कुछ समय से झारखंड के गढ़वा जिले की पहचान माओवादियों के गढ़ के रूप में बन गई है. इस नई पहचान के खेल में एक पुरानी समस्या इस कदर हाशिये पर चली गई है कि उसकी वजह से हजारों लोगों की घुटन भरी जिंदगी पर कभी बात ही नहीं हुई. अब, जब इतने वर्षों बाद सरकार को उस मसले की याद भी आई है तो यह किसी पुराने घाव को कुरेदने जैसा ही है. वर्षों पहले की यह समस्या गढ़वा जिले के घोर नक्सल प्रभावित इलाके भंडरिया की है. यहां कोयल नदी पर 1969 में मंडल बांध बनाने की घोषणा हुई थी. कहा गया कि सिंचाई के लिए तरस रहे किसानों को पानी मिलेगा और बिजली भी. लोग मान गए. जमीन अधिग्रहण का काम शुरू हुआ. लेकिन 1974-75 में जब मुआवजे की बात आई तो कुछ को मुआवजा देने के बाद बाकी लोगों को आश्वासन का झुनझुना थमाकर बांध निर्माण का काम शुरू कर दिया गया. काम शुरू होते ही यह भी कह दिया गया कि आस-पास के 32 गांवों के लोग अपने अपने घर-बार को छोड़ दें वरना वे कभी भी डूब के प्रभाव में आ सकते हैं.
हुआ भी ऐसा ही. 1986 में बांध लगभग बनकर तैयार हो गया था. अब इसमें पानी को रोकने वाले दरवाजे लगना बाकी था. लेकिन मामला लंबे समय तक लटका ही रहा. इसके एक दशक बाद अगस्त, 1997 को भीषण बाढ़ आ गई. आसपास के कई गांवों के लोग, घर-बार, माल-मवेशी बाढ़ में बह गए. इसके बाद माओवादियों ने पुल निर्माण में लगे अधीक्षण अभियंता बैजनाथ मिश्र की हत्या कर दी. फिर 15 साल से अधिक समय तक बांध निर्माण का काम बंद रहा. इस दौरान जो 32 गांव डूब क्षेत्र में आए थे, वहां जिंदगी बद से बदतर होती गई. आज भी वहां जाने के लिए 16-17 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. 1,100 से अधिक परिवार इस तबाही के दायरे में आते हैं, लेकिन इतने परिवारों के लिए एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय की सुविधा छोड़ दें तो आज तक कुछ भी मयस्सर नहीं हो सका है. यहां तक कि इन गांवों को बगैर मुआवजे के राजस्व गांव की सूची से भी हटा दिया गया. इनमें चेमोसन्या भी है, जो झारखंड के महान शहीद नीलांबर पितांबर का गांव है.
इलाके के रामनाथ बताते हैं कि पुनर्वास न होने से सभी लोग फिर से वहीं बस गए जहां से बाढ़ ने उजाड़ा था. एक और स्थानीय निवासी उमेश कहते हैं कि 2003 में सरकार ने कहा था कि पूरी सुरक्षा के साथ जमीन व मकान मिलेगा. इस पर भरोसा करके वे अपने गांव कुटकू से भंडरिया आ गए. मेहनत करके सिर छिपाने के लिए एक छप्पर खड़ा किया. मगर स्थानीय उपद्रवी तत्वों ने उसे आग के हवाले कर दिया. उमेश कहते हैं, ‘जब हमने कहा कि जमीन सरकार ने हमें दी है, हमसे जमीन के पट्टों के कागजात दिखाने को कहा गया. पर हमें तो सरकार ने ये दिए ही नहीं थे. फिर हम कैसे दिखाते. थक-हार कर हम वापस अपनी जगह पर आ गए.’
मंडल बांध की ऊंचाई 64.82 मीटर तय है. इससे 12 मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है. अब एक बार फिर से सरकार इस बांध को पूरा करके बिजली उत्पादन का काम शीघ्र शुरू करने की तैयारी में है. लेकिन पहले से ही उजड़े लोगों की जिंदगी का मसला हाशिये पर है. सरकार की ओर से यह कहा जाता है कि यहां 5,000 से अधिक लोग अवैध तरीके से बस गए हैं, उनका कुछ नहीं किया जा सकता और ग्रामीणों का जो आंदोलन चल रहा है वह माओवादियों द्वारा संचालित है.
कुटकू जन संघर्ष समिति से जुड़े जगत सिंह बताते हैं कि 23 जुलाई को गांववालों की बैठक हो चुकी है और उसमें तय हुआ है कि न तो मुआवजा लिया जाएगा और न ही बांध बनने दिया जाएगा. वे कहते हैं, ‘पहले हम बाढ़ से हुई क्षतिपूर्ति के लिए संघर्ष करेंगे.’ हालांकि ग्रामीणों को इस बात का डर है कि संघर्ष की धार को कुंद करने के लिए लोगों को जबरदस्ती किसी न किसी बहानेसे माओेवादी या मुखबिर न करार दे दिया जाए. इस मसले पर एसडीओ एम मुत्थुरमन कहते हैं कि सरकार को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. वे हकीकत का पता लगाने की कोशिश करने की बात कहते हैं और यह भी कि जो लोग बेमतलब का आंदोलन करेंगे उनके खिलाफ कार्रवाई होगी.
ग्रामीण बताते हैं कि 1986 में सरकार ने बाढ़ प्रभावितों को मुआवजा देने की शुरुआत भी की लेकिन जो चेक मिले उनमें सरकारी नाजिर के दस्तखत ही नहीं थे. अब सरकार बैंक खाता होने पर ही मुआवजा देने की बात कर रही है. कुटकू बचाओ संघर्ष समिति की पुष्पा कुजूर कहती हैं, ‘हमारी जमीन उपजाऊ है. सरकार हमें खेती करने दे और बाजार तक पहुंचने का साधन उपलब्ध कराए तो हम अभिशप्त पलामू के लिए वरदान साबित होंगे.’ जगत सिंह कहते हैं, ‘कानून कहता है कि जिस उद्देश्य के लिए जमीन अधिगृहीत होती है वह अगर 25 वर्षों तक पूरा न हो तो जमीन मूल मालिकों को लौटा देनी चाहिए और गांवों को फिर से राजस्व गांव घोषित करना चाहिए. यहां तो यह काम 40 साल बाद भी अधूरा है. फिर भी न तो हमें जमीन मिली है, न उचित मुआवजा और न ही हमारे गांव राजस्व ग्राम घोषित हुए हैं.