मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा पिछले काफी समय से मजबूत दिख रही थी, लेकिन हाल ही में पार्टी का सियासी पहिया कुछ ऐसा घूमा कि अचानक पार्टी को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की राह मुश्किल लगने लगी है. भाजपा में हुई इस हलचल के पीछे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी (सूरजकुंड) बैठक की अहम भूमिका है. इसमें पार्टी ने अपने संविधान में संशोधन के जरिए नितिन गडकरी को दूसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का रास्ता खोला था.
इसी संशोधन के चलते मध्य प्रदेश में प्रभात झा का भी लगातार दूसरी बार पार्टी अध्यक्ष बनना तय माना जाने लगा. साथ ही उन्हें आम सहमति से अध्यक्ष बनवाने की कोशिश शुरू हो गई. इसके लिए प्रदेश संगठन में भी आम सहमति से चुनाव करवाने की कसरत शुरू हुई. और यहीं से पार्टी को एहसास हुआ कि जिस गुटबाजी को वह साधारण मानकर चल रही थी वह भीतर ही भीतर किस हद तक जड़ें जमा चुकी है. दरअसल प्रदेश संगठन में आम राय से चुनाव करवाने को लेकर खुद पार्टी के बड़े नेताओं में विरोध है. भाजपा की सोच थी कि वह विधानसभा के चुनावी साल में इस रणनीति के तहत संगठन के चुनाव कराके गुटबाजी से बच निकलेगी. मगर इसके उलट जिलों में अपने-अपने नुमाइंदे फिट करने के चक्कर में यहां के कई सांसद और काबीना मंत्री पार्टी की गुटबाजी सड़कों तक ले आए. हालात यहां तक बन गए कि पार्टी ने संगठन चुनावों को बीच में ही रोकना मुनासिब समझा और एक दर्जन जिलों में अध्यक्ष बनाए बिना ही प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला कर लिया.
इस पूरे परिदृश्य का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अपने पक्ष में आम राय बनाने की कवायद में खुद प्रदेश अध्यक्ष झा की ही नहीं चली. हालांकि दिल्ली हाईकमान ने झा की ताजपोशी के लिए काफी पहले ही हरी झंडी दिखा दी थी. लेकिन पार्टी में उनके पक्ष में आम सहमति बनाने के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि भाजपा की पूरी रणनीति धरी की धरी रह गई. हालात यहां तक बिगड़े कि झा अपने राजनीतिक गृहनगर ग्वालियर में आम सहमति से भाजपा का जिला अध्यक्ष नहीं बनवा सके. वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश राजपूत बताते हैं, ‘झा की अति महत्वाकांक्षा कई नेताओं को रास नहीं आ रही है. यही वजह है कि अपने-अपने क्षेत्रों के इन ताकतवर नेताओं ने झा के खिलाफ मोर्चाबंदी की और उन्हें इस चुनाव में अलग-थलग कर दिया.’
विधानसभा चुनाव को देखते हुए कई क्षत्रप नेताओं ने संगठन में अपनी गोटियां इस ढंग से जमानी चाहीं कि टिकट के लिए होने वाली रायशुमारी में उनका पलड़ा भारी पड़े. मगर पार्टी के भीतर आम सहमति बनाने का यह फॉर्मूला कुछ ऐसा पिटा कि राष्ट्रीय चुनाव अधिकारी थावरचंद गहलोत के गृहनगर शाजापुर में भी जिला अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाया. वहीं नीमच (पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा बनाम अन्य), इंदौर (सांसद सुमित्रा महाजन बनाम मंत्री कैलाश विजयवर्गीय) तथा देवास (सांसद कैलाश जोशी बनाम मंत्री तिकोजीराव पवार) सहित शिवपुरी और खरगोन आदि जिलों में भी समन्वय बनाने वाले नेताओं के बीच रस्साकसी के चलते चुनाव नहीं हो पाया.
दरअसल 2013 के विधानसभा चुनाव के पहले मध्य प्रदेश में भीतर ही भीतर कई किस्म के खेल चल रहे हैं. इन दिनों कई नेता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को राष्ट्रीय फलक पर पहुंचाने की कोशिश में हंै. हाल ही में उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने बयान दिया कि जिन नेताओं में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है उनमें चौहान भी शामिल हैं. दरअसल ऐसा कहकर विजयवर्गीय जैसे दूसरी पंक्ति के तमाम बड़े नेता सूबे की सियासत में एक खाली जगह बनाना चाहते हैं. वे संगठन में अधिक से अधिक अपने समर्थकों को रखना चाहते हैं ताकि जब युद्ध का आखिरी पड़ाव आए तो चौहान के विकल्प के तौर पर उनके पीछे बड़ी सेना दिखे. दूसरी तरफ चौहान अपनी कूटनीतिक चालों के चलते अब तक इन नेताओं के बीच मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं को डिब्बे में बंद करते आए हैं. शीर्ष पदस्थ सूत्रों के मुताबिक उन्होंने संगठन चुनाव में भी प्रांतीय संगठन मंत्री अरविंद मेनन को आगे करके खुद पर्दे के पीछे से केंद्रीय भूमिका निभाई है. इस कड़ी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पसंद के नाम पर बड़ी संख्या में चौहान समर्थकों को ही जिला अध्यक्ष के पदों पर बिठा दिया गया. लेकिन पार्टी में मची खलबली का खुलासा तब हुआ जब बुंदेलखंड और निमाड़ इलाके से इन धांधलियों की शिकायतें केंद्रीय संगठन तक पहुंचाने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय चुनाव अधिकारी थावरचंद गहलोत भी मैदान में कूद पड़े. उन्होंने प्रांतीय चुनाव अधिकारी नंद कुमार सिंह चौहान को तलब किया और मीडिया में साफ किया कि यह चुनाव पार्टी संविधान के मुताबिक नहीं है.
साफ है कि आम राय से चुनाव कराने के मामले में पार्टी में एक राय नहीं है. इसी के चलते सांसद सुमित्रा महाजन से लेकर पूर्व प्रदेश संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी तक कई नेता संगठन के खिलाफ बिगुल बजा रहे हैं. पार्टी के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रघुनंदन शर्मा कहते हैं, ‘आम सहमति के नाम पर कार्यकर्ताओं की भावनाओं का गला घोंटा जा रहा है. इसी का नतीजा है कि ऐसे प्रदेश अध्यक्ष बन रहे हैं जिन्होंने कभी वार्ड के चुनाव भी नहीं जीते.’
प्रदेश भाजपा में पहले मतदान से चुनाव कराने का रिवाज था और आखिरी चुनाव (1999) में पूर्व नेता प्रतिपक्ष विक्रम वर्मा ने शिवराज सिंह चौहान को भारी मतों से हराया था. लेकिन सत्ता (2003) में आते ही पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया और प्रदेश अध्यक्ष दिल्ली से थोपे जाने लगे. पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष कहते हैं, ‘ऐसा इसलिए कि प्रदेश भाजपा पूरी तरह अब संघ की गिरफ्त में है.’ वहीं बीते कई सालों से लगातार सत्ता में रहने के चलते भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता राजनीतिक और आर्थिक तौर पर काफी ताकतवर हुए हैं और चूंकि प्रदेश में सत्तारुढ़ दल के जिला अध्यक्ष मंत्री के बराबर हैसियत रखते हैं इसलिए ये कार्यकर्ता पार्टी में आम सहमति के फार्मूले को पचा नहीं पा रहे हैं. द्वंद्व और दुविधा में उलझी पार्टी को फिलहाल इस बात का डर है कि कार्यकर्ताओं के भीतर दबा यह गुबार कहीं चुनाव के वक्त न फूट पड़े.