बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रोहित बी. देव का 4 अगस्त को भरी कोर्ट में इस्तीफ़ा देना स्तब्ध कर गया। न्यायमूर्ति रोहित बी. देव नागपुर पीठ में सेवारत थे। वह सन् 2016 में महाराष्ट्र के महाधिवक्ता थे और जून, 2017 में बॉम्बे उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति के पद पर नियुक्त हुए थे। न्यायमूर्ति रोहित बी. देव हमेशा अपने फ़ैसलों को लेकर सुर्ख़ियों में रहे। साल 2025 में उन्हें रिटायर होना था। लेकिन इससे दो साल पहले ही 4 अगस्त को उन्होंने कोर्ट की कार्रवाई के दौरान ही भरी कोर्ट में मौज़ूद लोगों और वकीलों से माफ़ी माँगते हुए इस्तीफ़ा देने का ऐलान करके सबको चौंका दिया।
न्यायमूर्ति रोहित बी. देव ने कहा कि ‘जो लोग अदालत में मौज़ूद हैं, मैं आप सभी से माफ़ी माँगता हूँ। मैंने आपको डाँटा, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि आप सुधर जाएँ। मैं आपमें से किसी को भी चोट नहीं पहुँचाना चाहता, क्योंकि आप सभी मेरे लिए परिवार की तरह हैं और मुझे खेद है। आपको बता दूँ कि मैंने अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया है। मैं अपने आत्मसम्मान के ख़िलाफ़ काम नहीं कर सकता। आप लोग कड़ी मेहनत करें। मैंने अपना इस्तीफ़ा भारत के राष्ट्रपति को भेज दिया है।’
चर्चा का विषय यह है कि न्यायमूर्ति रोहित बी. देव ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात कही कि वह अपने आत्मसम्मान के ख़िलाफ़ काम नहीं कर सकते। सवाल यह है कि इस देश में कितने न्यायाधीश ऐसे होंगे, जिन पर उनके आत्मसम्मान के ख़िलाफ़ काम करने का दबाव होगा? जो न्यायाधीश आत्मसम्मान बचाकर काम करना चाहते हैं, उनके आत्मसम्मान को कौन लोग ठेस पहुँचाना चाहते हैं? क्या न्यायाधीशों को भी किसी दबाव में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है? न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहली शर्त ही ईमानदारी, निष्पक्षता और स्वतंत्रता में निहित है। लेकिन क्या भारत में ऐसा हो पा रहा है कि देश की न्यायालयों में नियुक्त न्यायाधीश निष्पक्ष रूप से स्वतंत्र होकर काम कर पा रहे हों? इसके लिए हमें कुछ और न्यायाधीशों के मामलों पर भी गौर करना होगा।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2017 से 4 अगस्त, 2023 तक 12 न्यायाधीशों ने रिटायर होने से पहले ही इस्तीफ़ा दिया है। न्यायाधीशों के इस्तीफ़ा देने के सबसे ज़्यादा मामले बॉम्बे उच्च न्यायालय के हैं। सन् 2017 में न्यायमूर्ति जयंत पाटिल ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसकी मुख्य वजह यह थी कि वरिष्ठता के हिसाब उन्हें कर्नाटक उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति या कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति बनाया जाना था; लेकिन उनका इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया गया। सन् 2018 में हैदराबाद उच्च न्यायालय में स्थायी न्यायाधीश बनाये जाने के एक साल बाद ही इस्तीफ़ा दे दिया था। हालाँकि इस्तीफ़ा राष्ट्रपति द्वारा स्वीकार किये जाने से पहले ही उन्होंने इसे वापस ले लिया और राष्ट्रपति ने उसे वापस भी कर दिया।
इसके बाद न्यायमूर्ति नक्का बालयोगी ने रिटायर होने (जनवरी 2019) तक सेवाएँ दीं। सन् 2019 में न्यायमूर्ति ताहिलरमानी ने इस्तीफ़ा दिया। सन् 2018 में उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। इस पदोन्नति और ट्रांसफर के 11 महीने के भीतर भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई के कार्यकाल में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने उन्हें मेघालय उच्च न्यायालय में ट्रांसफर करने की सिफ़ारिश की। उन्होंने कॉलेजियम से अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने की उनकी अपील की, जिसे अनसुना कर दिया गया। ताहिलरमानी अनियमितताओं को लेकर भी विवादों में रहे। आख़िर उन्होंने भी इस्तीफ़ा दिया। सन् 2020 में न्यायमूर्ति अनंत बी. सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया। न्यायमूर्ति अनंत बी. सिंह उस समय झारखण्ड उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति थे। सन् 2020 में ही बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.सी. धर्माधिकारी ने खुली कोर्ट में इस्तीफ़ा देने की घोषणा की। वह बॉम्बे उच्च न्यायालय में दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायमूर्ति थे। उन्हें दूसरे उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायमूर्ति के बनाने का प्रस्ताव था; लेकिन वह बॉम्बे उच्च न्यायालय छोडऩे के तैयार नहीं थे और इस्तीफ़ा दे दिया था।
सन् 2020 में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति संगीता ढींगरा सहगल ने अपने रिटायरमेंट से एक महीने पहले इस्तीफ़ा देकर सबको चौंका दिया था। हालाँकि उनके इस्तीफ़े के बाद उन्हें दिल्ली राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। सन् 2021 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुनील कुमार अवस्थी ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसके दो महीने के अंदर सन् 2021 में ही छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शरद कुमार गुप्ता ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। इसके ठीक पाँच महीने के अंदर बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति दामा शेषाद्रि नायडू ने इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफ़े में निजी वजह बतायी। सन् 2022 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अजय तिवारी ने रिटायरमेंट से कुछ दिन पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया। न्यायमूर्ति अजय तिवारी पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में दूसरे वरिष्ठ न्यायमूर्ति थे। इसके आठ महीने बाद हिमाचल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्र भूषण बारोवालिया ने इस्तीफ़ा दे दिया। सन् 2022 में ही बॉम्बे उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसके अलावा अतिरिक्त न्यायमूर्ति आशुतोष कुंभकोनी, अतिरिक्त न्यायमूर्ति अनिल साखरे और अतिरिक्त न्यायमूर्ति गिरीश गोडबोले ने भी रिटायरमेंट से पहले इस्तीफ़ा दिया था और अब बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रोहित बी. देव ने इस्तीफ़ा दिया है।
जजों के इस्तीफ़े कभी सरकारों से टकराव के चलते होते रहे हैं, तो कभी सर्वोच्च न्यायालय के टकराव से, तो कभी फ़ैसले को लेकर किसी दबाव के चलते। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद साल 2017 से न्यायाधीशों के इस्तीफों में तेज़ी आयी है। सन् 2017 से हर साल औसतन दो न्यायाधीशों ने इस्तीफ़ा दिया है। हालाँकि सरकार और कोर्ट के बीच टकराव, दबाव या अन्य वजहों से न्यायाधीशों का इस्तीफ़ा देना कोई नयी बात नहीं है।
कांग्रेस के समय में भी न्यायाधीशों ने इस्तीफ़े दिये हैं; लेकिन इस बड़े रिकॉर्ड से कम। कांग्रेस के केंद्र में कार्यकाल के दौरान सन् 1985 में भारत के मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती तो एक बार अपने इस्तीफ़े पर अड़ गये थे। इसकी वजह यह थी कि कांग्रेस सरकार न्यायमूर्ति नारायण को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाना चाहती थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती यह नहीं चाहते थे। हालाँकि बाद में सरकार को हार माननी पड़ी। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने सरकार के पास दूसरे तीन उच्च न्यायालय के तीन मुख्य न्यायमूर्ति के नाम भेजे, जिस पर सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया था। सन् 1986 ख़त्म होने से पहले मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती के रिटायर होने पर न्यायमूर्ति आर.एस. पाठक को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। लेकिन मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद उनसे भी सरकार का न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार से टकराव बना रहा।
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के अलावा सन् 2022 में मध्य प्रदेश की एक महिला अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश ने इस्तीफ़ा दे दिया था। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने उनका इस्तीफ़ा अस्वीकार कर दिया था। महिला अतिरिक्त न्यायाधीश ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश के ख़िलाफ़ यौन उत्पीडऩ के आरोप लगाये थे। अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश ने अपने इस्तीफ़े में नक्सल प्रभावित इलाक़े में ट्रांसफर किये जाने और अपनी बेटी से दूरी होने का भी ज़िक्र किया था। जजों के इस्तीफ़े के ज़्यादातर मामले बॉम्बे उच्च न्यायालय के हैं। इन इस्तीफ़ों की वजह चाहे जो रही हो; लेकिन न्यायाधीशों की कमी के दौर में उनके इतनी बड़ी संख्या में इस्तीफ़े देना चिन्ता का विषय है। सवाल यह है कि क्या इस तरह न्यायाधीशों के इस्तीफ़े स्वैच्छिक हो सकते हैं? जैसा कि कई न्यायाधीशों ने यही कहकर इस्तीफ़ा दिया है। महिला ज़िला न्यायाधीश मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि उनके इस्तीफ़े को स्वैच्छिक नहीं माना जा सकता। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सरकारें और ता$कतवर लोग अपने पक्ष में फ़ैसले चाहते हैं, जिसके आधार पर उनके साथ बर्ताव होने की बातें भी सामने आती रहती हैं। कुछ पूर्व न्यायाधीशों को सरकार के मुताबिक काम करने का इनाम उनकी संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के रूप में मिला है, जिसका एक उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं।
लोग यही मानते हैं कि न्यायाधीश का मतलब न्याय का देवता होता है और इसी सोच के साथ लोग अपने साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाते हैं। ऐसे में न्यायाधीशों को किसी के दबाव में न आकर इस बात का ख़याल करना चाहिए कि उनकी नियुक्ति ही न्याय करने के लिए हुई है। हालाँकि न्यायाधीश भी समाज का ही एक हिस्सा हैं। उनका भी परिवार होता है। लेकिन न्यायाधीशों का इस्तीफ़ा या डर आपराधिक सोच वाले लोगों और राजनीतिक ता$कत का $गलत इस्तेमाल करने वालों का हौसला बढ़ाता है। ऐसा नहीं है कि न्यायाधीशों के फ़ैसलों में कोई कमी होती है; लेकिन अगर उन पर राजनीतिक दबाव या किसी अपराधी का दबाव हो, तो उन्हें अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए उन पर दबाव देने वालों के नामों को सार्वजनिक करते हुए अपनी सुरक्षा की माँग रखनी चाहिए। हो सकता है कि इससे न्याय और न्यायाधीशों के प्रति लोगों की आस्था और मज़बूत हो और वे न्यायाधीशों के पक्ष में खड़े हो सकें। इससे उन लोगों का हौसला भी पस्त होगा, जो अपनी मर्ज़ी से फ़ैसला कराने का दबाव कोर्ट पर बनाते हैं।