राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस. या संघ) को बहुत से लोग गोपनीय ढंग से एक विशिष्ट कार्य (हिडेन एजेंडा) के लिए कार्यरत संगठन मानते हैं। उनका मानना है कि संघ गुप्त रूप से तमाम गतिविधियों से जुड़ा रहता है। परन्तु प्रतीत तो यही होता है कि वस्तुत: संघ का कोई गुप्त उद्देश्य नहीं है वह सिर्फ एक बात पर केंद्रित है और वह है हर सूरत में ”हिन्दू राष्ट्र’’ की स्थापना। उसके नीति निर्धारकों में इतनी कुशलता और चपलता अपने उद्देश्य के लिए है कि वे किसी भी क्षण किसी नई राजनीति को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना सकते हैं। इसे वर्तमान सरसंघ चालक मोहन भागवत के विगत 15 दिनों में दिए गए बयानों में आए बदलावों से साफ समझा जा सकता है। शिकागो में वे बाघ के अकेले होने और उसका कुत्तों के झुंड द्वारा किए जाने वाले शिकार को लेकर बेहद चिंतित और हीन भावना से ग्रसित हिन्दू समाज को एक करने का बीड़ा बठाते हैं और अगले ही पखवाड़े जब वे भारत में संघ का तीन दिवसीय सम्मेलन करते हैं तो भारत की अनेकता में एकता को आदर्श मान लेते हैं। श्मशान और कब्रिस्तान की राजनीति को निरर्थक बताते हैं। अपने आद्य गुरुओं में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुरु गोलवलकर के उद्गारों को समयानुसार अप्रासंगिक बताते हैं। गौरतलब है गुरु गोलवलकर मुसलमानों को शत्रु बताते रहे है। यह उनकी पुस्तक ”बंच आफ थाट्स’’ में लिपिबद्ध भी है। परन्तु वर्तमान सरसंघ चालक ने इस सम्मेलन में कहा, ”रही बात ‘बंच आफ थाट्स’ की, बातें जो बोली जाती हैं, वो परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संदर्भ में बोली जाती हैं। वो शाश्वत नहीं रहतीं। एक बात तो यह है कि, गुरुजी के जो शाश्वत विचार हैं उनका एक संकलन प्रकाशित हुआ है ”श्री गुरुजी: विजन एण्ड मिशन’’ उसमें तात्कालिक संदर्भ से आने वाली सारी बातें हमने हटाकर उसमें जो सदा काल के लिए उपयुक्त विचार हैं वो रखे हैं। उसको आप पढिय़े, उसमें आपको ऐसी बातें (मुसलमान शत्रु है) नहीं मिलेंगी।’’
सन् 1925 में संघ की स्थापना का उद्देश्य ही था हिन्दू राष्ट्र, जिसमें हिन्दुओं की प्रधानता, प्रत्येक आयाम में हो, था। और जैसा कि उनकी शपथ से स्पष्ट हो जाता है कि वे अंतत: भारत को किस प्रकार का राष्ट्र बनाना चाहते थे हैं। एक और गौर करने वाली बात है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की उनकी ललक में कोई परिवर्तन नहीं आया है। सारी भूलभुलैया उसी के आस-पास रची जा रही है।
इसके लिए वे बेहद चतुराई से अपनी चाल चल रहे हैं और उन सारे तथ्यात्मक आरोपों को धुंधला करते हुए, उसकी आड़ में एक ऐसे नए प्रकार के हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना प्रस्तुत कर रहे हैं, जो समावेशी होगा। मुक्त नहीं युक्त होगा! अपनी इस चालाकी में वे कांग्रेस को याद करते हैं, तमाम अन्य महत्वपूर्ण नेताओं को याद करते हैं जिन्होंने भारत निर्माण में योगदान दिया है, परंतु सायास गुरु गोलवलकर का नाम नहीं लेेते, जिनके कार्यकाल में भारतीय जनसंघ (अब भारतीय जनता पाटी, बीजेपी), अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ और विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। इन सबके बिना क्या हम मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की परिकल्पना कर सकते हैं? निश्चित तौर नहीं! वे धुरंधर कम्युनिस्ट एम.एन. राव, महात्मा गांधी, अंबेडकर, रवींद्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस और विनायक सावरकर को भी याद करते हैं। डा. हेडगेवार को दर्जनों बार उद्धृत करते हैं, परन्तु गोलवलकर कहीं सुनाई नहीं देते! वे कांग्रेस की तारीफ भी करते हैं। उनका कहना था, ”हम लोग तो सर्वलोक-युक्त भारत वाले लोग हैं, मुक्त वाले नहीं हैं। इसमें संघ को पराया कोई नहीं है। जो आज हमारा विरोध करते हैं, वो भी हमारे हैं, यह पक्का है। उनके विरोध से हमारी क्षति न हो इतनी चिन्ता हम ज़रूर करेंगे।’’ इस आखिरी वाक्य कि ”उनके विरोध से हमारी क्षति न हो, इतनी चिन्ता हम ज़रूर करेंगे।’’ इस एक वाक्य से सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, कि बाकी के लोग अपनी हद समझ लें।
एक और बात उभरती है, इस सम्मेलन से। हम सभी जानते हैं कि संघ का पूरा खेल भारत के गौरवशाली अतीत (जो उनके हिसाब से इस्लाम के या मुसलमानों के भारत प्रवेश के पहले तक ही था।) की पुनस्र्थापना ही रही है। पूरा दारोमदार तो मुसलमानों को आक्रांता और भारतीय (हिन्दू) संस्कृति के बर्बर विनाशक के रूप में ही प्रस्तुत करना था। तो यकायक ऐसा क्या हो गया कि मोहन भागवत को संघ का 90 वर्ष का इतिहास ही उन्हें आँख दिखाने लगा और वे उससे छुटकारा पा लेना चाहते हैं। जो विचार उन्होंने दिल्ली सम्मेलन में प्रकट किए उससे तो यह ध्वनित होता महसूस हो रहा है कि या तो अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है या अब यह एक पूर्णकालिक राजनीतिक इकाई का स्वरूप धारण करना चाहता है और वह भाजपा को भी एक तरफ कर सीधे हस्तक्षेप का मन बना रहा है।
इस सम्मेलन में नरेंद्र मोदी की अनुपस्थिति और श्मशान व कब्रिस्तान की राजनीति को नकारने को किस प्रकार देखा जाए? भीड़ द्वारा हत्या पर तात्कालिक टिप्पणी न कर उस पर महज सैद्धान्तिक असहमति व्यक्त की जाए? पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को संघ मुख्यालय में बुलाना भी स्वीकार्यता को विस्तारित करने का एक दाव था जो दिल्ली सम्मेलन में पूरे अखाड़े में बदल गया था। हमें यह समझना होगा कि संघ ने पिछले नौ दशकों में जिस उफान को उकसाया है वह दूध में आया उफान नहीं है जो पानी के कुछ छीटों से ठंडा पड़ जाएगा। यह इतना तेज उफान है जो कि इन ठंडे छींटो से और भी उफनाएगा। यह तो आने वाला समय ही बतलाएगा कि जिस युक्त भारत की बात इस सम्मेलन में हुई है वह 15 लाख रुपए प्रत्येक के खाते में डालने जैसा जुमला तो नहीं है। संभवत: ऐसा न भी हो तो यह बात इसलिए की गई लगती है, जिससे कि भारत व शायद उससे भी ज्यादा विदेशी लोग संघ के अतीत या इतिहास पर बात करना बंद कर दें और संघ को अपने पहले के कार्यों पर जवाब न देना पड़े।
भारतीय मीडिया विष्लेषकों ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के उस वक्तव्य जिसमें उन्होंने संघ की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी कि, अनदेखी की या उसे नासमझी भरा वक्तव्य करार दिया। संघ ने और भाजपा में उनके साथियों ने भी इस पर काफी तीखी व व्यंग्यभरी प्रतिक्रियाएं दीं और राहुल गांधी को इतिहास पढऩे व समझने की सीख दे डाली। परंतु अंदर ही अंदर संघ के आलाकमान ने इस तुलना पर गंभीरता से विचार किया मालूम पड़ता है और चूंकि यह बात विदेश में कही गई थी, यूरोप में, जहाँ मुस्लिम ब्रदरहुड के दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं तो, लगता है कि संघ ने भी अपनी बनती-बिगड़़ती छवि पर गंभीरता से विचार किया है। इसी के परिणामस्वरूप यह छवि परिवर्तन का पूरा प्रकरण सामने आ रहा है।
मोहन भागवत आज हिन्दू व हिन्दुत्व को व्याख्यायित कर रहे हैं, जबकि 17 सितंबर 2009 को अहमदाबाद में उन्होंने कहा था, ”और इसलिए मुझे कभी-कभी लगता है कि हिंदुत्व की व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। व्याख्या करने से अस्पष्टता (कन्फ्युजन) बढ़ती है। यह जो कहा गया कि यहां बिना व्याख्या के भी कैसे रहा जा सकता है यह ठीक है। कुछ करना अगर अनिवार्य है तो उतना करना चाहिए।’’
अतएव सबसे समझदारी भरा कदम यह हो सकता है कि किसी काल विशेष या
परिस्थिति विशेष में किए गए किसी भी कार्य को फिर वह भले ही सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन देना या सांप्रदायिक दंगों के मूक साक्षी बनना ही क्यों न हो, उसे उस काल व परिस्थिति की आवश्यकता बता दिया जाए और आज उससे स्वयं को अलग कर लिया जाए। महात्मा गांधी की हत्या से लेकर वर्तमान विद्यमान सांप्रदायिक कटुता को एक ही साथ स्वीकार व रद्द किया जाना ही इस तर्क की उपयोगिता है और यही एक तीर से दो निशाने भी हैं। अतीत पर बहस बंद कर दीजिए क्योंकि हमने एक पुस्तक के कुछ हिस्से हटा दिए हैं? क्या यह विचारधारा का बेहद सरलीकरण नहीं होगा?
पिछले कुछ दिनों से एक और व्यक्ति संघ परिवार के जबरदस्त निशाने पर है। वह हैं पंडित जवाहर लाल नेहरू, जो हमारे पहले प्रधानमंत्री थे और उन्होंने ही अपनी दूरदृष्टि से भारत को एक धार्मिक राष्ट्र की ओर अग्रसर होने से रोका। सांप्रदायिकता और एकाधिकारी प्रवृत्तियों का जितना रचनात्मक प्रतिकार उन्होंने किया वैसा उदाहरण इतिहास में अन्यत्र मिल पाना असंभव है। वैज्ञानिक सोच के आधार पर राष्ट्र निर्माण की उनकी अवधारणा पर कुछ की असहमति हो सकती है लेकिन उनकी नीयत और दूरदृष्टि पर कोई ऊँगली नहीं उठ सकती। परन्तु पिछले चार वर्ष इसीलिए वे लगातार निशाने पर रहे है और प्रत्येक बात के लिए जिम्मेदार ठहराए गए क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिकता को कभी हावी नहीं होने दिया। धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की स्थापना की। और इसी वजह से भारत का वर्तमान स्वरूप गढ़ा जा सका है। अब इसे बदल पाना कमोवेश असंभव सा नजर आ रहा है। अतएव संघ को लगने लगा होगा कि वह अपने विचारों को जरा अलग ढंग से रखना शुरु करे। उसके ऊपर जो आरोप लगे हैं उनसे किसी तरह छुटकारा पाए ! इसलिए खेल के नियम ही बदल दो। जिन बातों के लिए सर्वाधिक दोष दिया जा रहा हो उसे लेकर कोई सफाई देने के बजाए उसे उसी काल तक सीमित कर दो क्योंकि अब कोई उस दौर के अलाकमान के मन की बात तो जान ही नहीं सकता।
गौर करिए संघ पर वैसे भी अब सीधे हिंसा आदि के आरोप नहीं लगते। उसके लिए विश्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल जैसे सहयोगी संगठन हैं। राम मंदिर को लेकर संघ का विचार एकदम स्पष्ट है। वह बनना ही चाहिए। कश्मीर में धारा 370 और 35ए को हटना चाहिए वह इस बात पर दृढ़ है। हिन्दू राष्ट्र तो उनका अंतिम सत्य है ही। तो फिर परिवर्तन कहां आया संघ की सोच में? मुसलमान भी हिन्दू हैं, सिख भी हिन्दू हैं, जैन भी हिन्दू हैं, बौद्ध भी हिन्दू हैं और अब आदिवासी भी हिन्दू हैं ! क्यों-कैसे इसे लेकर संघ के अपने बेहद मासूम स्पष्टीकरण हैं और उन्हीं के आधार पर वह स्वयं को सर्वसमावेशी सिद्ध करना चाहता है। कुनैन की चीनी चढ़ी गोली को ठंडे पानी के साथ निगल जाइये। कुछ पता नहीं चलेगा, पर जब वह पेट में घुलकर जलन पैदा करेगी तो वास्तविकता का भान होगा। हिन्दू को परिभाषा विहीन रखना इसी रणीनीति का हिस्सा है! हम एक ऐसे समाज में रह रहे है जिसके पास अपने अतीत का कोई उचित विवरण नहीं है।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा आम लोगों (अवधी) की भाषा में रामायण (रामचरित मानस) की रचना से बनारस के विद्धत जन काफी उद्धेलित हो गए थे। उन्हें मंदिर से निकाल दिया गया। इसके बाद एक मस्जिद में रहकर उन्होंने रामचरित मानस की रचना पूर्ण की। क्या यह अकेला तथ्य इन दो समुदायों के मध्य पनप रहे या पनपाये जा रहे सांप्रदायिक कटुता को थोड़ा कम नहीं कर सकता? मध्य युगीन मुस्लिम कवियों का राम व कृष्ण प्रेम क्या समझा रहा है? परन्तु मोहन भागवत के भाषण में इन तथ्यों का समावेश नहीं था। न होने का कारण वे ही बेहतर जानते हैं। अतएव आवश्यकता अतीत के अपने विचारों को ढ़कने की नहीं बल्कि उन्हें स्वीकार कर, यह सिद्ध करने की है कि अब संघ का इससे लेना देना नहीं है। परन्तु आज ऐसा कर पाने का जोखिम उठाने की स्थिति में संघ है? वहीं दूसरा प्रश्न भी समानांतर ही खड़ा हो रहा है कि क्या सरसंघ चालक ने जो कुछ कहा है वे उस पर पूरा अमल करने को तैयार है ! संघ की पूरी इमारत ही मुस्लिम विरोध और दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर खड़ी है। आजादी के आंदोलन में संघ का न्यूनतम हस्तक्षेप और योगदान रहा है। इसे सन् 1925 से 1947 तक के सभी दस्तावेजों में खोजा जा सकता है। अतएव मोहन भागवत द्वारा एक समावेशी समाज/राष्ट्र की संकल्पना को सामने लाना बहुत सारे संदेह ही पैदा कर रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि सबसे पहले उन्हें यह स्वीकारना होगा कि संघ महज सांस्कृतिक संगठन नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि जो राजनीति संस्कृति की आड़ में खेली जा रही है उसे बंद किया जाए और संघ स्पष्ट तौर पर एक राजनीतिक संगठन (जो कि वह है भी) के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करे और भारतीय संविधान को उसकी सही भावना से अंगीकार करे। इसके लिए आवश्यक है कि हिन्दू राष्ट्र की अपनी प्रतिबद्धता को उन्हें त्यागना होगा। जो कि वर्तमान परिस्थिति में तो कम से कम असंभव ही है।
सन् 2019 के आम चुनाव में अब अधिक समय नहीं रह गया है। वहीं भाजपा सरकार संघ की आशाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। ध्रुवीकरण की राजनीति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण अब विस्तारित हो अगड़े-पिछड़ों में भी फैल गया है। केंद्र सरकार की असफलताएं वास्तव में संघ की असफलताएं भी हैं। इसीलिए अब संघ सरकार से सुरक्षित दूरी बना रहा है। परंतु आपने अतीत से दूरी बनाने का खामियाजा संघ को महंगा पड़ सकता है। नींव पर खड़ी इमारत पर मंजिलें तो नई बनाई जा सकती हैं परंतु भवन की नींव बदल पाना असंभव होता है। मोहन भागवत उस नींव पर चोट कर रहे हैं। ऐसी दिखावटी चोट भी घातक सिद्ध हो सकती है ! गोलवलकर सन् 1939 में लिखते हैं, ”हिन्दुस्तान में रहने वाले गैर-हिंदुओं को चाहिए कि वे हिंदू संस्कृति और भाषा को अपना लें, हिंदू जाति और संस्कृति के गौरव के अतिरिक्त और कोई बात मन में न लाएं।’’ वहीं जिन्ना 1941 में कहते है,’’ मुसलमान, जब वह धर्मपरिवर्तन करके मुसलमान बना, और उनमें से अधिकांश का यह परिवर्तन हजार साल पहले हुआ था, तो आपके हिन्दू धर्म और दर्शन के हिसाब से वह जातिच्युत और मलेच्छ हो गया था और सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर किसी भी रूप में हिंदुओं से उसका कोई वास्ता नहीं रह गया था।’’ परन्तु भारत के मुसलमानों ने जतला दिया कि वे भारत के हैं और एक गंगा-जमुनी तहजीब को स्वीकारते हैं। वे गोलवलकर के विचारों से सहमत नहीं हैं, परंतु जिन्ना को पूरी तरह से नकार चुके हंै, उन्हें गलत साबित कर चुके हैं! यह बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके सरसंघ चालक मोहन भागवत को भी न केवल स्वीकारनी होगी बल्कि उसे अपनाना भी होगा।
राष्ट्र के जीवन में 70 वर्ष बहुत अधिक नहीं होते। यदि आज संघ के विचारों में परिवर्तन का आभास ही दिखाई देने लगा है तो यह इस देश की संस्कृति और सभ्यता की विजय ही कहलाएगा। हमें इस सबको लेकर बहुत आशान्वित होने की छूट अभी नहीं है। कुछ इंतजार करना होगा। दिल्ली सम्मेलन ने नई बहस का आगाज किया है। परंतु वास्तविकता यह है कि जब तक हिन्दू धर्म में निहित कट्टरता का प्रतिरोध नहीं होगा, चर्चा आगे नहीं बढ़ सकती।
डा. राम मनोहर लोहिया ने ”हिन्दू बनाम हिन्दू’’ शीर्षक लेख में कहा है, ”केवल उदारता ही इस देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा पैदा नहीं कर सकता। लेकिन उदार हिंदुत्व कर सकता है, जैसा पहले कर चुका है।’’ क्या हम अपने इतिहास को खंगालकर उस उदार तत्व को खोज पाएंगे? वैसे इसकी शुरुआत महात्मा गांधी और पं. नेहरू से की जा सकती है। क्या इसके लिए हम तैयार हैं?