जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, नेताओं के आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी तीखे और व्यक्तिगत होने लगे हैं. न्यूज मीडिया हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोपों का मंच और अखाड़ा बनता रहा है. लेकिन इस बार पहली दफा खुद न्यूज मीडिया खासकर चैनल इन आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में आ गए हैं. प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व सेनाध्यक्ष पलट नेता बने जनरल वीके सिंह तक खुलेआम न्यूज मीडिया पर खुन्नस निकाल रहे हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया है. उनका आरोप है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश और अनिल अंबानी का पैसा लगा हुआ है और इस कारण वे व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ झूठी खबरें दिखा रही हैं.
भाजपा नेताओं और मोदी समर्थकों का आरोप है कि अखबार और चैनल केजरीवाल का महिमामंडन कर रहे हैं क्योंकि उनके ज्यादातर पत्रकार वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी हैं. भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी और संघ से जुड़े एस गुरुमूर्ति ने तो एनडीटीवी पर मनी लॉन्डरिंग का आरोप लगाते हुए अभियान छेड़ रखा है. खुद मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एनडीटीवी पर सरकारी पैसे से चलने और बाद में दिल्ली की एक रैली में इसी चैनल की एक पत्रकार पर नवाज शरीफ की मिठाई खाने का आरोप लगाया था. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया- ट्विटर और फेसबुक पर भी चैनलों और उनके संपादकों/एंकरों को मोदी और केजरीवाल समर्थक जमकर गरिया रहे हैं. इससे चैनलों और मीडिया के साथ पत्रकारों में भी बेचैनी है. नतीजा, एडिटर्स गिल्ड को न्यूज मीडिया के बचाव में उतरना पड़ा. लेकिन लगता नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर हमले कम होंगे. वजह यह है कि इस बार चुनावों में न सिर्फ दांव बहुत ऊंचे हैं, केजरीवाल जैसे नए खिलाड़ी ‘नियमों को तोड़कर’ खेल रहे हैं बल्कि इस बार खेल में न्यूज मीडिया खासकर चैनल खुद खिलाड़ी बन गए हैं.
आप मानें या न मानें लेकिन 2014 के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में भी. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं. यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं. हर रविवार को होने वाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है, आश्चर्य नहीं कि उनकी टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टीवी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.
चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं. सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि कई चैनल चुनावी दंगल की तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग और व्याख्या के बजाये खेल में खुद पार्टी हो गए हैं. यह भी सही है कि उनमें से कई की डोर बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में है और वे उन्हें अपनी मर्जी से नचा रहे हैं. कुछ बहती गंगा में हाथ धोने में लग गए हैं और कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह झूम रहे हैं.
ऐसे में, हैरानी क्यों? जब चैनल खेल में पार्टी बनते जा रहे हैं तो आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचते?