सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण के मसले पर हाल ही में एक सर्वदलीय बैठक हुई. मीडिया ने बताया कि सपा को छोड़कर सभी दल मानते हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए ऐसा आरक्षण होना चाहिए और इसके लिए जल्द ही संविधान संशोधन लाया जाएगा.
मगर अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण का प्रावधान संविधान में कई संशोधनों के चलते पहले से ही है. बस सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने के लिए 2006 में दिए अपने निर्णय के माध्यम से कुछ शर्तें रखी हैं. इनमें से एक है कि इस बात का समुचित आकलन हो कि एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व जहां आरक्षण दिया जा रहा है वहां बहुत कम है. और इसमें प्रशासनिक कार्यकुशलता का भी ध्यान रखा जाए. इन्हीं शर्तों का ध्यान न रखने के लिए कोर्ट ने मायावती द्वारा राज्य की नौकरियों में लाए गए आरक्षण के प्रावधान को खारिज कर दिया था. अब सभी पार्टियां मिलकर कुछ ऐसा करने की जुगत भिड़ा रही हैं जिससे कि बिना किसी जवाबदेही और न्यायिक हस्तक्षेप के वे जहां चाहें दलितों-आदिवासियों के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण का कायदा बना सकें.
प्रोन्नतियों में आरक्षण के समर्थन में जो लोग हैं उनका तर्क है कि शीर्ष पदों पर दलितों और आदिवासियों की संख्या न के बराबर है इसलिए ऐसा किया जाना जरूरी है. मगर इसकी एक वजह यह भी है कि उनकी तमाम सरकारी नौकरियों में प्रवेश की ऊपरी आयु सीमा सामान्य आयु सीमा से थोड़ी ज्यादा होती है. इस वजह से नौकरी की शुरुआत में सामान्य और आरक्षित उम्मीदवारों के बीच 5-6 साल की आयु का अंतर आ जाता है. उधर इस तरह के आरक्षण के कई विरोधी शिक्षा और नौकरियों में प्रवेश के लिए तो आरक्षण को जरूरी मान लेते हैं लेकिन प्रोन्नतियों में आरक्षण को वे संस्थान के क्षरण, उसकी कार्यकुशलता में कमी आने से लेकर उसमें स्थायी बंटवारे की स्थितियां उत्पन्न हो जाने तक से जोड़ते हैं.
हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान डाले थे जिनके आधार पर, भविष्य के राजनेता पिछड़े समुदायों को आगे लाने की व्यवस्था निर्मित कर सकते थे. मगर कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर मामलों में इसके लिए राजनीति को आधार बनाकर आसान रास्तों का ही चुनाव किया गया. उदाहरण के तौर पर अन्य पिछड़ा वर्ग को पहले केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण दिया गया, फिर करीब 17 साल बाद उच्च शिक्षा में और उसके बाद शिक्षा के अधिकार के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा की तरफ जरूरी ध्यान दिया गया. हमने नीचे की सीढ़ियां तैयार नहीं कीं और लोगों से सीधे ऊपर के डंडे पर चढ़ने के लिए कहने लगे. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल की चुनौती से निपटने के लिए मंडल आयोग की रपट को आधा लागू कर दिया तो अर्जुन सिंह ने अपने ढलते राजनीतिक करियर को पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण की बैसाखी का सहारा देने की कोशिश की. अब कई राजनीतिक दल प्रोन्नतियों में आरक्षण को 2014 के लोकसभा चुनाव के चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि दलितों और आदिवासियों को आज भी सकारात्मक भेदभाव की बेहद आवश्यकता है. पर इसके लिए कुछ दूसरे नए और प्रभावी उपाय भी तो खोजे जा सकते हैं. और जहां प्रोन्नतियों में ऐसा किए जाने की सचमुच आवश्यकता है वहां तो सुप्रीम कोर्ट भी सरकारों को ऐसा करने से नहीं रोकता.