देश में ख़त्म नहीं हो रही मनचाहे बच्चे की चाहत के कारण पनपी लिंग निर्धारण की लालसा
हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली के रोहिणी ज़िले के अमन विहार इलाक़े में पुलिस ने अवैध लिंग निर्धारण (जाँच) और गर्भपात रैकेट का भंडाफोड़ करके इसमें शामिल दो महिलाओं को गिरफ़्तार किया। एक महिला फ़रार हो गयी। दरअसल पुलिस को सूचना मिली कि हरियाणा के सोनीपत में एक दवा विक्रेता के यहाँ काम करने वाला रविंदर नामक आदमी गर्भ में लिंग निर्धारण के ग़ैर-क़ानूनी धंधे में शामिल है। पुलिस ने नक़ली ग्राहक को उसके पास भेजा। दोनों के बीच 28,000 रुपये में सौदा तय हुआ। पुलिस भी छापे के लिए तैयार थी। तय रणनीति के मुताबिक, दिल्ली में उन दोनों महिलाओं को पकड़ लिया, जो यह काम करवाने में अहम भूमिका निभाती थीं। पकड़ी गयी दोनों महिलाओं में से एक आशा वर्कर और एक एएनएम है।
आशा वर्कर व एएनएम प्रथम पंक्ति की स्वास्थकर्मी (हैल्थ वर्कर्स) हैं और इनका काम महिलाओं व बच्चों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँचाना था। साथ ही यह सुनिश्चित करना कि समय पर माँ (जच्चा) का टीकाकरण हो जाए और वे स्वस्थ शिशुओं को जन्म दे सकें। देश भर में कोरोना के टीकाकरण अभियान को सफल बनाने में आशा वर्कर्स के योगदान को सराहा भी गया है। गिरफ़्तार हुई दोनों महिलाओं ने पुलिस को बताया कि सीमा नाम की नर्स अमन विहार में क्लीनिक चलाती थी, जहाँ वह लिंग निर्धारण करती थी। पुलिस ने सरिता के क्लीनिक पर छापा मारा, सरिता फ़रार थी। उसके क्लीनिक पर ताला लगा हुआ था। पुलिस ने ताला तोड़कर वहाँ से भारी मात्रा में दवाएँ, इंजेक्शन और गर्भ ख़त्म करने वाली गोलियाँ मिलीं।
जून के महीने में हरियाणा के गुरुग्राम ज़िले के पटौदी में वहाँ के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने ग़ैर-क़ानूनी लिंग जाँच करने के मामले में दो नीम-हकीमों व एक डॉक्टर को गिरफ़्तार किया गया था। छापे के दौरान वहाँ से 45,000 रुपये नक़द व एक पोर्टेबल अल्ट्रासांउड मशीन मिली। इसी तरह मई महीने में पुणे में भी इस तरह का मामला सामने आया। इन तीनों मामलों में आरोपियों के ख़िलाफ़ पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम-1994 (पीसी व पीएनडीटी) के तहत मामले दर्ज किये गये हैं।
दरअसल ये वो मामले हैं, जो मीडिया के ज़रिये बाहर आ जाते हैं। बताते हैं कि क़ानून लागू होने के 26 साल बाद भी देश के महानगरों, क़स्बों में भ्रूण का लिंग जानने वाला ग़ैर-क़ानूनी धंधा जारी है। समाज को दोषारोपण करने के साथ-साथ यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी कि सरकार एजेंसियाँ क्या कर रही हैं? यह ग़ैर-क़ानूनी काम करने वालों को आख़िर क़ानून का डर क्यों नहीं है? ग़ौरतलब है कि देश में कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और गिरते लिंगानुपात के मद्देनज़र पीसी व पीएनडीटी अधिनियम-1994 पारित किया गया। इसके तहत प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण की जाँच पर प्रतिबंध है। यह अधिनियम गर्भाधान से पूर्व बाद में लिंग की जाँच पर रोक लगाने का प्रावधान करता है। अधिनियम को लागू करने का मुख्य मक़सद भ्रूण के लिंग निर्धारण करने वाली तकनीक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना और लिंग आधारित गर्भपात के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीक के दुरुपयोग को रोकना है। कोई भी प्रयोगशाला या केंद्र या क्लीनिक भ्रूण के लिंग का निर्धारण करने के मक़सद से अल्ट्रासोनोग्राफी सहित कोई परीक्षण नहीं करेगी। इसका उल्लंघन करने वाले अल्ट्रासोनोग्राफी केंद्र चलाने वाले, डॉक्टर, लैब कर्मी को तीन से पाँच साल तक की सज़ा व 10 से 50,000 रुपये तक का ज़ुर्माना हो सकता है। गर्भवती महिला या उसके रिश्तेदारों को शब्दों, संकेतों या किसी अन्य विधि से भ्रूण का लिंग नहीं बताया जा सकता। कोई भी व्यक्ति, जो प्रसव पूर्व गर्भाधान लिंग निर्धारण सुविधाओं के लिए नोटिस या किसी भी दस्तावेज़ की शक्ल में विज्ञापन देता है या इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट रूप में या अन्य किसी रूप में इश्तहार देता है या ऐसे किसी भी काम में संलग्न पाया जाता है, तो उसे तीन साल की सज़ा व 10,000 रुपये तक का ज़ुर्माना हो सकता है। इस क़ानून को बने 27 साल हो गये हैं और अब तक इसके तहत कितने लोग दोषी पाये गये, इस बाबत एक संसदीय कमेटी की रिपोर्ट का ज़िक्र करना प्रासगिंक है।
सन् 2021 में संसद के शीत सत्र यानी दिसंबर, 2021 में महिला सशक्तिकरण पर गठित संसदीय समिति ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना पर अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दिसंबर, 2020 तक देश में पीसी व पीएनडीटी अधिनियम-1994 के तहत बीते 25 साल में 617 लोगों को सज़ा सुनायी गयी। अभी देश में 3,158 ऐसे मामले लम्बित हैं। इस समिति ने पाया कि देश के 36 राज्यों-केंद्र शासित राज्यों में से 18 ऐसे हैं, जहाँ ऐसा एक भी मामला न तो दर्ज किया गया और न ही किसी को अभी तक सज़ा सुनायी गयी। 31 सदस्यों की इस समिति ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों को देरी से निपटाने का एक अर्थ यह भी समझा जा सकता है कि इस अधिनियम की मूल आत्मा यानी मूल मक़सद को कमज़ोर करना है। समिति ने यह भी सिफ़ारिश की है कि ऐसे मामलों का निपटारा छ: महीनों के अन्दर हो जाना चाहिए। राज्यों को ऐसे मामले दर्ज करने व उनके रिकॉर्ड ऑनलाइन रखने के निर्देश पहले ही दिये जा चुके हैं। लेकिन समिति ने अपनी जाँच में पाया कि केवल 18 राज्य ही अब तक ऐसा तंत्र विकसित कर पाये हैं।
समिति ने इस पर भी रोशनी डाली कि देश में 71,096 नैदानिक सुविधा केंद्र हैं। इनमें से कुछ केंद्र व चिकित्सक भ्रूण लिंग बताने के ग़ैर-क़ानूनी धंधे में शामिल हैं। ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5, 2019-2021 के मुताबिक, भारत में जन्म के समय लिंगानुपात (शून्य से पाँच साल की आयु तक) प्रति 1,000 लड़कों पर 929 लड़कियाँ हैं। जन्म लिंगानुपात में लड़कों व लड़कियों की संख्या में यह फ़ासला चिन्ताजनक है। बेशक एनएफएचएस-4 (2015-16) में जन्म लिंगानुपात 919 था। मगर बीते पाँच वर्षों में इसमें कुछ सुधार देखने को मिला और यह आँकड़ा अब 929 हो गया है। लेकिन प्राकृतिक बाल लिंगानुपात के अनुसार यह आँकड़ा प्रति 1,000 लड़कों पर 955 लड़कियों का है। हालाँकि भारत इस दृष्टि से बहुत पीछे है। ऐसे कई राज्य हैं, जहाँ यह राष्ट्रीय औसत से भी कम है। जैसे- आंध्र प्रदेश में 1,000 लड़कों पर 877 लड़कियाँ, अरुणाचंल में 912, असम में 916, चंडीगढ़ में 820, गोवा में 822, हिमाचल प्रदेश में 843, झारखण्ड में 781, महाराष्ट्र में 878, पंजाब में 858, तमिलनाडु में 893, तेलगांना में 873, दमन और दीव में 705 व लद्दाख़ में महज़ 897 ही है। यहाँ सरकार की बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ मुहिम अपना अपेक्षित नतीजे क्यों नहीं दिखा रही है? लिंगानुपात में कमी के अलावा देश में कुल कार्यबल में भी कामकाजी महिलाओं के प्रतिशत में भी कमी आयी है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के ये आँकड़े आगाह करते हैं कि दुनिया भर में होने वाले सालाना लिंग चयन गर्भपात के कारण जन्म नहीं लेने वाली लड़कियों की संख्या क़रीब 12 से 15 लाख है, जिसमें से 90 फ़ीसदी मामले भारत और चीन के हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारतीय समाज लड़कियों के मामले में तंग नज़रिया रखता है। आज भी यहाँ लड़कियों को बोझ मानने की प्रवृत्ति ज़िन्दा है। लड़कों को प्राथमिकता देने और दहेज लेने पर क़ानूनन प्रतिबंध है। लेकिन बावजूद इसके सरेआम इन दोनों का ही प्रचलन जारी है। लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता देना यहाँ की संस्कृति का हिस्सा मान लिया गया है। पुरुष प्रधान सोच लड़कियों की प्रगति की राह में बाधा है। पाँच ख़रब की अर्थ-व्यवस्था बनाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना है। आज़ादी के 75वें साल में भी भ्रूण हत्या के मामले कटघरे में तो खड़ा कर ही देते हैं।
देश में शिक्षित महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। लेकिन ये सवाल भी हमारे सामने हैं कि महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग हैं और इनके इस्तेमाल के लिए कितना आगे आती हैं? समाज कितना बदला है? लड़कियों, महिलाओं को आगे बढऩे के वास्ते समाज कितना समर्थन करता है? वह इस पर कितना निवेश करता है? वंश को आगे बढ़ाने की प्रथा में लड़कों के साथ लड़कियों को भी बराबर की जगह देने के लिए कितना खुद को बदलता है? इन सवालों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। बाल लिंगानुपात के आँकड़ों में लड़कियों का कम दर्शाना एक सामाजिक समस्या तो है ही, पर इसके मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक व आर्थिक दुष्प्रभाव भी होते हैं। सरकारी तंत्र को और अधिक सख्ती से पेश आने की ज़रूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मौज़ूदा सरकार ने जो नये भारत का नारा गढ़ा है, उसमें लड़कियों को जन्म देने से पहले कोई उनकी हत्या न करे। तभी लैंगिक बराबरी ज़मीनी स्तर पर नज़र आयेगा।