उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का महासमर चल रहा है। चुनाव में इस बार भी पिछली बार की तरह तमाम लुभावने वादे राजनीतिक दलों द्वारा जनता से किये जा रहे हैं। वहीं केंद्र की और प्रदेश की भाजपा सरकार पर सपा, कांग्रेस और बसपा सहित अन्य राजनीतिक विरोधी दल प्रदेश की राजनीति में केंद्र सरकार और राज्य सरकार पर जमकर हमला बोल रहे हैं और भाजपा को घेरने में लगे हैं। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति गर्म है। सियासी शब्दों के तीरों से हमले किये जा रहे हैं।
इस बार के चुनाव में मतदाता ख़ामोश होकर अपने नेता को चुनने पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है। वैसे तो प्रदेश में तमाम मुद्दे हैं; लेकिन जातीय और धार्मिक मुद्दों का उत्तर प्रदेश की राजनीति से गहरा नाता रहा है। वहीं प्रदेश के चुनाव में बीचों-बीच में सबसे गर्म मुद्दा अगर कोई है, तो वह है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ का, जो इन दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय से ज़मानत मिलने के बाद सुर्ख़ियों में है। बताते चलें कि लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर, 2021 को किसान आन्दोलन कर रहे किसानों पर आशीष मिश्रा ‘मोनू’ ने कार चढ़ा दी थी, जिसमें चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत हो गयी थी। तबसे लेकर अब तक सभी सियासी दलों ने आशीष मिश्रा के साथ भाजपा पर भी तानाशाही और सत्ता के नशे में चूर होने का आरोप लगाया है। इस घटना के चलते किसानों और दूसरे लोगों में भी भाजपा के ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ी है।
किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने ‘तहलका’ संवाददाता से कहा कि प्रदेश के किसान सरकारी नीतियों के चलते तो परेशान हैं ही, केंद्र सरकार में मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ ने अपनी बड़ी कार से जो किसानों को रौंदा है, उससे राजनीति तो क्या, मानवीय संवेदनाएँ भी शर्मसार हो गयी हैं। प्रदेश में किसानों का ग़ुस्सा तो चुनाव परिणाम में देखने को मिलेगा। चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि प्रदेश सरकार पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगता रहा है। क्योंकि कानपुर वाले विकास दुबे की कार पटलने से जो नाटकीय अंदाज़ में मौत हुई थी और प्रदेश में कई ब्राह्मणों की जो हत्या हुई है, उससे प्रदेश के ब्राह्मणों में सरकार के प्रति काफ़ी नाराज़गी, आपत्ति और रोष भी है। ऐसे में ब्राह्मणों को और नाराज़ न करने के लिए केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का इस्तीफ़ा तक सरकार ने नहीं माँगा और न ही अजय मिश्रा ने इस्तीफ़ा दिया है। जबकि प्रदेश में किसानों और विपक्षी नेताओं ने राज्य से लेकर संसद तक में अजय मिश्रा की इस्तीफ़े की माँग उठायी है। बताते चलें कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मौज़ूदा समय में सपा और भाजपा के बीच चुनावी टक्कर है। हर बार की तरह इस बार चुनावी समीकरण साधने के लिए राजनीतिक दलों ने दो प्रयोग हठ के किये हैं। इनमें ब्राह्मण और किसानों को साधा गया है, जो कि अभी तक प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम-यादव (एम-बाई) फैक्टर को साधने के प्रयास किये जाते रहे हैं।
चुनावी माहौल में भाजपा नेताओं ने नाम न छापने पर बताया कि सरकार से कुछ ग़लतियाँ हुई हैं। उसको पाटने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। और इस बात पर भी अब ज़्यादा ग़ौर किया जा रहा कि अभी जनता को किसी तरह अपने प्रभाव में लिया जाए। लेकिन सोशल मीडिया के युग में कोई भी ग़लतियाँ या अपराध छिपाये नहीं छिपते हैं। आशीष मिश्रा ने जो अपराध किया है। वह सारा-का-सारा मामला सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर है और न्यायालय में विचाराधीन है। रहा सवाल केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के इस्तीफ़े का, तो वह क्यों इस्तीफ़ा दें? अगर बेटे ने अपराध किया है, तो उसे न्यायालय सज़ा देगा। पिता को क्यों सज़ा मिले?
कांग्रेस, सपा और बसपा सहित अन्य राजनीति दलों ने भी सियासी समीकरण साधते हुए ज़्यादा मुखर हुए बिना आशीष मिश्रा को लेकर केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा से इस्तीफ़ा इसलिए नहीं माँगा है। क्योंकि प्रदेश की ब्राह्मण वर्ग मिश्रा परिवार के पक्ष में खड़ा दिख रहा था। इसलिए लखीमपुर खीरी कांड की राजनीतिक निंदा उसी समय तक ही चली है। क्योंकि विरोधी दल के नेता जान चुके हैं कि एक सीमा तक ब्राह्मणों पर राजनीति ठीक है। ज़्यादा करने से नुक़सान भी हो सकता है। इसलिए विरोधी दल के नेताओं ने ब्राह्मणों का साधने का प्रयास किया है। उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों का कहना है कि देश की राजनीति का यह दुर्भाग्य है कि चुनावी वादों तक ही विकास और रोज़गार की राजनीति होती है। असल में वोट तो जाति और धर्म के नाम पर ही वोट पड़ते हैं। इसलिए सत्ता के विरोध में ब्राह्मणों को साधने के लिए सभी राजनीति दलों ने बड़े ही कुशल प्रयोग किये हैं। राजनीति के जानकार आमोद पाण्डेय का कहना है कि 2007 में जब दलित और ब्राह्मण को एक साथ लाकर बसपा ने प्रदेश में सरकार बनायी थी और प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती बनी थीं। तब ही देश की और प्रदेशों की सियासत में यह सन्देश गया था कि अगर ब्राह्मण वोट को साधा जाए, तो सफल राजनीति की जा सकती है। आमोद पाण्डेय का कहना है कि एक समय था, जब कांग्रेस ने दलित, मुस्लिम और ब्राह्मणों के नाम पर राजनीति की है और शासन किया। जैसे-जैसे भाजपा का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस के पाले से खिसककर भाजपा के पाले में आ गया। जो अब लगभग भाजपा का परम्परागत वोट हो गया है। हालाँकि बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मणों का भाजपा से मोहभंग हो चुका है। बसपा और सपा भी इसी जुगत में हैं कि अगर राजनीति की स्थायी और लम्बी पारी खेलनी है, तो किसी भी तरह ब्राह्मण वोट को साधा जाए।
इस बारे में बसपा के वरिष्ठ नेता सिराजुद्दीन ने बताया कि बसपा, सपा और कांग्रेस ने यह असल में जान लिया था कि भाजपा के विरोध में राजनीति की जाए और वोट माँगे जाएँ, तो ठीक होगा। क्योंकि अगर आशीष मिश्रा के विरोध में वोट और राजनीति की जाएगी, तो निश्चित तौर पर ब्राह्मणों का एक बड़ा तबक़ा खिसक सकता है। उनका कहना है कि आशीष मिश्रा का मामला न्यायालय में इसी को आधार मानकर किसी भी राजनीतिक दल ने कोई ख़ास विरोध चुनावी सभाओं में नहीं किया है।
लखीमपुर खीरी को लेकर किसान किशनपाल ने बताया कि मृतक किसानों के परिवार वालों के तीन सदस्यों इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दिये जाने को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। मृतक के परिवार वालों का कहना है कि दलीलों के अभाव में आशीष मिश्रा एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का बेटा होने के नाते उसका प्रभाव रहा है, इसलिए उसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय से ज़मानत मिल गयी है। लेकिन किसान और मृतकों के परिजन आशीष के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ेंगे। किशन पाल का कहना है कि सियासतदान तो अपने नफ़ा-नुक़सान को लेकर किसानों के साथ खड़े तब तक दिखे, जब तक चुनाव में उनका वोट बैंक का लाभ लेना था। उन्होंने बताया कि चुनाव के पहले सभी राजनीतिक दलों ने क्या-क्या वादे किसानों से किये थे। साथ ही आशीष मिश्रा के ख़िलाफ़ लडऩे का वादा किया था। चुनाव के सिमटने के साथ ही अब किसानों की माँगों को और समस्या को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर पंकज कुमार कहते हैं कि जब देश में किसानों का आन्दोलन चल रहा था, तभी यह अनुमान लगने लगा था कि कोई भी राजनीतिक दल किसानों के साथ नहीं है। राजनीतिक दल तो अपनी राजनीति के लिए उनके साथ हैं। किसानों को लेकर अगर किसी भी दल ने गम्भीरता दिखायी होती, तो न तो 700 से अधिक किसान आन्दोलन के दौरान मरते और न ही लखीमपुर खीरी जैसी अमानवीय घटना होती। रहा सवाल चुनाव का, तो चुनाव में हाल पहले जैसा ही है। आख़िर किसान भी तो किसी-न-किसी जातीय समीकरण में बँधे हैं। सो उन्होंने भी जातीय समीकरण को साधते हुए वोट किया है। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले सावित होंगे। उनका कहना है कि सपा को किसानों की पार्टी भी कहा जाता है। इसलिए सियासी गुणा-भाग करके ही सपा भी किसानों के पक्ष में बोली है। कांग्रेस और बसपा तो काम-चलाऊ बयानबाज़ी करके सियासत करती रही हैं। पंकज कुमार का कहना है कि सत्तादल ने बड़ी ही जुगत से सियासी समीकरण बनाकर लखीमपुर खीरी की घटना को बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं बनने दिया है।