उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, चुनावी गहमागहमी बढ़ती जा रही है। सत्तापक्ष और विपक्षी दल अपनी-अपनी गोटियाँ फिट करने में जुटे हैं। जातीय समीकरण बैठाये जा रहे हैं। एक के बाद एक सियासी दाँव चले जा रहे हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी लगी है। सियासी दल समाज के हर वर्ग को अपने पाले में करने की कोशिश में लगे हैं।
उत्तर प्रदेश सियासी लिहाज़ से बहुत विशेष स्थान रखता है। उत्तर प्रदेश से जो संकेत आएँगे, उसका सीधा असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 जुलाई को ही अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पहुँचकर 744 करोड़ योजनाओं का उद्घाटन करने के अलावा 889 करोड़ की परियोजनाओं की आधारशिला रख चुके हैं। कोरोना-काल से निपटने की उत्तर प्रदेश की तैयारियों को अभूतपूर्व बता चुके हैं। भाजपा ओबीसी जनाधार को लगातार अपने पाले में बनाये रखने में जुटी है। लेकिन ओमप्रकाश राजभर के समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ जाने के ऐलान से पूर्वांचल में सपा को फ़ायदा होने की उम्मीद जतायी जा सकती है। चुनाव से पहले जिन विधायकों को टिकट दिये जाने की सम्भावना है, उन पर इस बात का दबाव है कि वे अपना जनाधार बचाकर रखें। वहीं बाक़ी सम्भावित उम्मीदवारों को जनाधार मज़बूत करने का दबाव है। जिन्हें टिकट मिलने की उम्मीद है या जो इसकी कोशिश में लगे हैं, वो विरोधी उम्मीदवार के जनाधार में सेंधमारी की कोशिश में जुटे हैं।
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी लड़कियों को प्रदेश में पार्टी की सत्ता में आने पर स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी देने, महिलाओं को 40 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा करके प्रदेश की महिलाओं को लगातार लुभाने का प्रयास कर रही हैं। इस मुद्दे पर नयी बहस छिड़ गयी है। प्रदेश की सत्ता से वह 32 साल से बाहर है और दोबारा से वापसी के लिए प्रियंका गाँधी के इस फ़ैसले को बड़ा दाँव माना जा रहा है। प्रदेश में महिला मतदाता काफ़ी अहम हैं, जिन्हें प्रियंका गाँधी राजनीति में आने का ही नहीं, बल्कि टिकट का खुला प्रस्ताव दिया है, जिससे विपक्षी दलों के माथे पर चिन्ता की लकीरें दिखने लगी हैं।
2022 के विधानसभा चुनाव को प्रियंका गाँधी एक बड़े मौक़े के तौर पर देख रही हैं; क्योंकि उनके सामने पार्टी के लिए ज़मीन तैयार करना भी एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने महिलाओं पर दाँव लगाकर सत्ता का रास्ता तैयार करने की पूरी कोशिश की है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रियंका अपनी रणनीति में कितनी कामयाब हो पाती हैं? कांग्रेस महासचिव महिलाओं के भरोसे चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर चुकी हैं। वह नारी शक्ति के दम पर पार्टी का वर्चस्व बढ़ाना चाहती हैं। असल में प्रदेश में महिलाओं की आबादी क़रीब 11 करोड़ है, जिनमें से 6.74 फ़ीसदी महिला मतदाता हैं। इसलिए कांग्रेस ने 2022 की चुनावी जंग फ़तह करने के लिए किसानों के साथ-साथ महिलाओं को जोडऩे की रणनीति बनायी है। हालाँकि भाजपा समेत तमाम सियासी दल भी महिला मतों को अधिक-से-अधिक बटोरने के जतन कर रहे हैं। बिहार में पिछले साल ट्रंप कार्ड से एनडीए की सत्ता में वापसी हुई, जिसमें ख़ामोश (साइलेंट) मतदाता महिलाएँ ही साबित हुई थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस जीत का श्रेय भाजपा के इन्हीं ख़ामोश मतदाताओं को देते हुए बताया था कि ख़ामोश मतदाता कोई और नहीं, बल्कि महिलाएँ हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति भी इन्हीं ख़ामोश मतदाताओं पर आकर ठहर गयी है।
उत्तर प्रदेश में गठबन्धनों की बाढ़ आने वाली है, जैसे-जैसे गठबन्धन बढ़ेंगे, वैसे-वैसे सत्ता के समीकरण बदलेंगे। इस बार मुक़ाबला बहु कोणीय होने के साफ़ संकेत दिख रहे हैं। सपा और बसपा दोनों ने ही किसी बड़े दल से गठबन्धन न करने की घोषणा की है। नये खिलाड़ी के तौर पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी चुनाव मैदान में ज़ोर आजमाइश करेगी। असदुद्दीन ओवैसी की तेलंगाना की एआईएमआईएम भी बिहार की चुनावी सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में उम्मीदवार उतारने को तत्पर है। ओवैसी अब मुसलमानों के रहनुमा बनकर उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी ज़मीन तैयार करना चाहते हैं। देखना यह है कि अब मुसलमान किस मुद्दे पर, किस दल को मतदान करते हैं? कांग्रेस ने भी प्रियंका गाँधी के बूते अकेले लडऩे की रणनीति बनायी है। वहीं भागीदारी मोर्चा व अन्य कई छोटे दल हैं, जो गठबन्धन करके उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ता की मलाई चखना चाहते हैं।
अखिलेश यादव ने साफ़ संकेत दे दिये हैं कि वह छोटे दलों के साथ गठबन्धन करेंगे। सपा और सुभासपा में गठबन्धन हो गया है और ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव से हाथ मिला लिया है। पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राजभर ने योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था और भाजपा से अपना गठबन्धन तोड़ दिया था। भाजपा से उनकी गठबन्धन की कोशिश नाकाम रही। भाजपा ने गठबन्धन के मामले में नाराज़ सहयोगी अपना दल की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी को मना लिया है। चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और ओवैसी की एआईएमआईएम अभी गठबन्धन के फेर में हैं।
भाजपा अभी तक अपने विरोधियों पर भारी नज़र आ रही है। हालाँकि अखिलेश यादव ने भी अपने चुनावी अभियान की औपचारिक शुरुआत दशहरे से पहले कानपुर से विजय यात्रा के ज़रिये कर दी थी। चुनाव में भाजपा को टक्कर देने की हैसियत में सपा ही है। वैसे तो बसपा के पास भी उसका ठोस दलित बैंक है; लेकिन प्रचार अभियान के मामले में अभी वह ज़्यादा आक्रामक दिख नहीं रही है। मायावती ने अपनी ताक़त ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने में लगा रखी है। लेकिन बसपा की दुविधा यह है कि कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा से ज़्यादा हमलावर बसपा के प्रति नज़र आ रही है। साफ़ है कि बसपा को यह डर सता रहा है कि कहीं उनके वोट बैंक में प्रियंका गाँधी सेंध न लगा दें। भाजपा ने मुज़फ़्फ़रनगर के गुर्जर नेता वीरेंद्र सिंह को विधान परिषद् सदस्य (एमएलसी) बनाया है और अखिलेश गुर्जर समाज में सेंध के लिए ताक़त लगा रहे हैं। हर पार्टी जाति सम्मेलनों का सहारा ले रही हैं। यहाँ तक कि किसानों के मामले को भी मुद्दा बनाया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश की सरकार ने गन्ना किसानों की नाराज़गी को देखते हुए गन्ना ख़रीद मूल्य में मामूली बढ़ोतरी का ऐलान किया है; लेकिन गन्ना किसान सन्तुष्ट नहीं लग रहे। किसानों में सरकार को लेकर जो ग़ुस्सा है, जिसका असर मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और आगरा मंडलों में कम-से-कम सवा सौ विधानसभा सीटों पर ज़रूर पड़ेगा। ग्रामीण इलाक़ों में भाजपा नेता जाने से डर रहे हैं। लखीमपुर कांड ने और अब आगरा के सफ़ार्इ कर्मचारी की हत्याकांड ने विरोधियों को योगी सरकार पर हमला करने के लिए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। मेघालय के राज्यपाल, सत्यपाल मलिक जो उत्तर प्रदेश के बाग़पत के रहने वाले हैं, उन्होंने केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों को लगातार आगाह किया है कि यदि किसानों की नाराज़गी दूर नहीं की, तो उन्हें चुनाव में भारी नुक़सान उठाना पड़ेगा।
भाजपा ने पूर्वांचल में पूरा दमख़म लगा दिया है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के रूप में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल को एक बड़ी सौगात दी। पूर्वांचल पर सौगातों की बारिश होने के पीछे 28 ज़िलों की 33 फ़ीसदी यानी 164 सीटों का चुनावी गणित है। पूर्वांचल का इतिहास भी रहा है कि वह एक बार जिसे चुनता है, पाँच साल बाद उसे ख़ारिज कर देता है। इसीलिए भाजपा चिन्तित है और पूर्वांचल जीतने के लिए चीज़ें दुरुस्त करने की कोशिश में लगी है। प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ रैलियाँ कर रहे हैं। कुशीनगर में जब प्रधानमंत्री मोदी ने इशारों में निशाना साधा, तो उनके निशाने पर थे- अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी। प्रधानमंत्री के पूरे कार्यक्रम पर सपा की नज़र रही। वाल्मीकि जयंती पर बधाई देने के बाद अखिलेश यादव ने भी ट्वीट करके भाजपा पर भड़ास निकाली और कुशीनगर के शिलान्यास की ईंटों को अपनी व रनवे की ज़मीन को अपने द्वारा निर्मित बताते हुए भाजपा पर तंज कसा कि वह (प्रधानमंत्री) जिस प्लेन को पायलट बनकर उड़ा रहे हैं, वह उन्हीं का है और जहाँ वह उड़ान भर रहे हैं, वह ज़मीन भी उन्हीं के द्वारा निर्मित है। अखिलेश तो भाजपा पर हमलावर हैं ही, राहुल गाँधी भी मोदी सरकार पर हमलावर हैं। वहीं भाजपा पूर्वांचल का क़िला फ़तह करने के लिए अपना जातीय गणित बनाने में जुटी है। वह दल जातीय समीकरण साधने के लिए सामाजिक सम्मेलन कर रही है। योगी भगवान राम पर भी सियासत कर रहे हैं।
कुशीनगर गोरखपुर से महज़ 50 किलोमीटर दूर है। यह मोदी की संसदीय क्षेत्र वाराणसी से भी ज़्यादा दूर नहीं है। सन् 2017 के चुनाव में भाजपा ने पूर्वांचल में 164 में से 115 सीटें जीती थीं, जबकि सपा को 17, बसपा को 14 और कांग्रेस को सिर्फ़ दो सीटें मिली थीं। 16 सीटें अन्य के खाते में गयी थीं। उत्तर प्रदेश में बारिश और बाढ़ ने त्राहिमाम मचा रखा है। फ़सलें डूब गयी हैं और आर्थिक पहिये बहुत धीमी गति से या कहें कि घिसटकर चल रहे हैं। लेकिन सियासत में उम्मीदों की फ़सलें लहलहा रही हैं और वादों की गाड़ी ख़ूब तेज़ दौड़ रही है। कुल मिलाकर अबकी बार बहुकोणीय मुक़ाबले में कई कोण बनते नज़र आ रहे हैं। लेकिन यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश में जन-निर्णय का ऊँट किस करवट बैठेगा?