ऐ भैया। पहिले ओनका गंगा मैया बुलौले रहलीं। अबहीं ओंलें तो कहिलें, हमने बाबा विश्वनाथ को मुक्त कर दिया है अब वे सांस ले सकते हैं।’ त भैय्या अब त ऊ विश्वनाथ कारिडोर और गंगा व्यू बनवत हौउएं। ओनकर गंगा मैय्या और बाबा विश्वनाथ से सोझा ‘डायलॉग’ बा। उतो अब बाबा के दरबार के आसपास एतना खुला करा देहले कि अब ऊहां सब आपन बरधा (गाय-बैल) रह वहीं बांध सकैंलें। (यानी सरकारी गौशाला)।
वाराणसी या कहें बनारस बड़ा ही अनोखा और मस्त शहर है। इसी महीने के आखिरी सप्ताह में प्रधानमंत्री आए थे। इसकी मशहूर तंग गलियों में कई मशहूर गलियों जरूर योगी-मोदी ने विश्वनाथ कारीडोर और गंगा व्यू के नाम पर खदान बना दी। अब बाबा विश्वनाथ और गंगा का दर्शन करने जो भी तीर्थयात्री आ रहे हैं वे भी बाबा की नष्ट नगरी देख कर दुखी मन से लौट रहे हैं। अब चुनाव होने हैं। धुंधाधार प्रचार हो रहा है। लेकिन बाबा का दरबार सूना है। लगता है यहां कभी ऐसा था जो उनका अपना था। अब वह नहीं है।
जब भी गोद लिया पर आप नाम दूध बेचने वाले की दुकान पर चुनाव के बारे में पूछिए। आप सुनेंगे, ‘बाबा ताइहेें ओ चाहे, गंगा मैया। हम का बताईं। हमरे कान में जब फूंक पड़ी तो जाके वोट दे आइब।’ इतने उदास सुर पर यदि पूछें कि ‘मुकाबला में यदि कांग्रेस से प्रियंका उतर जाएं तब?’ दूध औबते हुए रामबली कहते हैं कि देखा। उहौ आइल रहलीं। ‘बनारस मेें एक जमाना रहल जब राज्य में एकर मुख्यमंत्री रहलें। तब कांग्रेस का जमाना रहल। अब प्रियंका तिनका-तिनका जोड़त हुई। देखा, बाबा का मरजी का वा?’
बनारस में कांग्रेसियों की एक जमात चाहती है कि प्रियंका जी पर पूरब का रंग चढ़ जाए। वे चुनाव लड़ लें। सभी पाटियां उन्हें समर्थन दें। वहीं कुछ पुराने कांग्रेसी-समाजवादी-भाजपाई चाहते हैं कि वे चुनाव न लड़ें। नहीं तो अरविंद केजरीवाल की तरह हाल होगा। वे तो मुख्यमंत्री हैं। लेकिन प्रियंका का राजनीतिक कैरियर शुरू होने से पहले खत्म हो जाएगा।
खुद प्रियंका गंगा के शुरूआती यात्रा में लोगों से मिल बात करके बखूबी समझ गई हैं कि पूर्वांचल की इन शहरी-देहाती बस्तियों में धर्म-कर्म, मंदिर-मस्जिद के नाम पर पिछले पांच वर्ष में कहीं कुछ नहीं हुआ। साथ ही सपा, बसपा, भाजपा सरकारों ने अपने कुछ सौ लोगों का ही विकास किया।
कांग्रेस की सरकार के समय यहां कम से कम शिक्षा संस्कृति लघु व्यापार-दस्तकारी का माहौल था जिसे चौपट कर दिया गया। आज तो बाबा के दरबार में पहुंचना साधारण जन के लिए तो और भी कठिन हो गया है। अच्छा यही है कि शास्त्रों के अनुसार अपने मन मंदिर में ही बाबा को याद कर पूजा-अर्चना कर लें। गंगा भी लगातार सूख रही हैं। गंदगी का आज भी बहाव है। हालांकि विज्ञापनों में गंगा की रक्षा सफाई आदि की मनोहरी तस्वीरें हैं।
बनारस से प्रियंका चुनाव लड़ेंगी या नहीं, यह उनका परिवार और कांग्रेस पार्टी तय नहीं कर सकी है। लेकिन बनारस संसदीय क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि वे चुनाव में उतरें। बनारस संसदीय क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि वे चुनाव में उतरें। बनारस पहले की तरह फिर शैक्षणिक सांस्कृतिक और हस्तशिल्प का केंद्र बने। इसका अपना अल्हड़पन, बनारसीपन और मस्ती वैसी ही रहे जैसी आज़ादी के दिन से 70 के दशक तक थी। बीती हुई यादें अब वास्ताविकता में भले न आएं लेकिन एक नामी प्राचीन शहर जो आज प्राचीनता बनाए रखने और सुंदरकरण के नाम पर खंडहर में तब्दील कर दिया गया वह तो थमे। उसे जस का तस ही सही आज बचाए रखना ज़रूरी है। बनारस के लोग अब अच्छी तरह समझ गए है कि हिंदुत्व क्या है और उससे कैसे बचें।
वह दिन था आठ मार्च। यही था वह दिन। प्रधानमंंत्री ने काशी में आकर बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का ऐलान यही मंच से किया था। आज भी यहां पुलिस के जवान मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहे हैं।
बाबा की ‘मुक्ति पर्व’ के एक माह बाद यानी सात अप्रैल को इच्छा हुई ‘मुक्तिधाम’ की कुछ तस्वीरें उतार लें। मेरे साथ छायाकार संतोषकुमार पांडेय भी थे। शाम छह बजे हम पहुंचे। अंधेरा जल्दी न हो। कुछ अच्छी फोटो भी हो जाए।
दशाश्वमेध गली से हम ‘मुक्तिधाम’ को बढ़े। वहां घुसने के लिए सरस्वती फाटक गली अब पैक कर दी गई है। आना-जाना संभव नहीं। हमने पार्क की राह से जाने की कोशिश की। इस रास्ते पर लोहे का चैनेल गेट है। हालांकि पांच-छह फूट का एक रास्ता श्रद्धालु यात्रियों के लिए अभी खुला है।
अब इलाके में बाउंसर खूब हैं। हमने गेट की तस्वीर लेनी चाही कि बाउंसर साहिब अपना मुसुक बल्ला चमकाते पास आ गए। कहने लगे, फोटो खींचने की मनाही है। हालांकि वे यह नहंी बता सके कि यह हुक्मनामा किसकी ओर से है। यही है वह ‘मुक्तिधाम’ परिसर जहां से प्रधानमंत्री ने बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का ऐलान किया था। इस ऐतिहासिक स्थल की सुरक्षा में वहां आज भी पुलिस के जवान तैनात हैं।
इसके ठीक सामने 50 मीटर दूर ही है चद्रगुप्त महादेव मंदिर। इसे चंद्रगुप्त ने बनवाया था। इसकी सूचना वहां लगी पट्टिका से मिलती है। लगा मानो अपनी ऐतिहासिकता बता कर यह मंदिर काशी वासियों को चिढ़ा रहा है। मंदिर में रंगबिरंगी लाइट सजी है। लेकिन मंदिर के आसपास ध्वस्त किए गए घरों-गलियों के मलबे का ढेर जमा हैं।
चंद्रगुप्त महादेव मंदिर के ठीक सामने नीलकंठ महादेव है। आज वे ज़मीन से 25-30 फुट नीचे हैं। पहले तो वे मलबे में ही विलीन हो गए थे। लेकिन जब मीडिया में गलती से खुसर फुसर हुई तो मलबे के ऊपर ही टीन शेड लगा कर वैरिकेंडिग कर दी गई। कम से कम तब नीलकंठ महादेव को सांस लेने में दिक्कत तो नहीं होगी। कहते हैं जब काशी की स्थापना हुई थी, तब से ही नीलकंठ महादेव। लेकिन काशी की स्थापना कब हुई थी? मतभेद तो विद्वानों में है।
मलिन बस्ती के घरों को ध्वस्त करने के बाद उसका मलबा ‘मुक्तिधाम’ में ही सुरक्षित रखा गया है। शायद दलित बस्ती के अवशेष में भविष्य की तलाश का आदेश आ जाए। पहले की प्राचीन संस्कृति की ललिता गली और लाहौरी टोला चौराहा तो ‘मुक्तिधाम’ में विलीन हो गए। अनुमान लगाते रहिए कहां थी ललिता गली और कहां था लाहौरी टोला।
जैसे हम ‘मुक्तिधाम’ में टहल रहे थे। उसी समय दक्षिण भारत से आए 50-60 दक्षिण भारतीय श्रद्धालु वहां घूमते हुए। वह ललिता गली तलाश रहे थे जिससे वे सुरक्षित पहुंंच सकें गंगा किनारे। लेकिन वे जाएं तो किधर से जाएं। न कहीं गाइड और न बोर्ड। ललिता गली में पीपल के पेड़ के पास लगभग दस-पंद्रह फुट मलबा पड़ा है। लेकिन यही वह रास्ता है जो ललिता घाट तक जाएगा। अब अंधेरा हो गया है लेकिन ये सब तीर्थ यात्री एक दूसरे का हाथ पकड़ धीरे-धीरे किसी तरह आगे बढ़ रहे थे। यह है मां गंगा के प्रति अनुराग।
अब इस ‘मुक्तिधाम’ में शाम को गंगा की लहरों से ठंडी पुरवैया हवा बहुत अच्छी आती है। अब तो धूप भी खूब है। पूरी दुनिया में कभी यहां की मशहूर संकरी-तंग गलियां जीवनशैली और संस्कृति के नाम की धूम थी। यह ज़रूर है कि तब यहां की हवा और धूप ठहर गई थी। जिसे भाजपा के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री वापस ला सकें। उन्होंने बाबा विश्वनाथ को अपनी मुक्ति का जश्न मनाने के लिए एक बहुत बड़ा कारिडोर का सपना नक्शे के रूप में दिया है जो कई चरणों में पूरा होगा कभी।
ऐतिहासिकता के लिए प्रसिद्ध रहे बनारस में आज गंगा में बढ़ता प्रदूषण और घटता जलस्तर गंगा के रूप को और कुरूप कर रहा है। वे पक्के घाट जो कभी किसी सरकार ने नहीं बल्कि देश के विभिन्न राजा-राजवाड़ों ने बनवाए जो आज भी टिके हैं। लेकिन उनकी सीढिय़ों पर अब नहीं आतीं गंगा। काशी के ऐतिहासिक मानमंदिर घाट पर सीढिय़ों के ऊपर है मानमंदिर महल। जयपुर के राजा जयसिंह के मानमंदिर महल में जंतर-मंतर का निर्माण कराया था। सदियों तक इसमें धूप और छाया के आधार पर समय, ग्रह-नक्षत्र और उनकी चाल का अध्ययन होता रहा। आज भी देशी विदेशी पर्यटक इसका अवलोकन करने आते हैं। इस पद्धति का निर्माण उन्होंने दिल्ली और जयपुर में भी कराया। लेकिन कौन करे, इनका रखरखाव।
आइए अब देखिए काशी में तुलसी घाट। कहते हैं तकरीबन पांच-छह सौ साल या कुछ और पहले संत तुलसी दास ने इसी घाट पर साधना की और मानस रचा। इस घाट का कोई पुरसाहाल नहीं है। इस घाट के बगल में ही है अस्सी घाट। जिसका खूब जि़क्र होता रहा है। खूब साफ-सफाई खुद प्रधानमंत्री कभी आकर कर गए। लेकिन अब हाल क्या है? इस घाट की सीढिय़ों को छोड़ती हुई गंगा मैया अब सौ मीटर आगे खिसक गई हैं। दोनों घाटों के बीच है गंगा घाट। उसकी भी यही दशा है।
एक ज़माना था जब तुलसी घाट पर लबालब गंगा जल लहर मारता था। अब वह थम गया तो इस घाटों पर चूहे, नेवले, जंगली बिल्ली, वनबिलाव, खेंखर आदि जंतुओं ने अपनी खोह बनानी शुरू कर दी। उनके अपने घर का अलग ही सौंदर्यबोध है।
घाट के किनारे पत्थर के नीचे बने सुरंगनुमा खोह देख कर ऐसा ही लगता है। रात में जब लोग अपने घरों को लौट जाते हैं तो रात में शुरू होती है इन जंतुओं की चहल-पहल। तुलसीघाट पर सभी इस सुरंगनुमा गुफा के मुहाने पर भुरभुरी मिट्टी के ढेर से यही लगता है कि गंगा की बाढ़ में आई मिट्टी से अपने घर को बनाने का काम यहां शुरू है।