पंजाब में कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के रेल रोको अभियान से राज्य में आर्थिक बदहाली जैसी स्थिति हो गयी है। लगभग दो माह से राज्य में मालगाडिय़ों की आवाजाही पूरी तरह से बन्द है। सैकड़ों डिब्बे माल से लदे हैं, जबकि इतना ही सामान बिना लदा पड़ा हुआ है। चूँकि किसान रेल पटरियों पर धरना दे रहे हैं। ऐसे में रेलवे विभाग सुरक्षा के नज़रिये से कोई खतरा नहीं उठाना चाहता।
रेल रोको अभियान से अब तक पंजाब को ही 40 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक नुकसान हो चुका है। पंजाब सरकार आर्थिक बदहाली से घुटनों पर आ चुकी है। राज्य की माली हालत और ज़्यादा खराब न हो इसके लिए वह रेल यातायात को बहाल कराना चाहती है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कृषि कानूनों के खिलाफ और किसानों के साथ खड़े हैं; मगर राज्य की मौज़ूदा स्थिति से वह भी डरे हुए हैं। 21 नवंबर को चंडीगढ़ में किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से उनकी बातचीत कुछ हद तक सफल रही। किसान नेता 15 दिन के लिए रेलवे ट्रेक से हटने पर सहमत हो गये। 23 नवंबर से 10 दिसंबर तक राज्य में रेल यातायात बहाल होने का रास्ता खुल गया है। किसान केंद्र सरकार से (मुख्यत: प्रधानमंत्री से) रू-ब-रू होना चाहते हैं। फैसला अब केंद्र सरकार के हाथ में है कि वह क्या करती है?
यह विकल्प कितना कारगर रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा, लेकिन इससे एक बात पुष्ट होती है कि बातचीत से समस्या का समाधान सम्भव है। जब राज्य का मुख्यमंत्री अपनी ओर से पहल करते हुए बातचीत करके कुछ हद तक सफल हो सकता है, तो ऐसी पहल के द्वारा प्रधानमंत्री ज़्यादा असरदार और सफल साबित हो सकते हैं। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहे, जिससे केंद्र सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगते हैं। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी किसान चाहते हैं, वह उसे मंज़ूर नहीं है। यह पक्की बात है कि केंद्र सरकार अब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अन्य गेहूँ-चावल उत्पादक राज्यों से पूरा उत्पाद नहीं खरीदना चाहती। वह आधे से ज़्यादा उत्पाद की खरीद को निजी हाथों में देना चाहती है। वह इस खरीद की ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। यही वजह है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने में हीला-हवाली कर रही है।
सरकारी व्यवस्था अभी से कितनी गड़बड़ा रही है? इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझा जा सकता है। किसान रणबीर सिंह पाल ने 18 अक्टूबर को सरकारी मण्डी में धान बेचे; लेकिन एक महीना बीतने के बाद भी अभी तक उनके खाते में पैसे नहीं आये हैं। वह कहते हैं पहले 24 घंटे के अंदर में नकद भुगतान होता था। किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। नये कृषि कानून बनने के दौरान पहली ही फसल में यह हाल है, तो आगे क्या होगा? रणबीर सिंह जैसे बहुत-से किसानों की यही व्यथा है। उन्हें लगता है किसानों के अच्छे नहीं, बुरे दिन शुरू हो गये हैं। जब सरकारी खरीद पर भुगतान का यह हाल है, तो निजी कारोबारी उनका क्या हाल करेंगे? यह सोचने की बात है। जब हमारे उत्पाद का पैसा ही समय पर नहीं मिलेगा, तो खेती करना ही सम्भव नहीं होगा। उनकी राय में केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानून किसानी और किसानों को खत्म करने वाले हैं।
राज्य के औद्योगिक शहर लुधियाना में सैकड़ों इकाइयाँ कच्चे माल की कमी के चलते बन्द होने के कगार पर हैं। ऐसे में फिर से प्रवासी मज़दूरों का पलायन भी हो रहा है। ज़रूरी सामग्री ट्रकों के माध्यम से पहुँच ज़रूर रही है, लेकिन उससे ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। रेलवे को तो हज़ारों करोड़ का नुकसान हो रहा है, बावजूद इसके केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से बातचीत करके हल निकालने का विकल्प नहीं अपनाया है। किसान संगठन बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन सरकार कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध पर ज़रा भी गम्भीर नहीं है। उसे लगता है कि धीरे-धीरे आन्दोलन कमज़ोर होकर अपने आप ही दम तोड़ देगा।
आन्दोलन कमज़ोर ज़रूर हुआ है, लेकिन किसानों ने हिम्मत नहीं हारी है। 26 और 27 को राजधानी दिल्ली कूच करने की ज़बरदस्त तैयारी है। भारतीय किसान यूनियन (एकता-उग्राहन) की ओर से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को पत्र लिखकर दिल्ली कूच के लिए उन्हें राज्य में प्रवेश की अनुमति माँगी गयी। लेकिन जैसे ही किसानों ने दिल्ली कूट ककिया, उन पर पुलिस ने कई तरह से बल प्रयोग किया। यूनियन के मुताबिक, लाखों किसान राज्य के डबवाली और खन्नौरी सीमा से हरियाणा होकर दिल्ली पहुँचेंगे। भाकियू (एकता-उग्राहन) के सचिव सुखदेव सिंह, कोकरी कलाँ ने कहा कि हम टकराव नहीं चाहते, शान्तिपूर्ण तरीके से आन्दोलन करना चाहते हैं। दिल्ली दरबार को बताना चाहते हैं कि कृषि कानूनों के खिलाफ कितना रोष है? अगर हरियाणा सरकार अनुमति देगी तो ठीक, वरना हमें जहाँ पुलिस रोकेगी वहीं धरने पर बैठ जाएँगे। इससे राज्य की पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी। किसान दिल्ली को जोडऩे वाले पाँच राष्ट्रीय राजमार्गों को पूरी तरह जाम करने का इरादा रखते हैं। प्रस्तावित आन्दोलन के मद्देनजर केंद्र ने अभी तक इसे टालने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये हैं। यह आन्दोलन की अच्छी बात कही जा सकती है कि किसान शान्तिपूर्वक आन्दोलन कर रहे हैं। किसान संगठन चाहते हैं कि जिस तरह से केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानून बनाये हैं, उसी तरह से एक और चौथा कानून भी बना दिया जाए, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की गारंटी हो।
फिलहाल बड़ा मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही है, जिस पर केंद्र सरकार गारंटी देना नहीं चाहती और किसान इसे कानूनी मान्यता दिलाने के पक्षधर है। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ के मुताबिक, केंद्र सरकार की हठधर्मिता की वजह से आन्दोलन इतना लम्बा खिच रहा है।
कांग्रेस नये कृषि कानूनों के खिलाफ है। वह किसानों की माँगों को जायज़ मानती है। पंजाब की अर्थ-व्यवस्था आन्दोलन की वजह से पटरी से उतर रही है। कृषि प्रधान राज्य पंजाब में खाद, यूरिया और अन्य संकट पैदा हो रहे हैं। नवंबर के अन्त में इनकी माँग और ज़्यादा बढ़ेगी। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने प्रयास किये। मुख्यमंत्री के कहने पर किसानों ने 15 दिन रेलवे सेवा बहाल करने पर सहमति दे दी। इस दौरान केंद्र सरकार बातचीत करके किसानों को राहत देती है, तो हालात सुधरेंगे, वरना स्थिति एक पखवाड़े बाद और खराब हो सकती है।
किसानों को खेती-बाड़ी छुड़वा सडक़ों पर धरने-प्रदर्शन पर मजबूर करने वाली केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानूनों पर ज़रा भी टस-से-मस नहीं हुई है। दो माह से आन्दोलनरत किसानों से सरकार ने बातचीत का कोई प्रस्ताव तक नहीं दिया। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जैसे आदर्श स्लोगन वाली भाजपा किसानों की आँखों की किरकिरी बन गयी है। किसान इन कृषि कानूनों को आत्मघाती बता रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री समेत लगभग सभी न इसके फायदे गिनाकर इसे क्रातिकारी कदम बता रहे हैं। तो क्या यह माना जाए कि किसानों को अपनी खेती के अच्छे-बुरे का पता नहीं? वह अन्नदाता है और बहुत कुछ जानता है। वह केवल कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए ही सडक़ों पर नहीं उतरा है, बल्कि उसे अपना अस्तित्त और खेती-किसानी ही खतरे में लग रही है। उसे पहले की तरह न्यूनतम समर्थन (एमएसपी) मूल्य की गारंटी चाहिए, लेकिन वह उसे नहीं मिल पा रही है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री न जाने कितनी बार न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने का मौखिक भरोसा किसानों को दे चुके हैं, लेकिन सब बेअसर साबित हुआ है। केंद्र सरकार को किसान यूनियनों के प्रतिनिधियों से बातचीत कर उनका भरोसा जीतने की पहल करनी चाहिए थी। अभी तक एक भी ठोस प्रस्ताव सरकार ने नहीं दिया।
पंजाब में किसानों के रेल रोको आन्दोलन की वजह से हिमाचल, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर में आवश्यक वस्तुओं की कमी हो चली है। कोयला आधारित बिजली संयंत्र बड़ी मुश्किल में है। इसके अलावा सीमेंट, खाद और अन्य ज़रूरी सामग्री रेल मार्ग से नहीं पहुँच पा रही है। केंद्र सरकार के पास एक पखवाड़े का पर्याप्त समय है। किसान संगठनों से बातचीत कर कोई हल निकाले इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? किसान सम्मानपूर्वक आन्दोलन को खत्म कर सकते हैं, बशर्ते केंद्र सरकार की मशा उनके सचमुच कल्याण की हो।
नये कृषि कानून बनाने पर केंद्र सरकार से बेहद खफा आन्दोलनरत किसानों को पंजाब सरकार से पूरा समर्थन और हमदर्दी है। शायद यही वजह रही कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जब किसान प्रतिनिधियों को बातचीत का प्रस्ताव भेजा, तो वे न केवल बातचीत को तैयार हुए, बल्कि मुख्यमंत्री के कहने पर 15 दिन के लिए रेल यातायात को बाधित न करने का वादा किया। यह कैप्टन अमरिंदर सिंह की बड़ी सफलता है। अब केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह किसानों से बातचीत करके उन्हें राहत दे। तभी किसान आन्दोलन समाप्त हो सकता है।
विपक्ष का समर्थन
पंजाब में किसानों को कांग्रेस का ही नहीं, बल्कि भाजपा को छोड़ सभी विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है। शिरोमणि अकाली दल के कोटे से केंद्र में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर ने तो इसे काला कानून बताते हुए इस्तीफा दे दिया था। शिअद पूरी तरह से किसानों के समर्थन में है, लेकिन राजनीतिक तौर पर उसे ज़्यादा फायदा नहीं मिल रहा। आम आदमी पार्टी भी किसान आन्दोलन को सही कदम बता रही है। पंजाब में कोई भी पार्टी किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती। भाजपाइयों की मजबूरी है, उन्हें केंद्र का समर्थन करना ही है। लेकिन राजनीतिक तौर पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। वोट बैंक की राजनीति से इतर किसानों के इस आन्दोलन को जायज़ ठहराने के दर्ज़नों तर्क हैं, पर शायद केंद्र सरकार को इससे फर्क नहीं पड़ता। वह किसान संगठनों में फूट पैदा करके आन्दोलन को कमज़ोर करना चाहती है, ताकि बातचीत की नौबत ही न आये।