संतकबीरदास जी मज़हबी दीवारों को नहीं मानते थे। उनका कहना था कि ईश्वर एक है। वे निर्गुण भक्ति के वाहक थे। संत कबीरदास राम के भक्त थे। लेकिन उनके राम दशरथ पुत्र राम नहीं थे, उनके राम निर्गुण परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो एक ही हैं। वे न तो मंदिर में पूजा के समर्थक थे और न मस्जिद में इबादत के हामी, और न ही किसी अन्य मज़हब के कायल थे। उनका मानना था कि ईश्वर एक है; उसके न तो अनेक रूप हैं और न ही वह साकार है। इसी के चलते संत कबीरदास पर कई बार हमले भी हुए। उनका सिर भी फूटा, पर उन्होंने शाश्वत् सत्य को नहीं छोड़ा और इस तथ्य पर अंतिम साँस तक कायम रहे कि ईश्वर एक है और मज़हब की उलझनें बेकार का पागलपन हैं। संत कबीर ने परमात्मा को आत्मा का पति, स्वामी और इकलौता मालिक माना है। वे आत्मा से सीधे परमात्मा का रिश्ता कायम करते हैं। वे मानते हैं कि परमात्मा और आत्मा का मिलन तभी सम्भव है, जब शरीर यानी मैं को बीच से हटा दिया जाए। वे कहते हैं कि ईश्वर को पाने के लिए उसकी भक्ति में शरीर के सुखों को भूलकर डूब जाना पड़ता है। कबीरदास कहते हैं कि ईश्वर को जिसने जल रूपी गहरी भक्ति में डूबकर खोजा है, उसी ने पाया है। वे लोग उसे कैसे पा सकते हैं, जो किनारे पर बैठे हुए हैं।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
यहाँ गहरे जल से मतलब अत्यधिक कष्ट से गुज़रने से भी है और भक्ति में डूब जाने से भी है। सभी जानते हैं कि जल में डूबने से क्या होता है? जल में डूबना यानी जान की बाज़ी लगाकर भी ईश्वर को पाने की कोशिश करना। किनारे पर बैठना यानी छिछली भक्ति करना। कबीरदास कहते हैं कि ऐसी छिछली भक्ति से ईश्वर नहीं मिलता।
वह यह भी कहते हैं कि एक मनुष्य का जन्म ही है, जिसमें उसे ईश्वर को पाने का मौका मिलता है। और यह जन्म बार-बार नहीं मिलता।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
अर्थात् मनुष्य का जन्म न तो आसानी से मिलता है और न ही बार-बार मिलता है। जिस तरह से वृक्ष से पत्ते टूटकर गिरने के बाद दोबारा नहीं जुड़ते, वैसे ही मनुष्य को बार-बार जन्म नहीं मिलता। संत कबीर के कहने का मतलब यह है कि ईश्वर को इसी जन्म में समझने की आवश्यकता है, यह मौका फिर नहीं मिलेगा।
इतना ही नहीं, कबीरदास की किसी से भी दुश्मनी नहीं थी, वो सभी लोगों को एक ही नज़र से देखते थे और समझाते भी थे कि परमात्मा एक ही है।
कबिरा खड़ा बज़ार में, माँगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
वे कहते हैं कि कबीर संसार रूपी बाज़ार में खड़ा होकर सबकी भलाई की दुआ माँग रहा है। उसकी न तो किसी से दोस्ती है और न ही किसी से दुश्मनी। इसका मतलब यह भी है कि कबीर परमात्मा से सबके लिए सद्बुद्धि की दुआ माँग रहे हैं।
इसी तरह वे परमात्मा के मज़हबों के अनुसार बँटवारे को लेकर तंज़ कसते हैं। वे सभी मज़हबों के ठेकेदारों और समर्थकों की फटकार लगाते हैं। वे कहते हैं-
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लडि़-लडि़ मुए, मरम न कोउ जाना।
यानी हिन्दू कहते हैं हमें राम प्यारे हैं और मुस्लिम कहते हैं कि हमें रहमान प्यारे हैं। दोनों ही एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम रखकर उसके नाम पर झगडक़र मरे जा रहे हैं, लेकिन कोई नहीं जान पाया कि वास्तव में परमात्मा कौन है और उसका असली स्वरूप क्या है?
इसी तरह माला फेरने यानी माला जपने का चलन कई मज़हबों में है। कबीरदास जी कहते हैं कि लोग माला फेरते हैं, लेकिन उनके मन में छल-कपट रहता है। मन का फेर माला फेरने पर भी नहीं जाता। ऐसी भक्ति से क्या फायदा?
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थात् माला फेरने से भी मन का फेर नहीं जा रहा है। आदमी हर समय 99 के चक्कर में पड़ा रहता है। ऐसी माला फेरने से कोई फायदा नहीं। इसलिए, हे मनुष्य तू जो हाथ से माला के मनके (दाने) फेर रहा है, उन्हें फेंक दे। मन के मनकों (ईश्वर के नाम रूपी दानों) की माला जप।
संत कबीर कहते हैं कि यह शरीर जिसके लिए तू इतने छल-प्रपंच कर रहा है, उसे छोड़ दे। क्योंकि जिस दिन शरीर रूपी घड़ा फूटा, उस दिन परमात्मा रूपी जल और आत्मा रूप जल एक हो जाएँगे। वे कहते हैं-
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ गयानी॥
संत कबीर का कहना है कि यह मैं अकेला नहीं कह रहा हूँ। संतों और ज्ञानियों ने भी कहा है।
यह भारत का दुर्भाग्य है कि आज यहाँ के लोग मज़हब और जातियों के नाम पर लड़ रहे हैं। एक-दूसरे का खून बहाने को तैयार हैं। वह भी तब, जब भारत सदियों से ऋषियों, संतों और मोहब्बत तथा इंसानियत के पैरोकारों का देश रहा है। इससे भी दुर्भाग्य की बात यह है कि इस देश के षड्यंत्रकारियों ने मानवता के पुजारियों पर सदैव अत्याचार किये हैं। कल भी यही हुआ और आज भी यही हो रहा है। जैसा कि मैंने शुरू में ज़िक्र किया कि कबीरदास पर कई बार हमले भी हुए। संत कबीर जब अंतिम साँसें गिन रहे थे, तब उनकी झोंपड़ी के बाहर इकट्ठे लोग उनका मज़हब तय करने के नाम पर लड़ रहे थे। कबीरदास के पुत्र कमाल जब लोगों को समझाने के लिए उठे, तो कबीरदास जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा कि जिन मूर्खों को मैं ज़िन्दगी भर समझाता रहा, उन्हें अब समझाने का कोई फायदा नहीं।