सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (कल्चरल नेशनेलिंजम) की सोच जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज नेता वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर ने सुझाया उसका संबंधक्या लोकतंत्र से है? मूल मुद्दों पर ज्य़ादा सवाल करना बहुसंख्यक लोगों की लोकतंत्र में आस्था मूलत: लोकतांत्रिक है? इन सवालों पर एक सोच इन सवालों के पक्ष मेंभी दिखती है। संघ के एक विचारक का तो मानना है कि हिंदू राष्ट्रवाद लगभग तभी पनपने लगा जब उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को कुछ सीमितअधिकार (भारत सरकार के 1919 कानून) के तहत जारी किए। बताया कि भारत एक ऐसा समाज है जहां विभिन्न समुदायों की अलग-अलग पहचान है। लोकतंत्र कीविविधता में ज़रूरी है कि विभिन्न समुदायों की साझेदारी को परखना।
हालांकि चुनाव में जीत जाना ही लोकतंत्र नहीं है। बल्कि उनकी भागीदारी उतनी ही ज़रूरी है जो राज करना चाहते हैं और जो सत्ता के पथ पर आगे बढ़ते हुए सृजनके इच्छुक हैं। लोकतंत्र के बीच संबंध रहें क्योंकि वे दोनों भी वैधता का तात्कालिक विवेचन करके चुनाव में जीत हासिल कर रहे हैं। यद्यपि लोकतांत्रिक राजनीति मेंशायद वह होना चाहिए यानी ज्य़ादा लोकतांत्रिक राजनीति हो न कि चुनाव का महज बहाना। हालांकि तब हिंदुत्व कहीं ज्य़ादा उफान पर रहता है। चुनाव में जीतनहीं। राष्ट्रवादी हिंदू संगठन जो 1920 के दशक में उभरे खास कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इससे निकले छोटे पारिवारिक समूह आज भारतीय समाज में सक्रियहैं।
हालांकि आरएसएस का केंद्र अमूमन चुनावी रणनीति से दूर ही रहता है। इतना ही नहीं, यह 1925 के विभिन्न वैचारिक आंदोलनों से भी दूर रहा। खास करवामपंथियों से। उद्देश्य की शुद्धता के लिए यह दूरी बनाए रखता है। इसकी हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के पीछे सिर्फ हिंदू वोट बैंक को बनाए रखना नहीं बल्कि इसकीपरिभाषा में इहितास, राष्ट्रवाद और नागरिकता भी है। मशहूर किंवदंती गुप्तचर, शरलॉक होम्स का एक कथन था कि सिद्धांत (थ्योरी) के हिसाब से तथ्य गढ़ो न कितथ्यों के आधार पर सिद्धांत।
यदि आरएसएस और इसके परिवारिक दो संगठनों ने पिछले सौ साल के अंदर कांग्रेसी राज में भी देश में अपनी विविध सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों को बिनाथके करते हुए देशवासियों को लगातार हिंदू राष्ट्र का एक सपना विभिन्न आयु वर्ग के देशवासियों को दिखाया। साथ ही इसने अनुसूचित जातियों, आदिवासियों औरविभिन्न जनजातियों के लोगों के प्रशिक्षित समूह भी तैयार किए। इसका एक मात्र मकसद था हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कठिन तैयारी। यह एक जबर्दस्त तैयारी थीईसाइयों और मुसलमान बगैर एक राष्ट्रीय निर्माण की जबकि कांग्रेस और दूसरे विभिन्न राजनीतिक दलों का मकसद रहा है किसी तरह चुनाव में सत्ता पाना। जबकिआरएसएस का मकसद सिर्फ सत्ता पाना नहीं रहा। इसका मकसद रहा समाज में प्रचार कार्य करते हुए अपना प्रभाव फैलाते जाना। जिससे लोग न केवल इसकेउत्पाद बने बल्कि वे प्रचार की इसकी मुहिम को और तेज करें जिससे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद फूले-फले।
सांगठनिक और वैचारिक तौर पर आरएसएस और भाजपा में अंतर सिर्फ पतले धागे का है। भाजपा हिंदू जातियों को खुर्दबीन से जांचती परखती है और मुसलमानोंको दूसरा बताती है। इसके नेताओं के भाषण से साफ है कि ये कितने ‘असहिष्णुÓ हैं। सोचिए ‘कांग्रेस मुक्त भारतÓ, ‘अरबन नक्सलÓ, ‘एंटी नेशनल अब कितनासुनाई देता है। आरएसएस की वैचारिक कोशिश का यह मूल आधार रहा है। हालांकि इसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा जब से लोकसभा में बहुमत में आई। तबसेइसका भी सुर बदला हुआ है।
आप ध्यान दें, बिहार चुनाव 2015 के पहले सरसंघ चालक ने तब आरक्षण की समीक्षा की बात की थी जब भाजपा विभिन्न जातियों के साथ समझौते कर रही थी।इसके अलावा नागपुर में संघ की सर्वोच्च सत्ता ने एक भव्य समारोह में पूर्वा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को बुलाया और उनसे भाषण भी कराया।
आरएसएस की दूसरी प्राथमिकताओं में माक्र्सवादी-लेनिनवादी वामपंथियों से कभी-कभार मुठभेड़ का रहा है। आम तौर पर भाजपा के लिए अब भी माक्र्सवादियों,लेनिनवादियों से मुकाबला करना अब घाटे का सौदा कतई नहीं है। फिर मुकाबले में, केरल को छोड़ दें तो आज ये मुकाबले में हैं भी नहीं। हालांकि शिक्षा-शास्त्रीऔर बुद्धिजीवी लोगों पर राष्ट्रविरोधी होने का इल्जाम लगता ही रहा है उन्हें भारतीय संस्कृति से अलग बतायाा जाता है। यह कहा जाता है कि उनका बहुत हीफासीवादी और रूढि़वादी तरीका है दुनिया को देखने का। मनमोहन वैद्य जैसे अनुभवी लेखक का कहना बताता है कि आरएसएस आज भी उन लोगों के कितनाखिलाफ है जो इस देश के चुनावों में लगातार पराजित होते गए और जनता में भी अब इनकी लोकप्रियता सही है। यह सिर्फ एक सोच है अपने एक जमाने केबौद्धिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रमुख का दम भरने का है।
राजनीतिक सत्ता के चलते यह राह ज्य़ादा सहज है। दुवारा टेक्स्ट बुक तैयार करके इतिहास में रहा बदल कर और अपने तैयार किए हुए शिक्षा शास्त्रियों को साथलेकर तमाम शिक्षा केंद्रों को उनके हवाले करके ऐसा करना खासा संभव है। सिनेमा के जरिए यह काम और भी मैबजी टेक्लॉजी आदि का फिर से नव लेखक करहिंदू राष्ट्र बनाया जा होगा। चुनाव सिर्फ सत्ता में बने रहना और इन तमाम कामों पर अमल कराना है। यह सब करने के लिए आधा दशक और तो चाहिए।
यह ज़रूर साफ है कि बिना राजनीतिक सत्ता पाए हिंदुत्व की बात मानी है। दो बार के आम चुनावों मेें लोकसभा में दो बार जीत हासिल कर आरएसएस ने सहसाब्दिउपलब्धि अलबत्ता हासिल तो कर लीं है। विचारों के आदान प्रदान में इसका उल्लेख होता भी होगा। फिर जीत का सिलसिला चलेगा। इसी परियोजना के तहत खानाखाने की आदतों सलीकों, साहित्य और अर्थ शास्त्र विज्ञान आदि में मन चाहे तो फेरबदल हो सकते है।
जो देश में ऐसा एक तरह का विकास नहीं चाहते वे कभी प्रतिरोध भी ढ़ो सकते हैं। तब चुनाव ही एकमात्र तरीका नहीं होगा। उसकी भी तैयारी दिखती तो है।
आकाश जोशी,
साभार: इंडियन एक्सपे्रस
नई दिल्ली