उत्तर प्रदेश में महिला, अल्पसंख्यक , अनुसूचित जाति एवं जनजाति और पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं का इन दिनों बिन इंजन की गाड़ी जैसा हाल है. राज्य में समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने सात महीने होने को आए मगर इन महत्वपूर्ण संस्थाओं में न तो अध्यक्षों की नियुक्ति हुई है और न उपाध्यक्षों की. कहीं-कहीं तो हालत इतनी खराब है कि आयोग के सामान्य सदस्य भी नियुक्त नहीं हुए हैं. इसका खामियाजा उन पीड़ितों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही. महत्वपूर्ण पद खाली होने से आयोगों में शिकायतों का अंबार बढ़ता जा रहा है और उनका निपटारा नहीं के बराबर हो रहा है.
उत्तर प्रदेश में अमूमन नई सरकार आने के बाद आयोग पर काबिज पुराने अध्यक्षों और उपाध्यक्षों के विदा होने का एक अलिखित नियम है. इसके बाद इन पदों पर नई नियुक्तियां होती हैं. यह कवायद अपने लोगों को उपकृत करने के लिए की जाती हैं. लेकिन संभवत: पहली बार ऐसा देखने में आ रहा है कि पुरानों को हटा तो दिया गया है लेकिन उनकी जगह पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नए लोगों की नियुक्ति सात महीने बाद तक नहीं कर सके हैं.
सवाल उठता है कि सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरियां हैं. हम इसका जवाब खोजने की कोशिश करते हैं. खुलेआम तो कोई बोलने को तैयार नहीं होता लेकिन दबी जुबान में पार्टी पदाधिकारी यह जरूर स्वीकार करते हैं कि आयोगों में नियुक्तियों का मामला बड़े नेताओं के आपसी तालमेल के अभाव में लगातार लटकता जा रहा है. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘मई में मुख्यमंत्री ने आयोगों में नियुक्ति के लिए लिस्ट तैयार करवाई थी लेकिन बात अंजाम तक नहीं पहुंच सकी. सपा प्रमुख मुलायम सिंह के परिवार से शिवपाल हों चाहे रामगोपाल अथवा मुसलिम चेहरा कहे जाने वाले आजम खां, आयोगों में नियुक्ति को लेकर सभी की अपनी अपनी-अपनी पसंद और नापसंद है. हर बड़ा नेता या तो अपने लोगों को इन पदों पर लाना चाहता है. या फिर उन लोगों को उपकृत करना चाहता है जो चुनाव में टिकट पाने से वंचित रह गए थे.’
बिना चुनाव लड़े लाल बत्ती की चाहत रखने वाले सिर्फ पार्टी के बड़े नेता ही नहीं हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कोर कमेटी के सदस्य रह चुके कई युवा चेहरे भी इसकी लालसा रखते हैं. चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी निभा चुके कई युवा इसी उम्मीद में हैं. इन स्थितियों के चलते पार्टी में एक तरह की खींचतान मची हुई है. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पार्टी आलाकमान इस खींचतान के बीच आयोगों में किसी की नियुक्ति करके किसी तरह के असंतोष या टकराव को बढ़ाना नहीं चाहती. आलाकमान की निगाह लोकसभा चुनावों पर टिकी हुई है. बताते हैं कि आजम खान, शिवपाल यादव, प्रोफेसर रामगोपाल और स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के गुटों में बंटी सपा किसी भी गुट को निराश नहीं करना चाहती. इसी आपसी खींचतान से बचने के लिए सपा ने निकाय चुनाव में भी शिरकत नहीं की थी. यह प्रयोग काफी हद तक सफल भी रहा. इससे पार्टी टिकटों के बंटवारे के लिए होने वाली मगजमारी और नाराजगी से बच गई. इसी तरह के किसी जादुई फॉर्मूले की तलाश सरकार आयोगों में नियुक्ति के लिए भी कर रही है, लेकिन सात महीने बाद भी उसके हाथ खाली हैं.
सूत्र बताते हैं कि सपा नेतृत्व अलग-अलग गुटों से हो रही खींचतान के बीच आयोगों में किसी की नियुक्ति करके असंतोष बढ़ाना नहीं चाहता
आयोगों के पद सरकारों के लिए कितने महत्वपूर्ण होते हैं इसका नमूना अतीत में भी कई बार देखने को मिला है. जैसे 1999 में जब कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया था और रामप्रकाश गुप्त नए मुख्यमंत्री बनाए गए थे तो उस समय राज्य महिला आयोग के अध्यक्ष के पद पर कल्याण की करीबी कुसुम राय नियुक्त थीं. गुप्त के मुख्यमंत्री बनते ही कल्याण के करीबियों की महत्वपूर्ण पदों से छुट्टी होने लगी तो कुसुम राय का भी नंबर आया लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया. कुसुम राय को हटाने के लिए सरकार ने विधानसभा में नया कानून बना कर महिला आयोग को ही समाप्त कर दिया था. लेकिन मौजूदा स्थिति दूसरी है. इस समय सरकार आपसी खींचतान में न तो किसी की नियुक्ति कर पा रही है और न ही आगामी लोकसभा चुनाव में लोगों के नाराज होने के डर से इन पदों को समाप्त ही कर पा रही है. सरकार की इस लाचारी का खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है, जिसकी एक बानगी अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग में देखी जा सकती है. उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के जगतापुर गांव के रहने वाले दलित मंगरे प्रसाद कुछ माह पूर्व ही प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक पद से रिटायर हुए हैं. नौकरी से छुट्टी मिलने के बाद मंगरे प्रसाद ने खेतीबाड़ी करके परिवार का पेट पालना शुरू किया. लेकिन गांव के दबंग ठाकुरों को उनका खेतीबाड़ी करना रास नहीं आया और उन्होंने जुलाई में एक मेड़ के विवाद में मंगरे और उनके बेटे रमाकांत की पिटाई कर दी. मंगरे बताते हैं, ‘घटना के तुरंत बाद जब दस जुलाई को दबंगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने थाने गए तो वहां कहा गया कि किसी निजी अस्पताल में उपचार करवा लो.’ थाने में सुनवाई न होने पर मंगरे 12 जुलाई को जिले के एसपी से मिले और पूरी घटना के बारे में बताया. एसपी के आश्वासन के बाद भी मंगरे दबंगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने में सफल नहीं हो सके. लिहाजा उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग का रुख किया. मंगरे और उनका परिवार पिछले चार महीने से आयोग के चक्कर लगा रहा है. लेकिन वहां से भी उन्हें न्याय की कोई आस नहीं दिख रही है. कारण वही है. आयोग में न तो अध्यक्ष हैं न ही उपाध्यक्ष और न ही सदस्य. लिहाजा मंगरे और उनके जैसे दर्जनों पीड़ित दलित पूरे प्रदेश से रोज आयोग के लखनऊ स्थित कार्यालय पहुंचते हैं और फिर निराशा लेकर लौट जाते हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष डॉ पीएल पुनिया कहते हैं, ‘राज्य के एससी, एसटी आयोग में खाली चल रहे पदाधिकारियों के पदों का मतलब यह है कि दलितों का उद्धार इस सरकार के एजेंडे में है ही नहीं.’
महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की भी यही कहानी है. स्थानीय पुलिस व प्रशासन से न्याय न मिलने की स्थिति में ही पीड़ित आयोगों की ओर रुख करते हैं. मार्च में प्रदेश की सरकार बदलने के बाद से आयोगों की स्थिति खराब हुई है. नई सरकार बनते ही सभी प्रमुख आयोगों जैसे महिला आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों को तत्काल प्रभाव से हटा दिया गया. नियम के अनुसार आयोगों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य ही आने वाली शिकायतों की सुनवाई करते हैं. लेकिन ये सभी पद खाली होने के कारण पीड़ितों के प्रार्थना पत्र तो आ रहे हैं लेकिन उन पर सुनवाई न हो पाने के कारण लंबित मामलों का अंबार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. महिला आयोग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में सचिव को भी सुनवाई का अधिकार है जो सीनियर पीसीएस अधिकारी होते हैं. लेकिन जिस अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पीडि़त दलितों के सबसे अधिक मामले आते हैं वहां अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के साथ-साथ सचिव का पद भी खाली पड़ा है.
उधर, महिला आयोग में सचिव तैनात तो हैं लेकिन उनके द्वारा सुनवाई सप्ताह में एक या दो दिन ही हो पाती है. आयोग के एक कर्मचारी बताते हैं, ‘महिलाओं के उत्पीड़न संबंधी करीब 50-60 प्रार्थना पत्र रोज आ जाते हैं लेकिन अधिकांश की सुनवाई नहीं हो पाती है.’ पति की प्रताड़ना से परेशान लखीमपुर निवासी लीलावती बताती हैं, ‘पिछले पांच महीने से आ रही हूं लेकिन हर बार आगे की तारीख ही दे दी जाती है.’
महिला आयोग की दुर्दशा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं. जोशी कहती हैं, ‘प्रदेश में महिलाएं इस समय असुरक्षित हैं. बलात्कार पीड़ितों का न्याय पंचायतों में निपटाया जा रहा है. महिलाओं की प्रदेश में ऐसी स्थिति की जिम्मेदार सिर्फ सरकार है. महिला आयोग यदि उनके प्रति होने वाले उत्पीड़न के प्रति सक्रिय होता तो घटनाओं को बढ़ावा न मिलता. सरकारों ने आयोगों का पूरी तरह राजनीतिकरण कर दिया है. ऐसे लोग जो बड़े नेताओं के रबर स्टांप होते हैं, उन्हें आयोगों में नियुक्ति दी जाती है. इस कारण से आयोगों की धार धीरे-धीरे कम होती जा रही है.’
जहां तक अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की बात है तो यहां कहने को सचिव नियुक्त हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि उन्हें सुनवाई का अधिकार नहीं है.
जहां तक अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की बात है तो यहां कहने को सचिव नियुक्त हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि उन्हें सुनवाई का अधिकार नहीं है. अल्पसंख्यक आयोग के सचिव एसएम फारुखी बताते हैं, ‘पिछले सात माह से आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष नहीं हैं. यह बात अब आम आदमी को भी पता चल गई है लिहाजा अब लोगों ने आना ही बंद कर दिया है. कुछ मामलों में पीड़ित डाक से पत्र भेज कर शिकायत दर्ज करवा रहे हैं.’ सुनवाई का अधिकार न होने के कारण सचिव अपने यहां आने वाली शिकायतों को जिला स्तर के अधिकारियों को जांच के लिए भेज देते हैं. सचिवों को ये भी अधिकार नहीं है कि यदि वे जिला स्तर के अधिकारियों की जांच से संतुष्ट न हों तो उन्हें तलब कर सकें. यदि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या सदस्य होते हैं तो वे प्रताड़ना या भेदभाव जैसे मामलों में जांच से असंतुष्ट होने पर जिले के बड़े अधिकारियों को तलब कर लेते हंै. इससे अधिकारियों में थोड़ा भय बना रहता है कि जांच में लापरवाही करने पर आयोग तलब कर सकता है और फटकार लगा सकता है.
अब बात अल्पसंख्यक आयोग की जहां मुसलिम, ईसाई, सिख, पारसी, बौद्ध एवं जैन समुदाय के लोगों के उत्पीड़न से जुड़े मामलों की सुनवाई होती है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर सरकार कितनी जागरूक है, इस पर पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर अयूब कहते हैं, ‘सरकार बनने के बाद मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव ने कई बार कहा कि सरकार बनाने में अल्पसंख्यकों का काफी योगदान रहा है. लेकिन अल्पसंख्यक आयोग में पदों का महीनों से खाली होना इस बात को साबित करता है कि सरकार अल्पसंख्यकों को लेकर बिल्कुल संवेदनशील नहीं है.’
पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थिति और भी दयनीय है, जबकि कहने को सूबे की सरकार पिछड़ों की रहनुमा है. पिछड़ा वर्ग आयोग में पूरी तरह सन्नाटा पसरा रहता है. आयोग के कर्मचारी बताते हैं कि अब सिर्फ डाक से प्रार्थना पत्र आ रहे हैं. प्रतिदिन शिकायती पत्रों की संख्या 30 तक पहुंच जाती है. लेकिन जब अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य होते थे तो प्रतिदिन 100 से अधिक पीड़ित खुद आकर अपनी समस्याएं आयोग को बताते थे.
इस बारे में बात करने पर सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी तहलका को बताते हैं, ‘आयोगों में नियुक्तियां प्रक्रिया में हैं. खाली पड़े पदों के लिए काफी नाम आए हैं. पद पर योग्य व्यक्ति को बैठाने के लिए नामों की छानबीन चल रही है. जल्द ही आयोगों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति कर दी जाएगी.’
आयोगों में सियासी दांवपेंच में फंसी नियुक्ति सरकार और व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करती है. जब ये आयोग कोई काम नहीं कर रहे तो इनके नाम पर इतने बड़े अमले को बेमतलब क्यों पाला-पोसा जा रहा है? सवाल न्याय के मखौल का भी है. अगर ये इतने ही गैरजरूरी हैं तो इनके नाम पर जनता का पैसा क्यों फूंका जा रहा है?