इजराइल व हमास में संघर्ष थमा, लेकिन दुश्मनी बरक़रार
भारतीय बयान बेहद सधा हुआ और देशहित में
निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर काम करें ओआईसी के सदस्य देश
यरुशलम स्थित अल-अक्सा मस्जिद से शुरू हुई मामूली झड़प से शुरू हुआ इजराइल और फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास के बीच 11 दिन का ख़ूनी संघर्ष अंतत: थम गया है। इस भीषण युद्ध में अब तक क़रीब 250 लोगों के मारे जाने की ख़बर है, जिसमेंज़्यादातर जानें गाजा शहर में गयी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि दोनों पक्षों ने भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव में संघर्षविराम का $फैसला लिया है। इस भयंकर संघर्ष के दौरान जिस तरह से अति उत्साह में कुछ इस्लामिक देशों के बयान आ रहे थे और वो इस मुद्दे पर गोलबंद होते दिख रहे थे, उससे लग रहा था कि यह ख़तरनाक संघर्ष अभी और चलेगा।
संघर्षविराम के बाद जहाँ हमास इसे अपनी जीत बता रहा है, वहीं इजराइल को अपने ही देश के विपक्षी राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीजफायर के लिए आलोचना की जा रही है। इस ख़ूनी संघर्ष में नुक़सान दोनों तरफ़हुआ है। लेकिन फिलिस्तीन के गाजा में जिस तरह तबाही हुई है, इसके पुनर्निर्माण में लम्बा वक़्त लगेगा। हमास ने जिस तरह से इजराइल पर हज़ारों रॉकेट हमले किये हैं, अगर इजराइल के पास अत्याधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘आयरन डोम’ नहीं होता, तो इजराइल में भयंकर तबाही मचती। इस भीषण संघर्ष में तबाही का वास्तविक आकलन कुछ समय बाद ही सम्भव है। युद्धविराम से वर्तमान माहौल भले ही बदलने लगा हो। लेकिन इस जगह पर कब छोटी झड़प आगे इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आग में झोंक दें, कुछ कहा नहीं जा सकता। संघर्षविराम के बाद इजराइल ने स्पष्ट संकेत दिये हैं कि अगर हमास ने फिर से रॉकेट से हमले किये, तो उसका जवाब बहुत सख़्ती से दिया जाएगा। यह दु:खद है कि जब दुनिया के अधिकतर देश कोरोना वायरस से ज़िन्दगियाँ बचाने में जुटे हैं, ऐसे में मध्य-पूर्व क्षेत्र दूसरे ही मामलों में फँसकर जान गवाँ रहा है। ध्यातव्य रहे कि मध्य पूर्व क्षेत्र लम्बे समय से विभिन्न कारणों से तनाव से गुज़र रहा है, वर्तमान परिदृश्य को देखकर इस क्षेत्र में अभी शान्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती।
इजराइल और हमास में जारी भीषण संघर्ष के बीच 16 मई को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी भारतीय प्रतिनिधि टी.एस. तिरूमूर्ति द्वारा जारी बयान के बाद कई अंतर्राष्ट्रीय नीति विश्लेषक और पत्रकार इस बयान को अलग अलग तरीक़े से देख रहे हैं। अगर हम भारतीय प्रतिनिधि के बयान को भारतीय हित से देखें, तो यह बयान बेहद सटीक मालूम पड़ता है। इस बयान में जहाँ एक तरफ़भारत ने हमास द्वारा जारी रॉकेट हमले का विरोध किया, वहीं इसने फिलिस्तीनी कारण का समर्थन करते हुए दो राष्ट्र की बात कही। भारत ने यह भी कहा कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के ज़रिये इस मामले को सुलझाने चाहिए। भारतीय प्रतिनिधि के सम्पूर्ण बयान का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह बयान इजराइल की तरफ़कम और फिलिस्तीन की तरफ़ ज्यादा झुका हुआ था, जो भारतीय नज़रिये से सही भी है। हालाँकि भारत ने अपने बयान से इजराइल को भी नाराज़ नहीं किया है, बल्कि इसने अपने बयान से दोनों पक्षों को साधने को कोशिश की है।
क्योंकि भारत का बयान एक तरफ़ा नहीं है। जो भी मध्य-पूर्व की राजनीति अच्छे से समझते हैं, उन्हें भारत का बयान बहुत सधा हुआ मालूम पड़ेगा। व्हाट्स ऐप विश्वविद्यालय से ज्ञान प्राप्त कर रातोंरात विदेश नीति के जानकार बना देश का एक समूह भारत के बयान को इजराइल के ख़िलाफ़मान रहा है। ऐसे लोग उतावले होकर इजराइल के प्रधानमंत्री के ट्विटर अकाउंट पर जाकर यह भी लिख रहे हैं कि पूरा देश उनके साथ हैं। ऐसे लोगों को यह स्पष्ट समझना चाहिए कि विदेश नीति में कोई भी देश अपना और देशवासियों का हित सबसे पहले देखता है, जो बिल्कुल सही भी है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत की इजराइल के साथ हाल के दिनों में घनिष्ठता बढ़ी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक इजराइल यात्रा और इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा इसकी सबसे बड़ी गवाह हैं। वर्तमान में कोरोना वायरस के दूसरी लहर से बुरी तरह प्रभावित भारत को यह देश मेडिकल सहायता भी उपलब्ध करा रहा है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना है कि भारत के अरब देशों से भी अच्छे सम्बन्ध हैं। मध्य-पूर्व वह क्षेत्र है, जहाँ भारत की एक बड़ी आबादी को काम मिला हुआ है और वे वहाँ से बड़ी मात्रा में भारत में पैसे भेजते हैं और यहाँ की अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत करते हैं। भारत का इन देशों के साथ आर्थिक कारोबार भी इजराइल की तुलना में कई गुनाज़्यादा है तथा भारत की पेट्रोल तथा डीजल जैसी ऊर्जा ज़रूरतों की भी पूर्ति इन्हीं देशों से होती है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी अंतर्राष्ट्रीय प्रवास-2020 की रिपोर्ट के अनुसार, 1.8 करोड़ भारतीय दूसरे देशों में रहते हैं और यह संख्या दुनिया में किसी भी देश के प्रवासियों कि तुलना में सबसेज़्यादा है। मध्य पूर्व के केवल तीन देशों संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब तथा क़ुवैत में ही 70 लाख सेज़्यादा भारतीय रहते हैं। ओमान और क़तर में भी इनकी संख्या अच्छी ख़ासी है। अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कोई भी देश अपनी विदेश नीति में अपने देश का हित सबसे पहले देखता है। ज़ाहिर है कि भारत भी अपनी विदेश नीति में भारतीय हितों को ध्यान में रखते हुए अरब देशों से सम्बन्ध बेहतर रखने की कोशिश करेगा।
ओआईसी का नज़रिया
भारत को यह भी अच्छे से पता है कि पाकिस्तान इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का सदस्य देश है और इसे जब भी मौक़ा मिलता है, यह अक्सर ऐसा बयान देता है कि भारत में मुस्लिमों के साथ अत्याचार हो रहा है और इनके साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाता है। हाल के वर्षों में कई बार पाकिस्तान अपने निजी स्वार्थों के लिए इसके सदस्य देशों को भारत के ख़िलाफ़लामबंद करने की कोशिश करता रहा है और यह चाह रखता रहा है कि यह संगठन भारत पर ठोस बयान दें या कार्रवाई करें। लेकिन यह अलग बात है कि सऊदी अरब के दबदबे वाले इस संगठन ने पाकिस्तान के आरोपों को कभी भीज़्यादा महत्त्व नहीं दिया। हालाँकि भारत में दक्षिणपंथ से जुड़ा एक बड़ा समूह इजराइल का पक्ष करता दिख रहा है। ऐसे लोग इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के ट्विटर अकाउंट पर भी जाकर लिख रहे हैं कि भारत इजराइल के साथ है। वहीं इजराइल की भीषण कार्रवाई के ख़िलाफ़कई देशों में धरने देखने को मिले हैं।
भारत में भी अच्छी संख्या में लोग फिलिस्तीन के पक्ष में दिखे। हमें ऐतिहासिक सन्दर्भ यही बताते हैं कि इजराइल-फिलिस्तीन के मुद्दे पर भारतज़्यादातर फिलिस्तीनियों के ही पक्ष में रहा है और यह अलग-अलग मंचों से कई बार इजराइल द्वारा फिलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के मामले में उसकी निंदा भी कर चुका है। इसके पीछे भारत की अपनी सोच है कि भारत पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर को वापस हासिल करना चाहता है। इसके लिए वह इजराइल के अवैध क़ब्ज़े की नीति को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। भारत की नीति इस मामले में बेहद स्पष्ट है कि वह इजराइल के लिए अरब के महत्त्वपूर्ण देशों से अपना सम्बन्ध कभी ख़राब नहीं करना चाहता और यही नीति देशहित में भी है। अभी हाल ही में कुछ साल पहले जब इजराइल ने अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव शहर से हटाकर यरुशलम में स्थानांतरित किया था, तो भारत ने अमेरिका के दबाव के बावजूद अपना रुख़ स्पष्ट कर दिया था कि वह इसके पक्ष में नहीं है।
ओआईसी का ज़िम्मेदार बनना वर्तमान समय की माँग
ओआईसी कहने को तो संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सदस्य देशों की संख्या के लिहाज़ से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। लेकिन इसके सदस्य देश ख़ुद के स्वार्थों से कभी ऊपर नहीं उठ सके। 57 देशों वाले इस संगठन को मुस्लिम दुनिया की सामूहिक आवाज़ माना जाता है; लेकिन सच्चाई यही है कि इसके सदस्य देशों के बीच अक्सर आपसी दबदबे को लेकर तनाव देखने को मिलता है। मध्य-पूर्व क्षेत्र में आपसी वर्चस्व के लिए सऊदी अरब और ईरान के बीच तनाव लम्बे समय से जारी है। अपनी स्थापना के समय से ही ओआईसी का प्रमुख लक्ष्य फिलिस्तीन को उसका वाजिब हक़ दिलाना था। लेकिन इस संगठन के सामने फिलिस्तीनियों की ज़मीन सिकुड़ती चली गयी और यह संगठन तमाशबीन बना रहा। इजराइल और यरुशलम के बँटवारे के बाद आज फिलिस्तीनी 48 फ़ीसदी ज़मीन से महज़ 12 फ़ीसदी ज़मीन पर सिमट गये हैं। इनके पास गाजा और वेस्ट बैंक के ही कुछ इलाक़े बचे हैं, बाक़ी इनके हिस्से के 36 फ़ीसदी ज़मीन पर इजराइलियों का क़ब्ज़ा है। वर्तमान में इजराइल इस क्षेत्र के 80 फ़ीसदी हिस्से पर क़ाबिज़ है, फिलिस्तीनी केवल 12 फ़ीसदी टुकड़ों पर सिमट गये है तथा बाक़ी के 8 फ़ीसदी हिस्सा यानी यरुशलम संयुक्त राष्ट्र संघ के नियंत्रण में है। स्मरण रहे कि यरुशलम इस्लाम, यहूदी तथा इसाई यानी तीनों धर्मों के लिए एक पवित्र स्थल है और विशेष जगह मानी जाती है। ऐसे में यह स्थान संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने अधीन लेना पड़ा, ताकि यहाँ इसके लिए संघर्ष न हो।
मुस्लिम दुनिया में जो धनी और प्रभावाशाली देश है, उनके रिश्ते पश्चिमी दुनिया से बेहतर है। वे अपने विकास में काम आने वाले ज़रूरी तकनीकों के लिएज़्यादातर पश्चिमी देशों पर निर्भर है। इजराइल काज़्यादातर पश्चिमी दुनिया के प्रभावशाली देशों से न केवल बेहतर सम्बन्ध है, बल्कि इसके शुरुआती समय से ही वे इजराइल की मदद करते रहे हैं। ओआईसी के प्रमुख देशों को भी ये पता है कि वे इजराइल काज़्यादा कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे। इसलिए इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच संघर्ष में वे इजराइल की निंदा करके रस्म अदायगी कर देते हैं। तुर्की अभी भले ही इजराइल को लेकर काफ़ी विरोध कर रहा हो, लेकिन सच यही है कि इस देश का सन् 1949 से ही इजराइल से सम्बन्ध है।
सऊदी अरब वर्तमान में भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ में इजराइल के हवाई हमलों को लेकर खुलकर विरोध करे। लेकिन इसे भी यह बात पता है कि इजराइल को अमेरिका और पश्चिमी देशों का भरपूर सपोर्ट है और ऐसे में सऊदी अरब के विरोध की एक सीमा है, जो वह कभी पार नहीं करेगा। ईरान की आलोचना से इजराइल को ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्योंकि ईरान अपने हितों के लिए लम्बे समय से इजराइल का विरोध करता रहा है। मिस्र और जॉर्डन ने पहले ही इजराइल से शान्ति समझौता किया हुआ है। संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मोरक्को पहले ही ‘अब्राहम समझौते’ के ज़रिये इजराइल को मान्यता दे चुके हैं। लेकिन इजराइल और फिलिस्तीन के बीच वर्तमान संघर्ष ने यह साबित कर दिया कि तमाम शान्ति समझौतों के बाद भी यह क्षेत्र अभी अशान्त ही रहने वाला है। संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में इजराइल के ख़िलाफ़लाये गये प्रस्ताव को अमेरिका ने वीटो करके यह स्पष्ट कर दिया है कि वह पूरी तरह इजराइल के पक्ष में है। हमें यह भी अच्छे से पता है कि पश्चिमी दुनिया अमेरिका के ही नेतृत्व मेंज़्यादातर फै़सले लेती है। अभी इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जो संघर्ष विराम हुआ है, यह भी अमेरिका और मिस्र के सहयोग से हो पाया है; ओआईसी की वजह से नहीं।
ओआईसी संगठन को मध्य-पूर्व में निरंतर चलने वाले सिया और सुन्नियों के बीच तनाव कम करने की दिशा में काम करना चाहिए। आज ईराक, सीरिया और कई अफ्रीकी देशों में आतंकवादी समूह सक्रिय हैं, जो पूरी दुनिया की शान्ति व्यवस्था के लिए ख़तरा हैं। यहाँ आये दिन जिस तरीक़े से आम इंसान मर रहे हैं और आतंकवादी संगठन युवाओं को धर्म के नाम पर गुमराह करके उन्हें वीभत्स हमलों के लिए लगातार उकसा रहे हैं, वह बेहद दु:खद है। आज आईएसआईएस और बोको हराम जैसे ख़तरनाक आतंकवादी समूहों से ट्रेनिंग लेकर छोटे-छोटे लड़ाका जिस तरह से सक्रिय हैं, वो पूरी दुनिया के लिए बेहद चिन्ता का विषय है। ओआईसी को इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि कैसे मुस्लिम युवाओं को दहशत फैलाने वाले इन आतंकवादी समूहों से जुडऩे से रोका जाए और इस क्षेत्र में शान्ति और सद्भाव का रास्ता तैयार किया जाए।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ओआईसी और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों ही दुनिया के बड़े संगठनों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाये रखना है; लेकिन वर्तमान में इनकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में है। ओआईसी से जुड़े बहुत देशों में लोकतंत्र नाम की चीज़ नहीं है, मध्य पूर्व के देशों में अभी भी राजशाही चल रही है। ऐसे में इन दोनों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को लोगों में समानता लाने और उनके अधिकारों के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहिए। यह स्पष्ट है कि जब तक ओआईसी के सदस्य देश व्यक्तिगत लाभ की नीति छोडक़र अपने आसपास की दुनिया में हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़एकजुट होकर मुखर नहीं होंगे, विस्तारवादी शक्तियाँ इनका हक़ छीनती रहेंगी। अभी बात फिलिस्तीन तक है, कल वृहत इजराइल नीति के तहत और भी देश इसके शिकार होंगे और ओआईसी के सदस्य देश एक बार फिर से सि$र्फ निंदा करेंगे।
बातचीत से ही सुधरेंगे हालात
इजराइल और चरमपंथी गुट हमास के संघर्षविराम के कुछ दिनों बाद ही भारत में फिलिस्तीनी प्रशासन के राजदूत ने कहा कि भारत को दोनों देशों के बीच शान्ति प्रक्रिया को बहाल करने में भूमिका निभानी चाहिए। कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र संघ भी यही चाहता था कि इजराइल और फिलिस्तीन के बीच शान्ति समझौते को लेकर भारत मध्यस्थता करे। पिछले साल ईरान और अमेरिका के तनाव के दौरान भारत में ईरान के राजदूत ने भी कहा था कि अगर दोनों देशों के बीच भारत शान्ति समझौते को लेकर कोई पहल करता है, तो ईरान उसका स्वागत करेगा। फिलिस्तीन और संयुक्त राष्ट्र संघ यह बात अच्छे से समझते हैं कि भारत का पश्चिम एशिया के देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध है और इस क्षेत्र में यह कई कारणों से विशेष रुचि भी रखता है।
भारत के पश्चिम एशिया की नीति और पश्चिमी देशों के साथ इसके गहरे सम्बन्ध को फिलिस्तीन बख़ूबी समझता है, इसलिए वह भारत से थोड़ीज़्यादा उम्मीद कर रहा है। फिलिस्तीन को यह उम्मीद यकायक नहीं पनपा, बल्कि भारत के साथ उसके पुराने और विश्वसनीय सम्बन्धों के कारण ऐसा वह सोच रहा है। पिछले कई वर्षों से फिलिस्तीन स्पष्ट मानता रहा है कि भारत उसका साथ देता रहा है। हाल ही में भारत ने वहाँ विकास के कार्यों को भी आगे बढ़ाया है। अगर हम वर्तमान में वैश्विक सम्बन्धों को अच्छे से समझने कि कोशिश करें, तो पाते हैं कि भारत ही वह देश है, जिसके दुनिया के दो बड़े और बेहद शक्तिशाली देश, यानी अमेरिका और रूस के साथ बहुत बेहतर सम्बन्ध हैं। ऐसे में फिलिस्तीन को लगता है कि भारत इनके साथ इस मुद्दे पर बातचीत कर अगर इजराइल पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाये, तो यहाँ शान्ति व्यवस्था को मज़बूती मिलेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा पहले के मुक़ाबले थोड़ीज़्यादा बढ़ी है और इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ, ओआईसी, अमेरिका, रूस, चीन तथा पाकिस्तान इस बात को अच्छे से जानते हैं। यह सम्भव भी हो कि भारत बड़े देशों को साथ लेकर अगर इजराइल से शान्ति के समझौते को लेकर कुछ बात करे, तो शायद बात बने। लेकिन यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इजराइल और फिलिस्तीन एक दूसरे के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहते हैं? या केवल एक-दूसरे पर संगीन आरोप लगाकर हिंसात्मक गतिविधियों में फँसे रहना चाहते हैं? इस क्षेत्र के वर्तमान परिस्थितियों को समझने पर यही लगता है कि दोनों तरफ़ऐसे संगठन / पार्टियाँ हैं, जो हिंसा को बढ़ावा देना चाहते हैं और दे भी रहे हैं। जब भी यहाँ हालात बिगड़ते हैं और स्थिति संघर्ष में बदल जाती है, तब ये दोनों देश एक-दूसरे पर पहले हमला करने का आरोप लगाते हैं।
ज़्यादातर मामलों में यहाँ ऐसा ही होता है और इससे बाहरी दुनिया के देशों और संगठनों को यह पता ही नहीं चल पाता कि आख़िर पहले हमला किसने और क्यों किया? ऐसे में किसी तीसरे देश या संगठन के लिए शान्ति समझौते के प्रस्ताव को पेशकश करना, तो आसान होगा। लेकिन शान्ति बहाली के लिए बहुत सारी बातों पर अमल करना दोनों देशों के लिए आसान नहीं होगा। संघर्षविराम के बाद भी हमास और इजराइल जिस तरह से आने वाले समय को लेकर बयानबाज़ी कर रहे हैं, उससे आगे हालात बनने की जगह सि$र्फ बिगड़ेंगे और इसका ख़ामियाज़ा वहीं के लोग भुगतेंगे। इजराइल को यह बात अच्छे से समझनी चाहिए कि फिलिस्तीनियों के साथ उसका ज़मीन के केवल टुकड़े की लड़ाई नहीं है, बल्कि वे उस क्षेत्र में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो कभी फिलिस्तीन में बसने के पहले दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इजराइल ने भी लड़ी थी। चरमपंथी संगठन हमास भी ग़लत$फहमी दूर करके एक बात स्पष्ट समझ लें कि हज़ारों रॉकेट दाग़कर भी वह इजराइल काज़्यादा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। हाँ, ऐसा करने से इसकी भारी क़ीमत उसे और फिलिस्तीनियों को ज़रूर चुकानी पड़ सकती है, जो वे चुका भी रहे हैं।
इजराइल और फिलिस्तीन दोनों को हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि का दिया गया बयान एक बार फिर से सुनना चाहिए, जिसमें भारत ने दोनों देशों से आपसी बातचीत के ज़रिये इस मामले को निपटाने की अपील की और साथ ही साथ दोनों तरफ़से जारी हिंसा की निंदा की। दोनों देशों को एक बात अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि हिंसा से किसी परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता। विश्व इतिहास में ऐसे अनगिनत मामले हैं, जहाँ आपस में एक-दूसरे के विरुद्ध ताक़त और हिंसा के प्रदर्शन से सिर्फ़ बर्बादी ही हुई है, जिसकी भरपाई आज तक नहीं हुई। हमास द्वारा इजराइल पर हज़ारों रॉकेट दाग़ना और इजराइल द्वारा लगातार फिलिस्तीन की ज़मीन को ताक़त के दम पर हथियाना, ये दोनों कार्य बेहद निंदनीय हैं; और इससे यहाँ एक-दूसरे के प्रति केवल असन्तोष और हिंसा की भावना पनपेगी, जो दुर्भाग्य से यहाँ हो भी रहा है। जिस तरीक़े से इस बार इन दोनों ने एक-दूसरे पर हमले किये और बहुत सारे देश आपस में इस मामले को लेकर गोलबंदी करते हुए युद्ध को बढ़ावा देते देखे गये, वह बेहद दु:खद है। आये दिन यहाँ जिस तरह से आम लोग हिंसा में मारे जा रहे हैं और उनकी सम्पतियाँ बर्बाद हो रही हैं, उससे यह एक वैश्विक मुद्दा बन गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे मामले को लेकर समय-समय पर शान्ति सम्मेलन के प्रयास करने चाहिए और बड़े देशों को दुनिया में शान्ति स्थापित करने के लिए उनकी भूमिका को लगातार याद दिलाते रहना चाहिए, ताकि किसी भी देश की अकड़ और ज़िद से वैश्विक माहौल न बिगड़े।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)