सबसे बड़ा धर्म क्या हो सकता है? यह सवाल उन लोगों के लिए हैं, जिनकी तोंदें गले तक ठसाठस भरी पड़ी हैं और तिजोरियों में इतना पैसा, ज़ेवर है कि समा नहीं रहा है। यही वे लोग हैं, जो धर्मों की मुहिमों को बढ़ाने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं। धर्मों के ये नये-नये ठेकेदार विशाल जन समर्थन के दम पर किसी भी हद से गुज़र जाने को तैयार हैं और ख़ुद को श्रेष्ठ धर्माचार्य सिद्ध करने की होड़ में लगे हैं।
हर धर्म में ऐसे लोगों की अलग-अलग जमातें हैं। भले ही इन जमातों के कथित धर्माचार्य अपने ही धर्म के दूसरे कथित धर्माचार्यों से मतलब नहीं रखते हों; उन्हें पसन्द नहीं करते हों; लेकिन दूसरे धर्म से आगे निकलने की होड़ में लगे हुए हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे धर्मों को निकृष्ट बताकर अपने धर्म को भी श्रेष्ठ घोषित करना चाहते हैं। ये कथित धर्माचार्य अपने धर्म में भी अग्रणी सर्वश्रेष्ठ, सर्वपूज्यनीय और महानतम् धर्माचार्य होने के लिए आतुर हैं।
श्रेष्ठ बनने की खोखली मंशा पाले बैठे घमण्ड और अल्प ज्ञान के मद में चूर इन कथित धर्माचार्यों को यह भी नहीं ज्ञात नहीं रहा है कि इनके पास सिवाय पाखण्ड और रटी-रटायी बातों के कुछ और है ही नहीं। संसार के ज़्यादातर लोगों को भटकाकर रखने वाले इन कथित धर्माचार्यों की साँठगाँठ राजनीतिक लोगों से कितनी है? अगर यह देखना हो, तो इनके राजनीतिक लोगों से मधुर सम्बन्धों में अन्दर तक झाँकने की ज़रूरत है। स्वार्थ और भोग-विलास के भूखे ये पाखण्डी भूल चुके हैं कि धर्म समाज और राजनीति को सही मार्ग दिखाने के लिए है। लेकिन यही धर्म नेताओं के सुर में सुर मिलाने लगे, तो समाज के साथ अन्याय तय है। इसके विपरीत अगर धर्म समाज के हित में सोचने लगे, तो नेताओं का दिमाग़ ठिकाने लगा रहें। धर्म का ताक़तवरों के साथ ख़ड़े होने का अर्थ यही है कि उसमें लोभियों, भोगियों, कामियों और अपराधियों का धर्माचार्यों के रूप में दख़ल हो चुका है। धर्म किसी के विमुख हो ही नहीं सकता। उसे बनाया ही लोक कल्याण के लिए गया है; ताक़तवरों, अत्याचारियों के समर्थन के लिए नहीं। लेकिन सत्ता की जूतियाँ चाटने वाले कथित धर्माचार्य अपनी वासनामय स्वार्थसिद्धियों की पूर्ति के लिए पूरी दुनिया में धर्मों को कोठे की वेश्या की तरह इस्तेमाल करते जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि सभी धर्मों के लोग अपने-अपने पाखण्डी धर्माचार्यों के पीछे आँखें बन्द करके ऐसे चल रहे हैं, जैसे कोई बच्चा कुछ पाने की लालसा में किसी झूठे, मक्कार के पीछे-पीछे चल पड़े।
इसी का नतीजा है कि धर्मों में अपराध बढऩे के मामले सामने आने लगे हैं। क्योंकि ये कथित धर्माचार्य हर अपराध करते हुए भी अपनी सुरक्षा के लिए हो चुके हैं। उन्हें पता है कि उनके पीछे मूर्खों की एक ऐसी भीड़ खड़ी है, जो उनके लिए हिंसा भी कर सकती है; मर सकती है। हर हाल में उनका विश्वास करने वाली ये भीड़ उनकी सुरक्षा ही करेगी। दरअसल ये भीड़ इन कथित धर्माचार्यों की बिना पैसे की सुरक्षा $फौज है। जिसे दर्मों की अ$फीम ने विचारहीन बना दिया है। तनिक सोचिए कि ये लोग धर्मों के सहारे रहने की बजाय ख़ुद की रक्षा के लिए बाउंसर रखते हैं। गनमैन रखते हैं। बुलेटप्रूफ गाडिय़ों में चलते हैं। ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी गुजारने के लिए राजा-महाराजाओं की तरह महलों में रहते हैं। फिर ये किस बात के धर्माचार्य हुए?
अगर धर्मों के इन कथित धर्माचार्यों के हाथों से धर्मों की ठेकेदारी छीन ली जाए, चार दिन भूखा रखा जाए, तो इन्हें समझ आयेगा कि रोटी से बड़ा धर्म और कोई हो ही नहीं सकता। एक मेहनतकश इंसान का यही धर्म होता है। भरे पेट पर कोई भी चौधरी और ज्ञानी बन जाता है। लेकिन अगर पेट ख़ाली हो, तो उसे न कोई ईश्वर दिखायी देता है और न कोई धर्म। और ये कथित धर्माचार्य कौन-सा किसी धर्म के लिए इतना ड्रामा कर रहे हैं? इन्हें अपनी झूठी शान और पैर-पुजाई का जो भूत सवार है, उसी के चलते ये सब लगे हुए हैं। अगर ये बात ग़लत लगती हो, तो किसी भी कथित धर्माचार्य को महीने भर के लिए भूखा-प्यासा कड़ी तपस्या के लिए बैठा दीजिये। अगर उसकी पाखण्डवाद भरी सारी की सारी ड्रामेबाज़ी चार दिन में हवा न हो जाए, तो कहना।
भूख इंसान को बताती है कि उसका धर्म पेट भरने के लिए कर्म करना है। जब तक इंसान का पेट न भरा हो, उसके लिए ये सुन्दर संसार भी व्यर्थ लगने लगता है। भूखे आदमी की रोटी की प्रबल इच्छा बताती है कि वह जीवन चाहता है। और जीवन बिना भोजन के, बिना पानी के, बिना हवा के सम्भव नहीं है। जब ये सब मिल रहे हों, तो इंसान बा$की ज़रूरतें पूरी करता है। सब कुछ मिलने के बाद वह धर्म को समझने की चेष्ठा करता है। या फिर सब कुछ पाने के लिए वह धर्म की शरण में जाता है। ऐसे लोगों को एक पवित्र, सन्त प्रवृत्ति, ज्ञानी और अच्छे धर्माचार्य की ज़रूरत होती है। लेकिन दुर्भाग्य से अब सभी धर्मों में लोगों को भटकाने वाले पाखण्डियों की भरमार है।