आसमान में धान बोने वाले विद्रोही कविता की नयी खेती कर रहे हैं

कवि रमाशंकर ‘विद्रोही’ को हिंदी साहित्य से जुड़े ज्यादातर लोग नहीं जानते, या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि जानने के बाद भी पहचानने से इनकार करते हैं क्योंकि विद्रोही की लोकचेतना आम तौर पर मौजूदा हिंदी साहित्य में व्याप्त नगरीय बोध के खांचों में नहीं अंटती. लोग उससे आक्रांत हो उठते हैं. जिस दौर में कविता सुनाई नहीं जाती, पढ़ी जाती है उसी दौर में विद्रोही संग्रह भर कविताएं बिना लिखे ही सुना देते हैं. यानी कविता के साथ विद्रोही का जीवन राग जुड़ गया है; विद्रोही और कविता अलग-अलग नहीं हैं. इस नृशंस समय में ऐसा होना स्वयं को अरक्षित कर लेना है, या कहें कत्ल होने के लिए प्रस्तुत कर देना है. लेकिन, विद्रोही आलोचकों-कवियों की उपेक्षा के प्रहार से मरने की जगह ‘सारे बड़े-बडे़ लोगों’ को मार कर मरने का मंसूबा पाले हुए हैं.

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में पैदा हुए विद्रोही ने 1980 के दशक में दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था. स्वभाव से फक्कड़ विद्रोही का मन आंदोलनों और कविता के साथ ऐसा रमा कि वे सदैव के लिए जेएनयू के हो लिए. आज भी छात्रों के जनवादी, लोकतांत्रिक आंदोलन विद्रोही के बगैर पूरे नहीं होते. आम तौर पर हिंदी में बात करने वाले विद्रोही जैसे ही यह समझ जाते हैं कि कोई व्यक्ति अवध क्षेत्र का रहने वाला है, तत्काल अवधी पर उतर आते हैं और फिर तो आत्मीय संबोधन ‘राजू!’ के साथ बातों का जो दौर शुरू होता है वह रुकने का नाम ही नहीं लेता. पहनावे-ओढ़ावे पर एकदम ही ध्यान न देने वाले विद्रोही सिर्फ ‘कविता’ करते हैं और जब लोग उनसे पूछते हैं कि क्या कर रहे हैं, तो वे खीझ जाते हैं. विद्रोही के सामने जेएनयू में छात्रों की कई पीढ़ियां आईं और गईं. विद्रोही सबके उतने ही अजीज रहे. ऐसा हरगिज नहीं कि विद्रोही का स्वभाव बहुत मृदु है, लेकिन उनमें मनुष्यों के बारे में आकलन की अद्भुत क्षमता है. ज्यादा तीन-तिकड़म वालों से भिड़ जाना उनकी फितरत का हिस्सा है. कुछ वर्ष पहले विद्रोही का चरित्र हनन करने के मकसद से हिंदी के सी ग्रेड कहानीकार ने एक कहानी लिखी थी, जिसके अंत में विद्रोही की मृत्यु दिखाई गई थी. जब उन्हें इस बारे में पता चला तो पहले तो बहुत क्रुद्ध हुए फिर बोले ‘हमारी मृत्यु की कामना इतनी आसानी से पूरी नहीं होने वाली.’

जेएनयू उनके जीवन का और वे जेएनयू के अभिन्न हिस्से हो चुके हैं. जेएनयू प्रशासन के खिलाफ आंदोलन के क्रम में अस्सी के दशक में विद्रोही को कैंपस से निष्कासित कर दिया गया था. तब से अब तक कई कुलपति आए और गए लेकिन विद्रोही हर किसी के खिलाफ छात्रों के आंदोलन के साथ नारा लगाते हुए देखे गये. जाहिर है, इस दौर में छात्र रहे कई लोग आज सत्ता में हैं या ऊंचे पदों पर हैं. लेकिन, विद्रोही ने कभी भी इनके साथ पहचान के आधार पर न कोई तकाजा किया और न ही इनके सामने अपने आत्मसम्मान पर कोई ठेस लगने दी. उनके खाने-पीने का खर्च और बाकी जरूरतों का जेएनयू में उनके चाहने वाले ध्यान रख लेते हैं.

फक्कड़पने का आलम यह है कि बैंक खाता, पहचानपत्र या कुछ भी और जिसे विद्रोही की पहचान का दस्तावेज माना जा सके, उनके पास नहीं है.

फक्कड़पने का आलम यह है कि बैंक खाता, पहचानपत्र या कुछ भी और जिसे विद्रोही की पहचान का दस्तावेज माना जा सके, उनके पास नहीं है. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने के लिए जब वे बहुत-से लोगों के साथ दिल्ली से भिलाई जा रहे थे तो एक बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ. बीच में कहीं टिकट चेकिंग के दौरान टीटी को लगा कि वे किसी और के टिकट पर यात्रा कर रहे हैं. फटेहाल दिखने वाले विद्रोही के बारे में उसके लिए यह कल्पना करना ही मुश्किल था कि उनका रिजर्वेशन भी हो सकता है. गरीबों के प्रति हेय दृष्टि का आलम यह था कि तमाम लोगों के बहुत समझाने के बाद भी वह आई-कार्ड देखने के लिए अड़ा रहा. लेकिन विद्रोही का तो इन चीजों से कभी कोई वास्ता रहा ही नहीं. जब विद्रोही अपने तेवर में दिखे तो टीटी को वहां से खिसकने में ही भलाई समझ में आई.

विद्रोही जैसे दिखते हैं, वैसे ही लोगों के साथ उनकी कविता भी है. कई बार वे पुराने कवियों से होड़ करते भी दिखाई पड़ते हैं. उनके अपने गृहजनपद सुल्तानपुर के ही प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि त्रिलोचन की कवित ‘नगई महरा’ का हिंदी कविता में विशेष स्थान है. विद्रोही की कविता ‘कन्हई कहार’ त्रिलोचन की कविता से होड़ लेती दिखाई पड़ती है. स्त्रियां, दलित, पिछड़े यहां तक कि उपेक्षित पशु-पक्षी तक के प्रति विद्रोही की कविता आत्मीयता और करुणा से भरी हुई है. धर्मसत्ता, राजसत्ता, साम्राज्यवाद और सामंतवाद अपने बारीक और खूबसूरत नकाब में भी विद्रोही की आंखों को चकमा नहीं दे पाता. वे पूरी दुनिया के अत्याचार और उसके मूल कारण को बेपर्दा करते चलते है. ‘राजा किसी का नहीं होता/ लक्ष्मी किसी की नहीं होती/ धर्म किसी का नहीं होता/ लेकिन सब राजा के होते हैं/ गाय भी, गंगा भी, गीता भी और गायत्री भी.’

राजाओं द्वारा हर जगह मारा जाने वाला कमजोर जब संगठित होता है तो आदिविद्रोही ‘स्पार्टकस’ की परंपरा के साथ अपने को जोड़ लेता है. तब रोम की सीनेट से लेकर भारत के संसद भवन तक सत्ता के सामने चुनौती की तरह खड़ा होता है- ‘मैं/ स्पार्टकस का वंशज/ स्पार्टकस की प्रतिज्ञाओं/ के साथ जीता हूं-/ जाओ कह दो सीनेट से-/ कि हम सारी दुनिया के गुलामों को इकट्ठा करेंगे/ और एक दिन रोम आएंगे जरूर.’ वंचितों के विद्रोह की इतनी बड़ी परंपरा से जुड़कर विद्रोही की कविता हिंदी कविता के मौजूदा संकट को हल करने का रास्ता भी दिखाती है. जब इस दौर में हिंदी कविता के पाठक महज कुछ सौ लोग हैं, विद्रोही की कविताएं हजारों लोगों को ऐसे ही याद हैं. ऐसे लोगों को याद हैं जिनका साहित्य से कोई वास्ता नहीं है. जाहिर है, विद्रोही जनता का नया काव्य संस्कार गढ़ रहे हैं. जंतर-मंतर से जेएनयू तक ही नहीं विद्रोही पटना, भिलाई, गोरखपुर सहित कई दूसरी जगहों पर अपनी कविता के साथ लोगों से सीधा संवाद कर रहे हैं. विद्रोही को पाठकों/श्रोताओं का कोई टोटा नहीं है. जन संस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल से छपा उनकी कविताओं का एकमात्र संग्रह ‘नयी खेती’ छपने के कुछ महीनों के भीतर ही समाप्त होने के कगार पर है. इस संग्रह के विमोचन के कार्यक्रम के दौरान विद्रोही मिलिट्री प्रिंट वाली ढीली पैंट और एक ओवरकोट पहने देखे गए थे. उनकी कविता की मूल प्रवृत्ति ही उसका वाचिक होना है. जिसने भी विद्रोही की कविताएं सुनी हैं, उसे उन्हें पढ़ते समय विद्रोही की आवाज की कमी महसूस होती है. लेकिन बार-बार सुने लोग जब कविता पढ़ते हैं, तो उनके कानों में विद्रोही की आवाज गूंजती रहती है. युवा फिल्मकार नितिन पमनानी ने विद्रोही पर ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ नाम से एक फिल्म भी बनाई है. बावजूद इसके मुख्यधारा की हिंदी आलोचना ने अभी उन्हें चर्चा के योग्य नहीं माना है. लेकिन विद्रोही को इसकी कतई परवाह नहीं है. वे आलोचकों और प्रकाशकों की कृपा से नहीं, अपनी कविता और उसमें मौजूद जनता के अक्स के बूते जिंदा हैं.