जाती है तो उसके लिए यह एक बड़ी उपलब्धि होगी.