एक अरसे के बाद एक ऐसा उपन्यास आया है जिसमें भरपूर ठेठपन मौजूद है. हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपे उपन्यास ‘लूज़र कहीं का!’ की खास बात यह है कि दोनों ही भाषाओं में यह मौलिक है, अनुवाद नहीं. उपन्यासकार पंकज दुबे फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं. इसका एहसास पाठकों को भी होगा क्योंकि उपन्यास किसी फिल्मी कथानक की तरह हमारे सामने से गुजरता है. इस कहानी का नायक या कहें लूज़र, पांडे अनिल कुमार सिन्हा उर्फ पैक्स उन लाखों नौजवानों का प्रतिनिधि है जो छोटे शहर या कस्बे से सैकड़ों सपने लेकर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में हर रोज आते हैं. इन सपनों में कुछ उनके खुद के होते हैं, कुछ माता-पिता के तथा कुछ दूसरों के. पैक्स इनमें खुद के सपनों को तरजीह देता है. तमाम देश के बाबू जी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले पैक्स के बाबूजी उसे लताड़ते हैं, डांटते हैं, समझाते हैं और आखिर में समाज और मां की उम्मीदों की चादर में लपेट कर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग का विफल नुस्खा भी अपनाते हैं लेकिन हर बार हार कर अपने बेचारेपन में लौट जाते हैं. पैक्स के सपने किसी आदर्शवादी विद्रोही पुत्र जैसे नहीं हैं, वह कोई क्रांति नहीं करना चाहता. पैक्स साधारण-सा नौजवान है जो बस किसी भी तरह अपनी कुछ कामनाएं पूरी करना चाहता है. इसमें किसी मिल्की व्हाइट पंजाबी लड़की से सेक्स करना उसकी तमाम इच्छाओं के केंद्र में है और इसके ही इर्द-गिर्द उसके अंग्रेजी बोलने, कूल दिखने जैसे कुछेक दूसरे सपने भी पलते हैं.
दिल्ली के मुखर्जी नगर और दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में घूमते इस उपन्यास की शुरुआत किसी संस्मरण का भ्रम कराती है. पैक्स के जीवन में घटती घटनाएं, पात्र और संवाद उत्तर भारत के किसी भी दूसरे युवा की कहानी जैसे ही हैं. वे युवा जो सिविल सर्विस के सपने को पूरा करने के लिए बरसों दिल्ली के इस इलाके में रहते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति, जातिगत दबंगई, शिक्षा व्यवस्था के पैबंदों के बीच अपने-अपने सपने को सहेजे नौजवान सब कुछ भोगे हुए यथार्थ-सा लगता है. लेखक की सफलता यही है कि सब कुछ देखे-समझे को भी उन्होंने बेहद पठनीय और रोचक भाषा में उतार दिया है. पंकज के लेखन में दृश्यात्मकता का तत्व इतना है कि उपन्यास किसी स्क्रीनप्ले जैसा लगता है.