विधानसभा उपाध्यक्ष बने भाजपा विधायक नितिन अग्रवाल
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से लगभग पाँच महीने पहले हुए विधानसभा उपाध्यक्ष के चुनाव में भले ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार को उपाध्यक्ष बनने का मौक़ा मिल गया, मगर समाजवादी पार्टी (सपा) के पक्ष में गये अन्य पार्टियों के विधायकों के 11 मतों ने, जिसमें भाजपा के विधायकों के द्वारा विरोध में मतदान किये जाने की सुगबुगाहट भी है; मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कान खड़े कर दिये हैं। विधानसभा के उपाध्यक्ष पद पर भाजपा ने नरेश अग्रवाल के बेटे और सपा के बाग़ी विधायक नितिन अग्रवाल पर दाँव लगाया। भाजपा की यह रणनीति विपक्षी दल के उम्मीदवार पर दाँव लगाने के साथ-साथ वैश्य जनाधार में सेंधमारी करने की सोच मानी जा रही है। वहीं सपा ने नरेंद्र वर्मा को उपाध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाया था।
बता दें कि उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में 37 साल बाद यह दूसरा विधानसभा उपाध्यक्ष का चुनाव हुआ है। इससे पहले सन् 1984 में उपाध्यक्ष पद के लिए चुनावों का सहारा लिया गया था। अन्यथा प्रदेश की राजनीतिक परम्परा रही है कि विधानसभा अध्यक्ष सत्तापक्ष की ओर से और उपाध्यक्ष मुख्य विपक्षी दल की ओर से चुने जाते रहे हैं। मगर इस बार भाजपा ने अपना उपाध्यक्ष बनाने के लिए यह चुनाव का दाँव चला, जिसमें सपा के उम्मीदवार नरेंद्र वर्मा की हार हुई। मगर सपा के पक्ष में बढक़र हुई वोटों की संख्या ने सत्तापक्ष को हैरानी-परेशानी में डाल दिया है।
समाजवादी नेता और विधायक पद के टिकट के दावेदार ओमप्रकाश सेठ का कहना है कि समाजवादी पार्टी ने पंचायत चुनाव में सबसे ज़्यादा सीटें जीती थीं और अब विधानसभा चुनाव में भी समाजवादी पार्टी की ही सरकार बनेगी; क्योंकि प्रदेश की जनता मौज़ूदा सरकार की नीतियों, कार्यों और प्रदेश में हो रही अराजकता से बहुत परेशान है। जनता ही नहीं ख़ुद भाजपा के अनेक विधायक और नेता भी अपनी ही पार्टी से सन्तुष्ट नहीं हैं। अन्दरख़ाने भाजपा में बग़ावत होने लगी है। विधानसभा उपाध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में यह बात साफ़ हो गयी है कि सरकार होने के बावजूद भाजपा के कई विधायकों ने अपनी पार्टी से कन्नी काट ली। वहीं भाजपा के एक समर्थक का कहना है कि भाजपा एक बार फिर प्रदेश में 300 पार का आँकड़ा पार करेगी। सपा अध्यक्ष और उनके समर्थक भी यह बात जानते हैं और उन्हें अपनी छत बचाने के लाले पड़े हैं। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता कि अखिलेश अपना उपाध्यक्ष भी विधानसभा में नहीं बनवा सके।
किसके पक्ष में कितने मत?
उत्तर प्रदेश की 403 सदस्यों वाली विधानसभा में वर्तमान में कुल 395 विधायक हैं, जिनमें भाजपा के 304 और सपा के 49 विधायक हैं। वहीं भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल(एस) के पास नौ, राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के चार, निषाद पार्टी का एक और तीन निर्दलीय और रालोद का एक विधायक है, जो अब भाजपा में ही है। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के 15 विधायक, जिनमें से लगभग 10 बाग़ी हैं, कांग्रेस के सात विधायक, जिनमें में दो भाजपा के हो चुके हैं और दो असम्बद्ध सदस्य हैं। विधानसभा के उपाध्यक्ष पद पर हुए चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार नितिन अग्रवाल 244 मतों (वोटो) से जीत गये और सपा के नरेंद्र वर्मा 60 मत ही पा सके और हार गये, मगर बड़ी बात यह है कि नरेंद्र वर्मा के पक्ष में 11 वोट किसी दूसरी पार्टी के विधायकों ने डाल दिये। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सपा पक्ष में भाजपा के ही विधायकों ने वोट डाले हैं। भाजपा इस बात से इन्कार भी कर रही है और अन्दरख़ाने डरी हुई भी है। उसका डर इस बात को लेकर भी है कि प्रदेश में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घट रही हैं, जिससे सरकार के माथे पर धब्बों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सरकार एक मामले को जैसे-तैसे रफ़ा-दफ़ा करती है, वैसे ही कोई दूसरा मामला उसके ख़िलाफ़ गवाही देने को खड़ा हो जाता है।
सपा में जगी उम्मीद
विधानसभा उपाध्यक्ष की कुर्सी सपा के हाथ से ज़रूर निकल गयी, मगर 11 मत दूसरी पार्टी के उसके पक्ष में आने से उसे एक बार फिर उम्मीद बँधी है कि विधानसभा चुनाव में उसे बड़ी जीत हासिल होगी। वहीं भाजपा की चिन्ता बढ़ गयी है। कहने वाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सत्ता पक्ष ने सपा के पक्ष में पड़े अतिरिक्त 11 मतों की अन्दरख़ाने गोपनीय पड़ताल शुरू कर दी है कि विरोधी दल के पक्ष में मतदान करने वाले विधायक कौन-कौन थे?
प्रदेश में सपा ख़ुद को अग्रणी पार्टी मानती है; क्योंकि बसपा उससे कमज़ोर दिख रही है और कांग्रेस को वह अभी भी उतनी गम्भीरता से नहीं ले रही है। हालाँकि यह भी सपा की भूल ही कही जाएगी; क्योंकि कांग्रेस पहले से कहीं मज़बूत होती दिख रही है। सपा को किसान आन्दोलन से भी जीत की उम्मीद बँध रही है। यह तो तय है कि सपा का जनाधार पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा बढ़ा है, मगर यह कहना कठिन है कि सपा सरकार बना पाएगी; क्योंकि अभी भी प्रदेश में भाजपा का अपना जनाधार बहुत तगड़ा है।
निर्वाचन की जगह चुनाव क्यों?
जब कोई पार्टी अपनी सत्ता दूसरी किसी पार्टी के हाथ में नहीं देना चाहती, तो वह कुछ राजनियक और महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को किसी भी तरह लाने का प्रयास करती है। उत्तर प्रदेश में भी इस साल यही हुआ है। इससे पहले सन् 1984 में कांग्रेस ने भी यही किया था।
सन् 1980 में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से चुनकर सत्ता में आयी और उसने सन् 1984 में विपक्ष का उपाध्यक्ष चुने जाने की निर्वाचन की परम्परा को तोड़ते हुए विपक्षी दल को यह पद न देने की मंशा से हुकुम सिंह को प्रत्याशी बनाकर चुनाव करा दिये। सत्तापक्ष के पास संख्या बल होने के चलते इस चुनाव में हुकुम सिंह उपाध्यक्ष बने। अब भाजपा ने भी वही इतिहास दोहराया है। लेकिन उस समय में और अब में अन्तर यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी के किसी पुराने विधायक को यह मौक़ा न देकर सपा के बाग़ी विधायक नितिन अग्रवाल को उपाध्यक्ष बनाया है। उपाध्यक्ष पद के पद पर हुए इस चुनाव में ख़ास बात यह रही कि अखिलेश के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ही मतदान करने नहीं गये। वहीं सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने भी मतदान नहीं किया, जबकि उनकी पार्टी के तीन विधायकों ने इस चुनाव में मतदान किया।
कांग्रेस भी हो रही मज़बूत
पीडि़तों को न्याय दिलाने और उनसे मिलने की कोशिश में कांग्रेस उपाध्यक्ष प्रियंका गाँधी दो बार हिरासत में ली जा चुकी हैं। लोगों को प्रियंका की यह लड़ाई पसन्द आने लगी है और वे वापस कांग्रेस की ओर देखने को विवश हो रहे हैं।
कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बना दे, तो कांग्रेस से कट चुके लोग उसके पक्ष में मतदान करेंगे। हालाँकि भले ही जानकार भी कह रहे हैं कि ऐसा करने से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है, मगर यह इतना भी आसान नहीं है; भले ही कांग्रेस का जनाधार बढ़ता नजर आ रहा है। हाँ, महिलाओं को 40 फ़ीसदी टिकट देने की प्रियंका की घोषणा और राजनीति में क़दम रखने वाली युवतियों को सुविधाएँ देने की घोषणा से यह सम्भव है कि कांग्रेस के पक्ष में महिला मत बढ़ जाएँ। इसके लिए उनकी महिलाओं से गले लगकर मिलना और उनके साथ फोटो खिंचवाना भी एक अच्छा कारण बन सकता है।
भविष्य की सम्भावनाएँ
भविष्य के पर्दे में क्या पोशीदा है? यह कोई नहीं जानता। कभी-कभी लोगों का तुक्का भी सही साबित हो जाता है और कभी कभी बड़े-बड़े विद्वानों और ज्योतिषियों की भविष्यवाणी भी झूठ साबित हो जाती है। उत्तर प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी? इस पर भी राजनीतिक जानकार, भविष्यवक्ता और आम लोग भविष्यवाणी कर रहे हैं। कुछ लोग दावा भी कर रहे हैं, जिस पर बहस भी छिड़ती है और कई बार कहीं-कहीं झगड़े का माहौल भी बन जाता है।
फ़िलहाल सभी पार्टियों में दाँवपेंच का खेल चरम पर है। प्रियंका गाँधी अपनापन दिखाकर, 40 फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं को देकर, उनके बीच जाकर उनका खाना खाकर, उन्हें गले लगाकर और पीडि़तों का दु:ख बाँटकर लोगों का दिल जीतने की कोशिश में लगी हैं; तो अखिलेश को सन् 2012 की तरह पुराने मतदाताओं से उम्मीद है। वहीं रालोद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीत का पक्का भरोसा है, तो आम आदमी पार्टी को ईमानदारी, मुफ़्त 300 यूनिट बिजली और तिरंगा यात्रा से काफ़ी कुछ पाने की उम्मीद है। छोटे-छोटे दलों को अपने-अपने गढ़ों में जीत का विश्वास तो है; लेकिन डर भी है कि कहीं बड़ी पार्टियाँ उनका खेल न बिगाड़ दें।
इन सबके बीच सबसे ज़्यादा भरोसा सत्ता में मौज़ूद भाजपा को ही है। भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के द्वारा 300 से ज़्यादा सीटें जीतने का दावा आत्मविश्वास है या अतिविश्वास? नहीं कह सकते; मगर डरी हुई भाजपा भी कम नहीं है। क्योंकि एक के बाद एक घट रही आपराधिक घटनाएँ उसके ख़िलाफ़ लोगों के समूह खड़े कर रही हैं। ऐसे में भाजपा को अपने प्रति लोगों में पहले जैसा विश्वास भरना पड़ेगा, जो कि कमज़ोर होता दिख रहा है।