सूचना क्रान्ति के इस दौर में आज पूरी दुनिया एक वैश्विक नेटवर्क से जुड़ी है। इंटरनेट वर्तमान समाज में जीवन का मुख्य आधार है और इसके बिना जीवन बहुत नीरस हो सकता है। ऐसे में आज के आधुनिक दौर में सम्पर्क के इस माध्यम को बन्द करना अंतिम उपाय होना चाहिए। लेकिन पहले कश्मीर और उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून के िखलाफ हुए उग्र प्रदर्शनों के बीच दिल्ली, असम, मेघालय, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में सरकार की ओर से लगातार इंटरनेट बन्द करना एक तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है। लोगों को सुरक्षा के नाम पर फोन कॉल्स, व्हाट्सएप और एसएमएस जैसी सेवाओं से वंचित रखा जा रहा है।
इंटरनेट बन्द करने को हमेशा कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति को बहाना बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि, यह हमेशा विवाद और चर्चा का विषय रहा है। जब तक कोई खास वजह न हो तब तक डिजिटल प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिए; क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। ऐसे में कानून लागू करने वाली एजेंसियों को गलत सूचना और फर्ज़ी समाचारों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न माध्यमों से जनता तक पहुँचना चाहिए। ऐसे ‘दमनकारी’ उपाय भारतीय लोकतंत्र की छवि को खराब करते हैं साथ ही यह अधिनायकवाद की पुनरावृत्ति जैसे लगते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में आन्दोलन के मामले में अधिकारियों को यह समझने की ज़रूरत है कि पुलिस बल का अत्यधिक उपयोग स्थिति को और तनावपूर्ण बना देता है। इस तरह की दमनकारी कार्रवाई पहले उपाय के बजाय, अंतिम विकल्प होना चाहिए।
सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देने के लिए इसे ‘पॉवर टू एम्पॉवर’ की संज्ञा दी तो यह माना गया कि यह महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम भारत को डिजिटल रूप से एक सशक्त समाज में बदल देगा; लेकिन हाल ही में इसे धक्का पहुँचाया गया है। हिंसा पर काबू पाने के लिए टेलीकॉम कम्पनियों को भारतीय दूरसंचार अधिनियम 1885 के तहत टेलीकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमरजेंसी या सार्वजनिक सुरक्षा) नियम, 2017 लागू करके निलंबित किया जा रहा है। सरकार को पता होना चाहिए कि संचार सिस्टम रोकना वास्तव में घातक और ई-गवर्नेंस, डिजिटल लेन-देन, सूचना के प्रसार और सभी प्रकार के सशक्तिकरण को बाधित करके एक प्रतिक्रियावादी कदम साबित हो सकता है।
सुधारों के लिए कनेक्टिविटी की आवश्यकता है और इसकी कमी हमें सत्तावाद और मनोवैज्ञानिक संकट की तरफ ले जा सकती है। हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की गारंटी प्रदान करता है। इंटरनेट पर रोक के ज़रिये दिन में होने वाली घटनाओं और जानकारी से लोगों को वंचित करना एक बड़ी गलती साबित हो सकती है। डिजिटल सुविधाओं का निलंबन स्थिति कुछ समय के लिए स्थिति के नियंत्रण की वजह तो बन सकती है, पर इससे तमाम तरह के दुष्प्रभावों को भी नकारा नहीं जा सकता है। यह जनमानस की मानसिकता को लम्बे समय के लिए प्रभावित करता है और निस्संदेह लोकतंत्र में सुशासन के सिद्धांतों के उल्लंघन की दिशा में एक कदम है।