राम निकाई रावरी है, सबही को नीक।
जों यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक।।
गोस्वामी तुलसीदास के इन शब्दों का अर्थ है- ‘हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला ही होता है। यदि यह बात सच है, तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा। यही बात जनता भी सोचती है कि राम की कृपा से सभी का भला ही होगा। लेकिन यह भला करेगा कौन? क्या राम पृथ्वी पर उतरकर आयेंगे? नहीं, उनके नाम पर सत्ता चलाने वाले करेंगे; क्योंकि राम तो परलोक सँवारने वाले हैं। लोक तो लोक-शासक ही सँवारेंगे! राम के शासन को लेकर कहीं कहा गया है- राम राज्य में राजा-प्रजा का सम्बन्ध शासक और शासित जैसा न होकर पिता-पुत्र जैसा था। प्रजा की छोटी-छोटी आवश्यकताओं का भी वे पूरा ध्यान रखते थे। अर्थात् उनके राज्य में एक भी व्यक्ति, यहाँ तक कि जीव-जन्तु भी दु:खी नहीं थे। राम ने प्रजा के लिए मर्यादा का हृदय से निर्वहन किया। यही आशा आज की प्रजा को उन लोगों से है, जो राम राज्य का वादा करके सत्ता में आये हैं। अयोध्या में 5 अगस्त को भूमि पूजन के साथ राम मन्दिर के शिलान्यास से आस्था रखने वालों का एक लम्बा इंतज़ार पूरा हुआ है। राम मन्दिर को लेकर भाजपा ने हिन्दुत्व के अपने एक राजनीतिक एजेंडे को पूरा किया है। अब भारत में राम राज्य की परिभाषा को भी प्रतीकों और शब्दों से बाहर निकालकर मूर्त रूप देने की एक बड़ी ज़िम्मेदारी भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है। प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मन्दिर के शिल्यान्यास के साथ भगवान राम को दण्डवत् प्रणाम करके आस्था की नींव रखी है। लोकसभा चुनाव में जनता ने भी अपनी बहुत-सी समस्यायों के हल के लिए पुन: शासन हाथ में देते हुए मोदी से उम्मीद जतायी थी, और इस उम्मीद को फलीभूत करना अब उनकी मर्यादा में शामिल होना चाहिए।
अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का वादा भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र का हिस्सा था। जनता ने उसे सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुमत से आगे 303 सीटें दीं और सहयोगी दलों (एनडीए) को मिलाकर कुल 353 सीटें दीं; जो कि एक ऐतिहासिक जीत है। ज़ाहिर है राजनीतिक रूप से भाजपा हिन्दुत्व के जिस एजेंडे पर चलती है, उसमें उसके लिए राम मन्दिर के निर्माण का रास्ता साफ करने के लिए यह एक बड़ी जीत है। अब साफ है कि राजनीतिक रूप से अगले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा बिहार, पश्चिम बंगाल और उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में इसका लाभ लेने की पूरी कोशिश करेगी।
मन्दिर निर्माण पूरा होने का समय करीब तीन साल बताया गया है। ज़ाहिर है अगले लोकसभा चुनाव से पहले तक भाजपा मन्दिर के निर्माण को अपनी उपलब्धि के रूप में जनता के दिमाग में जीवित रखने की कोशिश करेगी। लेकिन 10 साल के शासन के बाद एक एंटी इंकम्बेंसी के साथ भाजपा सिर्फ इसी मुद्दे के सहारे क्या चुनावों की वैतरणी पार कर पायेगी? ज़ाहिर है यह भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
पिछले एक साल में मोदी के नेतृत्व वाले शासनकाल में काफी अच्छी-बुरी चीज़ें हुई हैं। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने को लेकर उसके पक्ष और विपक्ष में दोनों स्वर उभरे हैं। जम्मू-कश्मीर में इसके बाद अफसरशाही के हावी होने और भ्रष्टाचार बढऩे से जनता के काम रुकने और उसकी दिक्कतें बढऩे की काफी शिकायतें सामने आ रही हैं। कश्मीर में अभी जनता मन से इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पायी है, और आतंकवाद की घटनाएँ एक साल के बाद भी हो रही हैं; भले ही बड़ी संख्या में आतंकवादी मारे भी गये हैं। जम्मू-कश्मीर में मुख्य-धारा के कई नेता अभी जेलों में हैं। केंद्र सरकार की कश्मीर नीति निश्चित ही अभी इम्तिहान के दौर में है। इसके अलावा राम मन्दिर शिलान्यास की तारीख (5 अगस्त) को भाजपा के एक वर्ग ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के जश्न के रूप में पेश करने की कोशिश की है, जिसका सन्देश अच्छा नहीं गया है। इस तरह राम की मर्यादा के विपरीत बात तो हुई ही, इसे बहुत-से लोगों ने भाजपा के अहंकार के रूप में भी देखा है।
एनआरसी और सीएए को लेकर तमाम प्रदर्शन हुए, जिनके बीच काफी विवाद भी उभरे। इससे देश के काफी लोगों में नाराज़गी है। भाजपा ने इस नाराज़गी को दूर करने की पार्टी और सरकारी स्तर पर कोई कोशिश नहीं की, सिवाय एनआरसी पर पलटने के। साल के शुरू में कोरोना महामारी ने देश में पाँव इस ढंग से पसारे कि मुश्किलों का एक बुरा दौर शुरू हो गया। आरोप लगे हैं कि मोदी सरकार को उपाय करने में देर लगी। अचानक लगाये गये लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों को विस्थापन की मार झेलनी पड़ी। इनमें से कितने ही असमय मारे गये, लाखों पुलिस से पिटे, करोड़ों भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँव, कस्बे और शहर पहुँचे; जिनमें करोड़ों अभी तक बेरोज़गारी की हालत में अपने घरों में पड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था काफी खराब हालत में है, और विशेषज्ञ भविष्य के प्रति चिन्ताजनक संकेत दे रहे हैं।
चीन से सीमा विवाद में प्रधानमंत्री मोदी ने घटनाओं को लेकर छिपाव वाली नीति अपनायी। कहा कुछ गया, ज़मीन पर दिखा कुछ। बाद में शब्दों से लीपापोती की गयी। विपक्ष, खासकर राहुल गाँधी और ममता बनर्जी जैसे बड़े नेताओं ने सरकार को लगातार घेरे रखा। हालाँकि इस विवाद और तनाव के बीच फ्रांस से पाँच ‘रफाल’ भारत मँगवाकर केंद्र सरकार ने इन मुद्दों से इतर देश-भक्ति का माहौल बनाने की कोशिश की।
इस तरह केंद्र सरकार का यह एक साल मिला-जुला रहा है। उसके सामने अब शासन की गम्भीर चुनौतियाँ हैं। कोरोना महामारी से पहले ही पटरी से उतर चुकी अर्थ-व्यवस्था को सँभालना उसके लिए काफी मुश्किल काम रहेगा। कोविड-19 का प्रकोप अपने उच्चतम पर है, और हज़ारों की संख्या में देशवासियों की जान इस महामारी से जा चुकी है, जबकि बड़ी संख्या में लोग इसकी चपेट में हैं। चीन से तनाव अभी जारी है और केंद्र सरकार को इस मोर्चे पर देश की तमाम समस्यायों को नज़र में रखते हुए इससे बहुत समझदारी से निबटना होगा।
भाजपा के लिए राज्यों में पिछले महीनों में काफी चुनौतियाँ पैदा हुई हैं। उसने एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हारे हैं। भाजपा लगातार देश में यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि विपक्ष मृतप्राय हो चुका है। फिर भी जनता देश में एक ही पार्टी की सर्वशक्तिमान सत्ता बनाना चाहेगी, ऐसा नहीं लगता। आपातकाल में इंदिरा गाँधी की ऐसी ही सर्वशक्तिमान सत्ता को जनता ने चुनाव आते ही ध्वस्त कर दिया था। मौज़ूदा सरकार और भाजपा पर देश में चुनी राज्य सरकारें गिराने की तोहमत लगने से भी भाजपा की छवि को ठेस पहुँची है। लिहाज़ा भाजपा को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। उसे निश्चित ही अगले लोकसभा चुनाव से पहले के बचे हुए साढ़े तीन साल में एक बड़ी सत्तारोधी लहर से बचने के लिए जनता के बुनियादी मसलों को हल करना ही होगा। राम मन्दिर के बाद मोदी सरकार का फोकस किस स्तर पर लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जाता है, यह देखना इसलिए भी दिलचस्प है, और रहेगा; क्योंकि भाजपा के बहुत-से नेताओं ने राम मन्दिर के बाद मथुरा और काशी एजेंडा को पूरा करने का संकल्प किया है। भाजपा में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की बात बहुत ताकत से कहते हैं। भाजपा ने पिछले छ: साल में देश में धर्म-निरपेक्ष शब्द को जिस तरह हिकारत वाला शब्द बनाने की कोशिश की है, उससे उसकी मंशा को समझा जा सकता है।
भाजपा के नेता बार-बार और जान-बूझकर धर्म-निरपेक्ष वर्ग को पाकिस्तान परस्त, मुस्लिम तुष्टिकरण और राष्ट्रद्रोहियों की जमात बताने की कोशिश करते हैं; ताकि जनता के दिमाग में यह बैठाया जा सके कि इस देश को धर्म-निरपेक्षता की कतई ज़रूरत नहीं और भाजपा का हिन्दू राष्ट्र का नारा ही वास्तव में देश के लिए (या कहिए- हिन्दुओं के लिए) श्रेष्ठ है।
अटल बिहारी वाजपेयी तक ही भाजपा में देश और भाजपा पार्टी को धर्म-निरपेक्ष बनाने का चलन रहा। लाल कृष्ण आडवाणी ने तो धर्म-निरपेक्षता पर कांग्रेस के सन्दर्भ में स्यूडो सेकुलरिज्म अर्थात् छद्य धर्म-निरपेक्षता का शब्द गढ़ा; जिसे तब भाजपा का हर नेता कांग्रेस पर कटाक्ष करने के लिए इस्तेमाल करता था। लेकिन सन् 2014 के बाद तो भाजपा ने खुद को धर्म-निरपेक्ष कहलाना और हिन्दुत्ववादी कहलाने से परहेज़ करना ही बन्द कर दिया है। इन वर्षों में भाजपा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सोच का साफ और खुला असर दिखा है। ज़ाहिर है वर्तमान भाजपा का यह रास्ता सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की तरफ ही जाता है। भाजपा वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर निर्भर है। विकास के अपने गुजरात मॉडल के साथ भाजपा को बहुमत के साथ सत्ता में लाये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के पाँच साल में खुद की अपनी छवि वृहद् करने और ब्रांडिंग करने पर पूरा फोकस रखा। उनके नेताओं ने मोदी को अंतर्राष्ट्रीय नेता और दुनिया का सबसे ताकतवर नेता तक स्थापित करने की हमेशा कोशिश की। इन पाँच वर्षों के आिखर में पुलवामा और बालाकोट और उससे पहले सर्जिकल स्ट्राइक के बहाने मोदी को देश को बचा सकने वाला इकलौता नेता बताने की मुहिम भी भाजपा नेताओं के भाषणों और सबसे ज़्यादा भाजपा के बहुत मज़बूत सोशल मीडिया नेटवर्क के ज़रिये हुई है। लेकिन पिछले कुछ महीनों को ध्यान से देखें तो सोशल मीडिया पर भाजपा या संघ की तरफ से ढके-छिपे अंदाज़ में गृह मंत्री अमित शाह की छवि को मोदी के विकल्प के रूप में उभारने की पूरी कोशिश की जाने लगी है। शाह ने भी एक हिन्दूवादी नेता के रूप में अपनी छवि से कभी परहेज़ नहीं किया है। हालाँकि भाजपा में शायद शाह की स्वीकार्यता अभी मोदी के स्तर की नहीं है। यही नहीं, संघ की शाह के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अभी से उभारने की कोशिश भी साफ दिखती है, जो हिन्दुत्व को हमेशा अपने शब्दों और एजेंडे में रखते हैं।
इससे संघ और भाजपा यह सन्देश देना चाहते हैं कि उनके पास उनके एजेंडे (हिन्दुत्व) पर काम कर सकने वाले मज़बूत नेतृत्व की कमी नहीं है। इसका यह भी संकेत जाता है कि आने वाले दिनों में भाजपा राजनीतिक रूप से हिन्दुत्व के मुद्दे को लगातार भुनायेगी। दिल्ली के उत्तम नगर क्षेत्र में भाजपा नेता राजेश वोहरा कहते हैं कि भाजपा आज एक मज़बूत संगठन और बड़ा राजनीतिक दल है, जिसके पास भविष्य के नेतृत्व की कोई कमी नहीं। ‘तहलका’ से बातचीत में राजेश ने कहा- ‘भारत हिन्दू बहुल देश है; लेकिन कांग्रेस और दूसरी सरकारें इसे नज़रअंदाज़ करती रही हैं। आज यदि विकास के साथ-साथ इस दिशा में भी एनडीए सरकार सोच रही है, तो इसे गलत कैसे कहा जाएगा? जनता ने वोट दिया है न! तो इसका मतलब है कि उसे यह रास्ता पसन्द है।’
हालाँकि जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एस.पी. शर्मा कहते हैं कि 2014 से पहले मोदी सिर्फ विकास की बात करते थे, जो आज उनके एजेंडे में कहीं नहीं दिखता। ‘तहलका’ से बातचीत में शर्मा ने कहा- ‘आज देश में समुदायों के स्तर पर बड़ा विभाजन है। मोदी ने अपने पहले शपथ ग्रहण में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाकर यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि वह पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाने की बड़ी पहले करेंगे; लेकिन आज हालत यह है कि नेपाल और बांग्लादेश जैसे हमारे मित्र देश भी हमसे विमुख हो गये हैं। चीन से हमारा तनाव चरम पर है। चीन बड़े पैमाने पर पीओके में निर्माण के नाम पर अपना अड्डा जमा चुका है। मोदी सरकार ने गिलगित, बाल्टिस्तान का मौसम भारत के मौसम के साथ दिखाया, तो चीन ने वहाँ डैम बनाना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान ने नया नक्शा जारी कर जम्मू-कश्मीर समेत गिलगित-बाल्टिस्तान, लद्दाख, सर क्रीक और सौराष्ट्र के जूनागढ़ को भी अपना बताया है। चीन को लेकर मोदी सरकार ने जिस तरह सूचनाएँ छिपायीं, उससे भी अच्छा सन्देश नहीं गया है और इसमें उसकी कमज़ोरी झलकती है। जनता के मुद्दों पर उसका फोकस नहीं है, जो आने वाले समय में जनता के बीच बड़े पैमाने पर भाजपा के खिलाफ गुस्सा पैदा कर सकता है; क्योंकि धार्मिक ध्रुवीकरण हमेशा काम नहीं करेगा।’
भाजपा जितना फोकस जनता के मुद्दों से हटाती जाएगी, ये मुद्दे उतने ही विकराल होते जाएँगे। बहुत-से राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि दरअसल पुलवामा की अचानक घटी घटना और उसके बाद के घटनाक्रम ने ही भाजपा को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में बचाया था; अन्यथा उसका प्रदर्शन शायद साधारण ही रहता। लिहाज़ा भाजपा का जनता के मूल और ज़रूरी मुद्दों से हटना उसके लिए घातक भी साबित हो सकता है। जनता एक सीमा तक ही भावनाओं में बहती है। राजीव गाँधी को सन् 1984 में 400 से ज़्यादा सीटों पर जीत देने वाली जनता ने बोफोर्स जैसा मुद्दा सामने आने के बाद सन् 1989 आते-आते उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया था।
यह भी दिलचस्प है कि भाजपा की चुनावी रैलियों में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश के बावजूद 5 अगस्त, 2019 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में उसे पहले हरियाणा, महाराष्ट्र में बहुमत नहीं मिला। यही नहीं, इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) से राम मन्दिर का फैसला आने के बाद भी दिल्ली और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों में भाजपा को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला। बिहार में जीत अब उसके सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में भाजपा के लिए इम्तिहान राम मन्दिर की नींव रखने से खत्म नहीं हुए हैं। जनता उनसे राम राज्य की स्थापना भी चाहती है। देश में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की घटनाएँ थमी नहीं हैं। करोड़ों लोगों को आज भी दो-जून की रोटी मयस्सर नहीं है। बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी दर्ज़नों मूलभूत समस्याएँ हैं। लाखों बच्चों का बचपन स्कूल की जगह आज भी फुटपाथों पर खप रहा है। महिलाओं के खिलाफ अपराध का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। अपराधियों की आज भी उतनी ही चलती है, जितनी पहले चलती थी। वे जब चाहें, जिसे चाहें बेरहमी से पीट देते हैं, जान से मार देते हैं और बमुश्किल ही उनका कुछ होता है। कानून व्यवस्था की हालत आज भी पेंदे में है। ऊपर से भाजपा की केंद्र सरकार के समय में धार्मिक आधार पर समुदायों का विभाजन खतरनाक स्तर तक चला गया है; जो भविष्य में एक बड़े खतरे के रूप में सामने आ सकता है।
राम मन्दिर की नींव बहुत स्वागत योग्य कदम होते हुए भी इस देश की जनता की समस्याओं के अन्त का द्वार नहीं खोलती। इसके लिए शासन को भगवान राम की मर्यादाओं पर चलना होगा। जनता को उससे राम राज्य की उम्मीद है। इसलिए यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक अवसर भी है कि वह देश में जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए मन्दिर की नींव के बाद विकास की नींव भी रख दें। उन्हें अपने नेताओं का अहंकार खत्म करना होगा। उन्हें अन्याय और भ्रष्टाचार का तंत्र तोडऩा होगा। उन्हें संवैधानिक संस्थाओं की रखवाली करनी होगी, जिनके आज खतरे में होने का आरोप विपक्ष लगातार लगा रहा है। उन्हें सबको साथ लेकर चलना होगा। नहीं तो इस देश की जनता राजनीतिक बनवास भी देती है। कांग्रेस इसका उदहारण है।
मन्दिर निर्माण का सफर
इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले तीन दशक से राम मन्दिर भाजपा के सबसे बड़े एजेंडे में रहा है। लेकिन राम मन्दिर का यह सफर बहुत लम्बा और गतिविधियों से भरा रहा है। करीब तीन दशक लम्बे आन्दोलन के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण का रास्ता 2019 में तब साफ हुआ, जब सर्वोच्च न्यायालय ने मन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया। इस फैसले के बाद मन्दिर निर्माण की पूरी प्रक्रिया और प्रबन्धन हेतु ट्रस्ट की स्थापना के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के मुताबिक श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के नाम से एक न्यास भारत सरकार ने गठित किया।
इसके बाद इसी साल 5 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस न्यास की स्थापना की घोषणा की। मन्दिर निर्माण के लिए इस ट्रस्ट को 2.77 एकड़ की ज़मीन सौंपी गयी थी; जबकि 67.703 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किये जाने की मंज़ूरी दी गयी थी। यह भी दिलचस्प है कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का ढाँचा ढहाये जाने के बाद सीबीआई ने सन् 1993 में जब पहली चार्जशीट दाखिल की थी, तो कुल 48 आरोपियों में आठ शिवसैनिक थे। शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे ने तब कहा था कि अगर बाबरी ढाँचा गिराने में शिव सैनिकों की कोई भूमिका रही है, तो उन्हें उस पर गर्व है।
इतिहास को देखें, तो भारतीय जनता पार्टी की स्थापना 6 अप्रैल, 1980 को हुई। लेकिन राम मन्दिर के प्रति उसने पहली बार सन् 1984 में जाकर कोई प्रतिबद्धता दिखायी। उस समय विवादित ज़मीन पर बाबरी मस्जिद थी। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा को इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण करारी शिकस्त झेलनी पड़ी, तो उसके हिस्से में महज़ दो सीटें आयीं। यह वह समय था, जब भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी ने हिन्दुत्व की सियासत पर फोकस किया। आरएसएस के साथ भाजपा ने पूरी ताकत के साथ राम मन्दिर आन्दोलन का आह्वान किया।
इस पूरे आन्दोलन के दौरान अप्रैल, 1984 में हुई विश्व हिन्दू परिषद् की धर्म संसद भी अहम पड़ाव थी। इसी धर्म संसद में राम मन्दिर को लेकर निर्णायक आन्दोलन छेडऩे का फैसला हुआ था। इसके बाद जुलाई, 1984 में अयोध्या में एक और बैठक हुई और गोरक्ष पीठ के महंत अवैद्यनाथ को श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष बनाया गया। भाजपा ने राजनीतिक स्तर पर और विहिप ने सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर इस आन्दोलन की ज़िम्मेदारी उठायी। इसका ही नतीजा हुआ कि सन् 1989 में जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश दिया, तो विहिप ने उसके पास ही राम मन्दिर की आधारशिला रखी।
इसके बाद यह मन्दिर आन्दोलन बन गया। राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार ने सन् 1986 में विवादित स्थल के ताले खुलवा दिये। इस कदम से आन्दोलन और तेज़ हो गया। सच कहा जाए तो सन् 1949 के बाद ताला खुलना सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। मुस्लिम पक्ष ने राजीव गाँधी सरकार पर आरोप लगाया कि इस दौरान बाबरी मस्जिद की मुख्य गुम्बद के नीचे चुपके से राम की मूर्तियाँ रख दी गयीं। इसके बाद सन् 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर अधिवेशन में भाजपा ने बाकायदा राम जन्मभूमि को मुक्त कराने और विवादित स्थल पर भव्य राम मन्दिर के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया। राम मन्दिर के मुद्दे को भाजपा ने अपने मुख्य राजनीतिक एजेंडे में शामिल कर लिया। इसके बाद भाजपा की राजनीति के शीर्ष पर कट्टर हिन्दुत्व की छवि रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। अध्यक्ष बनते ही आडवाणी ने राम मन्दिर के पक्ष में माहौल बनाने के लिए सन् 1990 में रथयात्रा शुरू कर दी। भाजपा के दूसरे बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी उनके साथ थे। सन् 1990 और सन् 1992 इसके सबसे बड़े साल रहे। सन् 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मन्दिर के पक्ष में जन समर्थन के लिए रथ यात्रा निकाली, जिसे 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचना था। इसके लिए देश भर से लाखों कारसेवक अयोध्या के लिए निकल चुके थे। लालू प्रसाद यादव की सरकार ने आडवाणी का रथ बिहार में रोककर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हालाँकि कारसेवक अयोध्या के लिए कूच करने लगे। उधर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली सरकार ने अयोध्या में कारसेवकों के घुसने पर रोक लगा दी। अयोध्या में कफ्र्यू था और भारी संख्या में पीएसी तैनात कर दी गयी थी। हालाँकि अशोक सिंघल, विनय कटियार और उमा भारती जैसे नेता कारसेवकों के साथ न सिर्फ अयोध्या में घुसे, बल्कि विवादित ढाँचे की ओर भी बढ़ गये। इसी बीच विवादित ढाँचे के ऊपर कारसेवकों ने भगवा झण्डा लहरा दिया। परिणामस्वरूप वहाँ अफरा-तफरी मच गयी। पीएसी ने कारसेवकों को खदेडऩे के लिए गोलीबारी की, जिसमें कई कारसेवकों की मौत हो गयी। 6 दिसंबर, 1992 को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा का आह्वान किया गया था, जिसके बाद लाखों कारसेवक भाजपा, विहिप, बजरंग दल और शिव सेना के नेताओं के नेतृत्व में वहाँ पहुँचे। और देखते-ही-देखते वहाँ बाबरी मस्जिद का विवादित ढाँचा गिरा दिया गया। यह मन्दिर आन्दोलन का सबसे अहम पड़ाव था।
इतिहास की बात करें, तो सन् 1885 में पहली बार फैज़ाबाद की एक अदालत में महंत रघुबीर दास ने मस्जिद के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। इसके बाद ही इस आन्दोलन के शुरुआती बीज पड़े थे। हालाँकि वास्तव में इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1949 में हुई थी। विवादित स्थल पर पहले से ही ताला लगा था; लेकिन सन् 1949 में बाबरी ढाँचे के भीतर भगवान राम की मूर्तियाँ मिली थीं और यहीं से आन्दोलन की असल नींव पड़ी। बाद में सरकार ने विवादित स्थल पर ताला जड़ दिया और सभी के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी। इसके बाद हिन्दू और मुस्लिम पक्षों ने अदालत में मुकदमे दर्ज करा दिये, जिसका पटाक्षेप 9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के साथ हुआ।
अयोध्या और फैज़ाबाद सीटें
राजनीतिक रूप से देखें, तो अयोध्या विधानसभा सीट पहली बार सन् 1967 में वजूद में आयी, जिसकी फैज़ाबाद संसदीय सीट पर सात बार कांग्रेस का कब्ज़ा रहा है। सरयू नदी के किनारे बसी भगवान राम की नगरी अयोध्या एक दौर में कौशल राज्य की राजधानी हुआ करती थी। नवाबों के दौर में फैज़ाबाद की नींव पड़ी और अवध रियासत की राजधानी बनी। सन् 2018 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैज़ाबाद ज़िले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया, हालाँकि यह लोकसभा सीट अभी भी फैज़ाबाद के नाम से ही जानी जाती है। वैसे सन् 1967 के चुनाव में अयोध्या विधानसभा सीट से जनसंघ के बृजकिशोर अग्रवाल ने जीत दर्ज की थी। फैज़ाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा का खाता सन् 1991 में खुला, जब विनय कटियार यहाँ से सांसद चुने गये। इसके बाद सन् 1996 में भी कटियार यहाँ से सांसद चुने गये थे; लेकिन सन् 1998 के चुनावों में सपा उम्मीदवार के हाथों विनय कटियार को हार का सामना करना पड़ा। सन् 1999 में वह एक बार फिर चुनाव जीतने में सफल रहे; लेकिन सन् 2004 में बसपा के मित्रसेन यादव से हार गये। इसके बाद सन् 2009 में कांग्रेस से निर्मल खत्री मौदान में उतरे और सांसद चुने गये। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लल्लू सिंह यहाँ से सांसद चुने गये, जिन्होंने सन् 2019 में दोबारा यहाँ से चुनाव जीता।
कितनी सुनवाइयाँ
यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले में कुल 39 सुनवाइयाँ हुईं। करीब 165 घंटे दोनों पक्षों की दलीलें सुनी गयीं। हिन्दू पक्षकारों ने पहले 16 दिन में 67.35 घंटे तक मुख्य दलीलें रखीं। वहीं मुस्लिम पक्षकारों ने 18 दिन में 71.35 घंटे तक अपनी मुख्य दलीलें रखीं। यह जानना भी दिलचस्प है कि इतने दिन तक चलने के बावजूद यह देश का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला यह सबसे बड़ा फैसला नहीं था। केशवानंद भारती का मामला सबसे लम्बा मुकदमा है, जो 68 दिन तक चला। इस लिहाज़ से अयोध्या ज़मीन विवाद दूसरा सबसे लम्बा मुकदमा है।
इस मामले में कुल 20 याचिकाएँ दायर की गयीं, जिनके प्रमुख याचिकाकर्ता (पक्षकार) रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड हैं। हालाँकि शिया सेंट्रल बोर्ड भी बाद में एक पक्षकार बना। शिया बोर्ड विवादित जगह पर राम मन्दिर ही बनाये जाने का समर्थक रहा।
सर्वोच्च न्यायालय के जिन जजों की बेंच ने इस मामले का फैसला नवम्बर, 2019 को सुनाया, उनमें प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई थे। वह अब राज्यसभा के सदस्य हैं।
उनके अलावा बेंच में जस्टिस शरद अरविंद बोबडे शामिल थे, जो अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश हैं। उनके अलावा जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर भी बेंच के सदस्य थे।
श्रीराम के नाम की तरह ही अयोध्या में बनने वाला भव्य राम मन्दिर भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का द्योतक होगा। मुझे विश्वास है कि यहाँ निर्मित होने वाला राम मन्दिर अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देगा। भगवान राम की अद्भुत शक्ति देखिए कि इमारतें नष्ट कर दी गयीं; अस्तित्व मिटाने का प्रयास भी बहुत हुआ; लेकिन राम आज भी हमारे मन में बसे हैं, हमारी संस्कृति का आधार हैं। श्रीराम भारत की मर्यादा हैं; मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम हमारे मन में गढ़े हुए हैं, हमारे भीतर घुल-मिल गये हैं। कोई काम करना हो, तो प्रेरणा के लिए हम भगवान राम की ओर ही देखते हैं।
हमें आपसी प्रेम, भाईचारे के संदेश से राम मन्दिर की शिलाओं को जोडऩा है। हमने जब-जब राम को माना है, विकास हुआ है; जब भी हम भटके हैं, विनाश हुआ है। सभी की भावनाओं का ध्यान रखना है। सबके साथ से और विश्वास से ही सबका विकास करना है। – नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
(शिलान्यास के बाद अपने सम्बोधन में।)
साल-दर-साल की घटनाएँ
सन् 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने उस जगह मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले तक विवादित कहा जाता था। हिन्दू पक्ष का दावा था कि यह जगह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहाँ पहले एक मन्दिर था।
सन् 1853 में इस जगह के आसपास पहली बार साम्प्रदायिक सौहार्द को चोट लगी, जब दो समुदायों में दंगे देखने को मिले।
सन् 1859 में तनाव देखते हुए अंग्रेजी शासन ने उस जगह बाड़ लगा दी, जिसे लेकर विवाद था। मुसलमानों को ढाँचे के अन्दर और हिन्दुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाज़त दी गयी।
सन् 1949 में ज़मीन को लेकर बड़ा विवाद तब शुरू हुआ, जब 23 दिसंबर, 1949 में भगवान राम की मूर्तियाँ मस्जिद में मिलीं। यह मूर्तियाँ मिलने के बाद हिन्दू पक्ष ने दावा किया कि वहाँ भगवान राम प्रकट हुए हैं। वहीं मुस्लिम पक्ष का आरोप था कि किसी ने चुपचाप मूर्तियाँ वहाँ रखीं। उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार ने यह मूर्तियाँ हटाने का आदेश दिया; लेकिन ज़िला मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने दंगों और हिन्दुओं की भावनाओं के भडक़ने के भय से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जतायी। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस स्थल को विवादित ढाँचा मानकर वहाँ ताला लगवा दिया।
सन् 1950 में फैज़ाबाद सिविल कोर्ट में दो अर्जियाँ दायर की गयीं। इनमें से एक में राम लला की पूजा की इजाज़त और दूसरे में विवादित ढाँचे में भगवान राम की मूर्ति रखे रहने की इजाज़त माँगी गयी थी। नौ साल बाद सन् 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी अर्जी दायर की।
सन् 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अर्जी दाखिल करके विवादित जगह परकब्ज़े और मूर्तियाँ हटाने की माँग उठायी।
सन् 1984 में विवादित ढाँचे की जगह मन्दिर बनाने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् ने एक समिति का गठन किया।
सन् 1986 में याचिकाकर्ता यू.सी. पांडे की याचिका पर फैज़ाबाद के ज़िला जज के.एम. पांडे ने 01 फरवरी, 1986 को हिन्दुओं को पूजा करने की इजाज़त देते हुए ढाँचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया।
6 दिसंबर, 1992 को भाजपा, विहिप और शिवसेना समेत अन्य हिन्दू संगठनों के लाखों कार्यकर्ता विवादित ढाँचे पर पहुँचे और उसे ढहा दिया। इस घटना से देश भर में साम्प्रदायिक तनाव पैदा हुआ और दो समुदायों के बीच दंगे भडक़े गये। एक अनुमान के मुताबिक, इस भयावह स्थिति में करीब 2000 लोगों की जान चली गयी।
सन् 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा के बीच तीन बराबर हिस्सों में बाँटने का आदेश दिया।
सन् 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी।
सन् 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट का आह्वान किया। भाजपा के शीर्ष नेताओं पर आपराधिक साज़िश के आरोप दोबारा बहाल किये।
8 मार्च, 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को मध्यस्थता के लिए पैनल को भेजा और उससे आठ हफ्ते के भीतर कार्यवाही पूरी करने को कहा।
01 अगस्त, 2019 को मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट पेश की।
02 अगस्त, 2019 को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मध्यस्थता पैनल मामले का समाधान निकालने में विफल रहा।
06 अगस्त, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या मामले की रोज़ाना सुनवाई शुरू की, जो लगातार 40 दिन चली।
16 अक्टूबर, 2019 को अयोध्या मामले की सुनवाई पूरी हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रखा।
9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने मन्दिर के हक में फैसला सुनाया।
5 फरवरी, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र नाम से एक न्यास की घोषणा की। मन्दिर निर्माण के लिए इस ट्रस्ट को 2.77 एकड़ की ज़मीन सौंपी गयी थी, जबकि 67.703 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किये जाने की मंज़ूरी दी गयी थी।
5 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में रामजन्मभूमि का भूमि पूजन करके मन्दिर की आधारशिला रखी। इसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व राज्य स्तरीय नेता तक पहुँचे; लेकिन मन्दिर आन्दोलन के सबसे बड़ा चेहरा रहे लाल कृष्ण आडवाणी और उनके साथी मुरली मनोहर जोशी के अलावा बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार भी शामिल नहीं हुए।
मन्दिर आन्दोलन से जुड़े साधु-सन्त और नेता
महंत रघुबर दास : अंग्रेजों के दौर में अयोध्या में पहली बार सन् 1853 में निर्मोही अखाड़े ने दावा किया कि मन्दिर को तोडक़र मस्जिद बनवायी गयी। विवाद हुआ, तो प्रशासन ने विवादित स्थल पर मुस्लिमों को अन्दर इबादत और हिन्दुओं को बाहर पूजा की अनुमति दे दी; लेकिन मामला शान्त नहीं हुआ। सन् 1885 में महंत रघुबर दास ने मामले को लेकर फैज़ाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद के पास राम मन्दिर के निर्माण की इजाज़त के लिए अपील दायर की और राम चबूतरे को जन्मस्थान बताया और वहाँ एक मण्डप बनाने की माँग की। यह अयोध्या विवाद से जुड़ा हुआ पहला मुकदमा था। उनकी अपील खारिज हो गयी; लेकिन मार्च, 1886 में वह ज़िला जज फैज़ाबाद कर्नल एफईए कैमियर की अदालत में पहुँचे, जिन्होंने फैसले में कहा कि मस्जिद हिन्दुओं की जगह पर बनी है। हालाँकि यह भी कहा कि अब देर हो चुकी है और इतने साल पुरानी गलती को अब सुधारना मुमकिन नहीं है, इसीलिए यथास्थिति रखी जाए।
बैरागी अभिराम दास : बिहार के दरभंगा में पैदा हुए बैरागी अभिराम दास रामानंदी सम्प्रदाय के संन्यासी थे और उनका नाम 22-23 दिसंबर, 1949 की दरम्यानी रात राम जन्म स्थान पर विवादित ढाँचे के भीतर भगवान राम की प्रतिमा के प्रकटीकरण के सम्बन्ध में सामने आया था। इस सम्बन्ध में तत्कालीन प्रशासन द्वारा दायर प्राथमिकी में उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया गया था। अयोध्या में उन्हें योद्धा साधु पुकारा जाता था। हिन्दू महासभा के सदस्य रहे अभिराम दास का सन् 1981 में देहांत हुआ।
देवराहा बाबा : आध्यात्मिक संन्यासी देवराहा बाबा के जन्मस्थान और वर्ष के बारे में जानकारी हमेशा रहस्य में रही है। उत्तर प्रदेश के देवरिया में सरयू नदी के किनारे उनका निवास रहा। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक को उनका शिष्य माना जाता है। जनवरी, 1984 में प्रयागराज के कुम्भ में आयोजित धर्म संसद की अध्यक्षता उन्होंने ही की थी; जिसमें विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेताओं ने मिलकर 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में राम मन्दिर की नींव रखने का फैसला किया था।
मोरोपन्त पिंगले : नागपुर के मॉरिस कॉलेज के ग्रेजुएट और आरएसएस के प्रचारक पिंगले परदे के पीछे काम करने वाले रणनीतिकार माने जाते हैं। सभी प्रमुख यात्राओं और तमाम देशव्यापी अभियानों को आरम्भ करने में उनकी अहम भूमिका रही। शिला पूजन कार्यक्रम भी इसमें शामिल है; जिसके तहत तीन लाख से भी अधिक ईंटें अयोध्या पहुँचायी गयी थीं।
महंत अवैद्यनाथ : 1980 के दशक के मध्य में महंत अवैद्यनाथ राम मन्दिर आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए गठित रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के प्रथम प्रमुख और रामजन्मभूमि न्यास समिति के अध्यक्ष थे। वह उत्तर प्रदेश के गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ के अनुयायी बने और सन् 1940 में संन्यासी के रूप में महंत अवैद्यनाथ का नाम धारण किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में वह भी एक आरोपी बने।
स्वामी वामदेव : सन् 1984 में जयपुर में अखिल भारतीय सम्मेलन के ज़रिये तमाम हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं को एक मंच पर लाने में अहम भूमिका निभायी। तब 400 से भी अधिक हिन्दू धार्मिक नेताओं ने 15 दिन तक विचार मंथन करके आन्दोलन का रोडमैप तैयार किया था। स्वामी वामदेव ने सन् 1990 में अयोध्या में कारसेवकों का आगे बढक़र नेतृत्व किया था। मुलायम सिंह यादव सरकार के आदेश पर पुलिस द्वारा की गयी गोलीबारी में इनमें से कई की मौत हो गयी। स्वामी वामदेव 6 दिसंबर,1992 को अयोध्या में थे, जब बाबरी मस्जिद गिरायी गयी।
श्रीश चंद्र दीक्षित : उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत्त डीजीपी श्रीश चंद्र दीक्षित ने राम मन्दिर आन्दोलन में कार सेवकों के लिए नायक की भूमिका निभायी थी। सेवानिवृत्त होने के बाद वह विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) से जुड़ गये और केंद्रीय उपाध्यक्ष बन गये। प्रशासन से नज़रें बचाकर कारसेवकों को अयोध्या पहुँचाना हो या फिर कानून को धता बताकर कार सेवा करवाना; इन कामों में श्रीश चंद्र दीक्षित ने बड़ी भूमिका निभायी थी। सन् 1991 के लोकसभा चुनाव में श्रीश चंद्र दीक्षित काशी से जीतकर सांसद बने।
विष्णु हरि डालमिया : व्यापारी परिवार के डालमिया सन् 1992 से सन् 2005 तक विहिप के अध्यक्ष रहे। वह रामजन्मभूमि आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे। सन् 1985 में श्रीराम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ, तो उन्हें कोषाध्यक्ष बनाया गया। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया।
दाऊ दयाल खन्ना : राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महासचिव के रूप में खन्ना ने मन्दिर आन्दोलन का आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभायी थी। आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस में रहे खन्ना ने सन् 1983 में एक जनसभा में अयोध्या, मथुरा और काशी (वाराणसी) में मन्दिरों के पुनर्निर्माण का मुद्दा उठाया था। सितंबर, 1984 में बिहार के सीतामढ़ी से मन्दिर आन्दोलन के लिए पहली यात्राओं में से एक की अगुआई की।
कोठारी बन्धु : राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी सगे भाई थे; जो अक्टूबर, 1990 में कारसेवा में भाग लेने के लिए अयोध्या आये थे। उन्होंने कारसेवकों के पहले जत्थे के सदस्यों के रूप में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवा की थी। दो दिन बाद, 02 नवंबर को कारसेवा के ही दौरान पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली से उनकी मौत हो गयी। इससे देश भर में नाराज़गी के स्वर उभरे। रामजन्मभूमि आन्दोलन में उन्हें नायक और शहीद का दर्जा दिया गया।
के.के. नायर : केरल के अलप्पी के रहने वाले के.के. नायर की भी राम मन्दिर मामले में अहम भूमिका रही। नायर सन् 1949 में फैज़ाबाद के कलेक्टर बने और उसी साल विवादित स्थल पर राम की मूर्ति रखी गयी। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पन्त के कहने के बावजूद नायर ने मूर्ति को हटवाने के आदेश को नहीं माना। नायर सन् 1952 में सेवानिवृत्ति लेकर जनसंघ (जो इसके संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के रूप में बदल गया) से जुड़ गये। वह अवध में हिन्दुत्व के बड़े प्रतीक बन गये और बाद में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुँचे। उनके अलावा सुरेश बघेल और गोपाल सिंह विशारद का भी आन्दोलन में बड़ा रोल रहा।
अशोक सिंघल : विश्व हिन्दू परिषद् को बड़ी पहचान दिलाने और अशोक सिंघल का राम मन्दिर आन्दोलन में बड़ा योगदान रहा। देश और विदेश में मन्दिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने और आन्दोलन में उनकी बड़ी और आक्रामक भूमिका रही। सन् 1981 में विहिप से जुडऩे वाले सिंघल के नेतृत्व में ही सन् 1984 में विशाल धर्म संसद का आयोजन किया गया। इसी धर्म संसद में राम मन्दिर निर्माण को लेकर निर्णायक आन्दोलन शुरू करने का संकल्प लिया गया था। इसके अलावा सन् 1989 में अयोध्या में विवादित स्थल के पास राम मन्दिर निर्माण की आधारशिला रखने में भी सिंघल का अहम योगदान था। अपनी फायरब्रांड छवि के कारण सिंघल राम भक्तों और हिन्दुओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए। सन् 2015 में उनका निधन हो गया।
लालकृष्ण आडवाणी : आडवाणी ने इस आन्दोलन को राजनीतिक मुद्दा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी थी। भाजपा अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने सन् 1990 में राम मन्दिर निर्माण के लिए जगन्नाथ पुरी से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली, जिस पर नरेंद्र मोदी की एक तरह से सारथी की भूनिका थी। आडवाणी का लक्ष्य 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचना था; लेकिन 23 अक्टूबर को बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार ने उन्हें रोककर गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 6 दिसंबर, 1992 को जिस दिन विवादित ढाँचा ढहाया गया था, उस दिन आडवाणी भी वहीं थे। भाजपा, विहिप और बजरंग दल के अन्य नेताओं के साथ वहाँ मौज़ूद आडवाणी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे और मंच से भाषण दे रहे थे। देखते-ही-देखते कारसेवकों ने विवादित ढाँचा गिरा दिया। इस मामले में आडवाणी समेत मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विनय कटियार, उमा भारती, विष्णु हरि डालमिया और साध्वी ऋतंभरा पर साज़िश का मुकदमा दर्ज किया गया।
कल्याण सिंह : विवादास्पद ढाँचा विध्वंस के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह की छवि हिन्दू हृदय सम्राट की बनी। मुख्यमंत्री न रहते हुए भी उन्होंने मन्दिर आन्दोलन में लगातार अहम भूमिका निभायी। सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय को विवादित ढाँचे की सुरक्षा का हलफनामा दिया। विवादित ढाँचा टूटने के बाद उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गयी। कल्याण सिंह बाद में भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। फिर उनका भाजपा में आना-जाना लगा रहा। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उन्हें राज्यपाल बनाया गया और फिलहाल सक्रिय राजनीति से दूर हैं।
मुरली मनोहर जोशी : भाजपा का प्रमुख चेहरा रहे मुरली मनोहर जोशी ने भी इस आन्दोलन में अहम भूमिका निभायी। आडवाणी की तरह विवादास्पद ढाँचा विध्वंस मामले में आरोपी बनाये गये। अब आडवाणी की तरह ही सक्रिय राजनीति से दूर हैं।
उमा भारती : राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान साध्वी उमा भारती जनसभाओं में विहिप और भाजपा की मुख्य वक्ताओं में थीं। उन्होंने सन् 1990 से 1992 के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। विवादास्पद ढाँचा विध्वंस मामले में आरोपी उमा बाद में वाजपेयी और मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बनीं। फिलहाल खुद संसदीय राजनीति से दूर हैं।
विनय कटियार : बजरंग दल की स्थापना कटियार ने ही की थी। वह राम मन्दिर आन्दोलन से बहुत सघन रूप से जुड़े रहे। उन्हें इस आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा माना जाता है। फैज़ाबाद से वह तीन बार सांसद भी रहे हैं। कटियार भी 5 अगस्त के भूमि पूजन कार्यक्रम में नहीं पहुँचे।
मन्दिर ट्रस्ट के चेहरे
महंत नृत्य गोपाल दास : राम मन्दिर आन्दोलन में जिन प्रमुख सन्तों ने अयोध्या में सडक़ से लेकर न्यायालय तक संघर्ष किया, उनमें सबसे प्रमुख महंत नृत्य गोपाल दास हैं। महंत नृत्य गोपाल दास को श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। दशकों से नृत्यगोपाल दास राम मन्दिर आन्दोलन के संरक्षक की भूमिका में रहे हैं। मन्दिर निर्माण के लिए चंदा जुटाने से लेकर कई काम इन्हीं के नेतृत्व में होते आये हैं। नृत्य गोपाल दास को 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों के बाबरी मस्जिद ढहाये जाने की घटना के पहले और बाद में कांग्रेस, बसपा और सपा सरकारों की तरफ से कई तरह से विरोध सहना पड़ा।
चंपत राय : विहिप के उपाध्यक्ष चंपत राय लम्बे समय से राम मन्दिर आन्दोलन से जुड़े रहे हैं। राय के पास विहिप के विस्तार का ज़िम्मा भी रहा। चंपत राय को श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव जैसे अहम पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। ट्रस्ट की बैठक हो या राम मन्दिर से सम्बन्धित कोई मुद्दा, चंपत राय द्वारा ही अधिकृत किया जाता रहा है। राम मन्दिर आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन बनाने में चंपत राय की अहम भूमिका रही है।
के. परासरन : सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील के.परासरन श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में सदस्य हैं। परासरन लम्बे वक्त से सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दू पक्ष की पैरवी करते आये हैं। मन्दिर के पक्ष में फैसला आने में इनका अहम योगदान रहा है। परासरन को पद्म भूषण और पद्म विभूषण जैसे सम्मान भी मिल चुके हैं।
नृपेंद्र मिश्रा : अयोध्या में बनने जा रहे राम मन्दिर की सबसे महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी पूर्व आईएएस नृपेंद्र मिश्रा के पास है। मिश्रा राम मन्दिर निर्माण समिति के अध्यक्ष बनाये गये हैं। मिश्रा को निर्माण समिति का अध्यक्ष इसलिए बनाया गया है, ताकि मन्दिर तय सीमा में बिना किसी विवाद के साथ पूरी भव्यता के साथ तैयार हो सके। मिश्रा 1967 बैच के यूपी काडर के आईएएस अधिकारी रहे हैं।
देव गिरि जी महाराज : स्वामी देव गिरी महाराज के पास श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी है। मन्दिर निर्माण के लिए जुटाये जाने वाले चन्दे का पूरा लेखा-जोखा इन्हीं के पास है। वह रामायण, श्रीभगवत्गीता सहित पौराणिक ग्रन्थों का देश-विदेश में प्रवचन करते हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती के साथ-साथ संस्कृत भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ है। गीता परिवार की स्थापना उन्होंने ही की थी।
कामेश्वर चौपाल : कामेश्वर चौपाल बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में हैं। चौपाल राम जन्मभूमि आन्दोलन से जुड़े, फिर विहिप से जुड़े, बाद में भाजपा में आये। उन्हें श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में दलित समुदाय के सदस्य के तौर पर शामिल किया गया है। सन् 1989 के राम मन्दिर आन्दोलन के समय हुए शिलान्यास में चौपाल ने ही राम मन्दिर की पहली ईंट रखी थी।
देश के बड़े मुद्दे
अर्थ-व्यवस्था : कोरोना वायरस महामारी ने दुनिया भर की अर्थ-व्यवस्था को बेहद प्रभावित किया है। विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री, कौशिक बसु ने हाल ही में कहा है कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की हालत नाज़ुक है। सम्भावना है कि सन् 1947 के बाद 2020-21 में सबसे कम विकास होगा। एक ट्वीट में उन्होंने पहले भी कहा था कि देश की आर्थिक वृद्धि सामाजिक मानदण्डों, राजनीतिक संस्कृति और संस्थानों पर निर्भर करती है, और ये सन् 2016 से भारत में खराब हो रहे हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि यदि इन चीज़ों में सुधार नहीं हुआ, तो भारतीय सपना टूट जाएगा। सामाजिक सामंजस्य के टूटने से भारत आहत होने लगा है। भारत की तेज़ आर्थिक मंदी कोविड-19 महामारी से दो साल पहले शुरू हुई थी। अर्थ-व्यवस्था अकेले आर्थिक नीति पर निर्भर नहीं करती है।
किसान : सरकार ने हाल में लोकसभा में बताया था कि कृषि ऋण के कारण किसानों की आत्महत्या के बारे में सन् 2016 के बाद से कोई आँकड़ा उपलब्ध नहीं है; क्योंकि गृह मंत्रालय ने अभी तक इसके बारे में रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है। सदन में पेश आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 में किसानों की आत्महत्या के मामलों की संख्या 3,097 और सन् 2014 में 1,163 थी। हालाँकि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय को बताया था कि किसानों की आय और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सन् 2013 से हर साल 12,000 से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
बेरोज़गारी : देश में कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने रोज़गार से जुड़ी समस्याओं को विकराल कर दिया है। रिपोट्र्स के मुताबिक, लॉकडाउन के कारण देश में हर पाँचवाँ व्यक्ति बेरोज़गार हो गया है। इस लॉकडाउन अवधि के दौरान करीब 24 फीसदी लोगों ने अपनी नौकरी गँवायी है। हाल ही में आईएएनएस-सीवोटर के एक सर्वे में बताया गया है कि इस दौरान 21.57 फीसदी लोगों की पूरी तरह छटनी हो गयी है, जबकि 25.92 फीसदी लोग अभी तक उसी आय या वेतन पर सुरक्षा उपायों के तहत काम कर रहे हैं। वहीं 7.09 फीसदी लोग घरों से काम कर रहे हैं और उनके वेतन में किसी प्रकार की कटौती की गयी है या नहीं की गयी है। देश के 23.97 लोगों ने कहा है कि लॉकडाउन लागू होने के बाद उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
कोरोना : सरकार के शुरुआती दावों के विपरीत देश में यह रिपोर्ट फाइल होने तक कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 50 हज़ार की तरफ बढ़ती दिख रही है। अभी बड़ी संख्या में मरीज़ सामने आ रहे हैं और सरकार के लिए यह महामारी एक बड़ी चुनौती है
पड़ोसी देशों का अतिक्रमण : हाल ही में चीन के अलावा नेपाल ने भारत की सीमा में मौखिक रूप से अतिक्रमण की कोशिश की। चीन की सेना के तो बाकायदा गलवान घाटी में घुसने की बात भी सामने आयी, जिसमें हमारे 20 जवान भी शहीद हो गये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की सेना द्वारा किसी भी प्रकार की घुसपैठ से इन्कार किया; लेकिन बाद में रक्षा मंत्रालय ने इस बात की पुष्टि की कि चीन की सेना भारत की सीमा में अतिक्रमण कर रही है। मगर उसके बाद इस पोस्ट को रक्षा मंत्रालय की साइट से हटा लिया गया। हाल में भी खबरें आयीं कि चीन की सेना ने लद्दाख सीमा पर टैंक तैनात किये हैं। लेकिन सरकार अब भी खामोश है। इसके अलावा पाकिस्तान ने हाल ही में अपना नया नक्शा जारी किया है, जिसमें उसने भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर, गिलगित-बाल्टिस्तान, लद्दाख, सर क्रीक और सौराष्ट्र के जूनागढ़ को भी अपने हिस्से में दिखाया है।
कुछ ऐसा होगा राम मन्दिर
राम मन्दिर तीन मंज़िल का होगा। मन्दिर की लम्बाई 280 से 300 फीट होगी; जबकि चौड़ाई 272-280 फीट के आसपास। मन्दिर की ऊँचाई 161 फीट होगी। इसके नये नक्शे में पाँच गुम्बद रखे गये हैं। पूरे मन्दिर में 318 स्तम्भ होंगे और हर तल पर 106 स्तम्भ बनाये जाएँगे। गर्भ गृह और सिंह द्वार के नक्शे में भी कोई बदलाव नहीं होगा। राम मन्दिर के अग्रभाग, सिंह द्वार, नृत्य मण्डप और रंग मण्डप को छोडक़र बाकी सभी हिस्से का नक्शा बदला जाएगा। मन्दिर के नये नक्शे पर वास्तुविद् चंद्रकान्त सोमपुरा काम कर रहे हैं। वास्तुविद् सोमपुरा ने बताया कि राम जन्मभूमि का मन्दिर मॉडल नागर शैली में बना है। उत्तर भारत में यही शैली प्रचलित है। इस मन्दिर के निर्माण में प्राचीन वैदिक परम्परा के सभी मानकों का पालन किया जाएगा। इस मन्दिर के निर्माण के बाद यह अपने आपमें अद्भुत होगा। क्योंकि भारत में यह राम मन्दिर अपने आप में दूसरे मन्दिरों से काफी अलग और अद्भुत होगा। इसके अलावा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मन्दिर के शिखर की परछाई कभी ज़मीन पर नहीं आनी चाहिए। इसका शास्त्रीय निषेध है। यही कारण है कि प्राचीनकाल के मन्दिर तो भव्य होते थे, लेकिन गर्भगृह जहाँ भगवान विराजमान होते हैं, वह अपेक्षाकृत छोटा होता है।
चंद्रकान्त सोमपुरा के दोनों बेटे निखिल और आशीष इंजीनियर हैं; जो मन्दिर के नक्शे में वास्तु के लिहाज़ से बदलाव पर काम करेंगे। सबसे पहले मूल मन्दिर का ढाँचा खड़ा करने पर ही फोकस होगा। इसके लिए 200 फीट गहराई में नींव की खुदाई की जाएगी और स्तम्भ खड़े किये जाएँगे। टीले पर स्थित राम जन्मभूमि के निर्माणाधीन मन्दिर को भूकम्प रोधी बनाने के लिए गहरी नींव खोदी जाएगी। नींव भरने के बाद मन्दिर का ढाँचा खड़ा किया जाएगा। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय का कहना है कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मन्दिर निर्माण के लिए 70 एकड़ ज़मीन मिल जाएगी।
मन्दिर भूमि को छोडक़र शेष भूमि पर यात्री सुविधाओं का विकास, दर्शनीय स्थल और भगवान के जीवन चरित्र का गुणगान करते हुई कहानियों के चलचित्र भी डिजिटल तरीके से संचालित होंगे। मन्दिर परिसर में कथा सत्संग के लिए भी स्थान तय किया जाएगा। पुजारियों व कर्मचारियों के आवास की व्यवस्था भी परिसर में होगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि अयोध्या पर अगले पाँच साल तक सरकार का फोकस बेहतर सडक़ें, हवाई अड्डा और फाइव स्टार होटल जैसी सुविधाएँ देने का होगा।