उत्तर प्रदेश की सियासत को हासिल करने के लिए कोई भी राजनीतिक दल नागरिकों के लिए कितने ही बड़े-बड़े दावे क्यों न कर लें। लेकिन चुनाव आते–आते पूरी राजनीति हिंदू-मुसलमान जातीय धुव्रीकरण के बीच फंस कर रह जाती है। चुनाव में महंगाई, बेरोजगारी और विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे गौड़ हो जायेगें। जिसका नतीजा यह हो जाता है कि पूरी राजनीति धुव्रीकरण पर ही निर्भर दिखने लगती है।
उत्तर प्रदेश के सियासत के जानकारों का कहना है कि, मौजूदा समय में प्रदेश में जिस तरह एक दल धार्मिक कार्यो पर जोर दें रहा है। तो, वही अन्य दल इस बात को लेकर उलझन में है कि वे भाजपा कि इस रणनीति की क्या काट निकाले।
चुनाव की तिथि की सुगबुगाहट की चर्चा उत्तर प्रदेश की दिल्ली में सुनाई दें रही है। तमाम तरह के कयास लगाये जा रहे है। कि जनवरी के पहले या दूसरे सप्ताह में चुनाव तिथि की घोषणा कर दी जायेगी। कुल मिलाकर चुनाव को लेकर राजनीतिक दल कमर कस चुके है। चुनावी बिसात में भाजपा को छोड़ अन्य विपक्षी राजनीतिक दल इस बार महंगाई, बेरोजगारी और किसान आंदोलन में मारे गये किसानों जैसे गंभीर मुद्दों के साथ सरकार को घेर सकते है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार शैलेन्द्र कुमार का कहना है कि, उत्तर प्रदेश की राजनाति में सबसे अहम् भूमिका पिछड़ा वर्ग निभाता है। क्योंकि वह प्रदेश में लगभग 54 प्रतिशत है। पिछड़े के सहारे अगड़ा और दलित वर्ग भी राजनीति करता रहा है।
बताते चलें, उत्तर प्रदेश में भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा यह चार राजनीतिक दल मुख्य रूप से चुनाव मैदान में उतरेंगे। इस बार प्रदेश की सियासत में जिस तरह से छोटे दलों के साथ तालमेल बैठाया जा रहा है। वो पिछड़े वर्ग के मतदाता को अपने–अपने पक्ष में करने के लिये है।
शैलेन्द्र कुमार का कहना है कि, सपा पार्टी तो पिछड़े वर्ग की रहनुमा रही है। इस बार भाजपा भी जिस प्रकार पिछड़ो को साधने के लिए पार्टी पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे कर रही है। ताकि पिछड़ा वर्ग का मतदाता भाजपा के साथ ही रहे। जबकि कांग्रेस और बसपा अपने तरीके से सभी वर्ग के लोगों को साथ लेकर चलने की राजनीति कर रही है