सीटों की संख्या के मामले में अपने सबसे मजबूत सहयोगी तृणमूल कांग्रेस को खोने के बाद संप्रग सरकार बच तो गई है लेकिन इसके प्रबंधकों के लिए आखिरी के डेढ़ बरस बेहद मुश्किल साबित होने जा रहे हैं. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.
चौतरफा हो रहे हमलों के बीच जब सरकार ने सुधारों की गाड़ी को गति देने का फैसला किया तो उसे यह उम्मीद नहीं थी कि 19 सीटों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस अलग रास्ते पर चल पड़ेगी. हालांकि राष्ट्रपति चुनावों में तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी को दरकिनार करके कांग्रेस ने एक संकेत दिया था कि ममता की हर बात मानना सरकार की मजबूरी नहीं है. उस वक्त भी संप्रग को संजीवनी देने का काम समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने किया था, इस बार भी सबसे पहले वे ही आगे आए. उनके कभी पीछे तो कभी आगे मायावती भी सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बाहर रखने की कसमें खाते हुए संप्रग को हौसला देने का काम करती रहीं. उत्तर प्रदेश के इन दो धुर विरोधियों ने संप्रग को संकट से उबारने में एकता दिखाई. लेकिन ममता जिस अंदाज में अलग हुईं, उसने एक संकेत तो जरूर दिया कि सियासी मजबूरियों के बीच वे राजनीति को मुद्दों पर लाने का संकेत देने की कोशिश कर रही हैं.
बहरहाल, मनमोहन सिंह की सरकार बच तो गई है लेकिन हर तरफ यही सवाल पूछा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के दो धुर विरोधियों की बैसाखी पर टिकी यह सरकार आखिर कब तक चलेगी. संदेह के इन तमाम सवालों के बीच सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और उनके प्रबंधकों का हौसला बुलंद है. वे बड़े सुधारों की बात कर रहे हैं. सरकार पर से संकट टलने के बाद जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तो उसमें भी यह संदेश दिया गया कि सुधार की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से मनमोहन सिंह के साथ खड़ी है. हालांकि, सरकार और कांग्रेस की ओर से सार्वजनिक तौर पर गठबंधन की मजबूती को लेकर चाहे जितने भी दावे किए जा रहे हों लेकिन खुद कांग्रेस के कई नेता निजी बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि स्थितियां उतनी आसान नहीं है जितनी बताई जा रही हैं.
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और दो बड़े राज्यों में पार्टी के प्रभारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में हम मुलायम सिंह यादव और मायावती के खिलाफ विधानसभा चुनावों में लड़े थे. अब ये दोनों हमारा साथ दे रहे हैं. कांग्रेस के कई नेता और खास तौर पर राहुल गांधी यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति सुधारे बगैर पार्टी को केंद्र की राजनीति में और मजबूत नहीं किया जा सकता. इसलिए मुलायम और मायावती का साथ कांग्रेस के लिए कोई लंबी अवधि की रणनीति का हिस्सा नहीं हो सकता. अभी प्राथमिकता सरकार को बचाते हुए अगले डेढ़ साल में मौजूदा नकारात्मक माहौल को बदलने की है इसलिए हम इनका साथ ले रहे हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘हमें पता है कि मुलायम आधे-अधूरे मन से हमारा समर्थन कर रहे हैं.
आधे-अधूरे मन से साथ दे रहे मुलायम को आज इस बात का भरोसा हो जाए कि उनके समर्थन वापस लेने से यह सरकार गिर जाएगी तो आज वे ऐसा कर दें
उन्हें आज इस बात का भरोसा हो जाए कि उनके समर्थन वापस लेने से यह सरकार गिर जाएगी तो आज वे ऐसा कर दें. लेकिन उन्हें पता है कि उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती हमारी सरकार को बचा लेंगी. मुलायम चाहते नहीं हैं कि केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी लेकर मायावती मजबूत हों. उनकी रणनीति मायावती को सत्ता से दूर रखते हुए उत्तर प्रदेश की उन योजनाओं के लिए धन निकालने की है जिसकी घोषणा उन्होंने चुनावों के दौरान की थी. इसलिए हमें चिंता सपा-बसपा की नहीं बल्कि अन्य सहयोगियों की है.’ माना जाता है कि मुलायम और मायावती को धमकाने के लिए कांग्रेस बार-बार सीबीआई के डंडे का इस्तेमाल करती है. मुलायम द्वारा कांग्रेस का साथ दिए जाने को सीधे तौर पर इससे जोड़कर ही देखा जाता है. ऐसे में कुछ जानकारों का मानना है कि अगर मुलायम संप्रग से समर्थन वापस लेते हैं और फिर भी सरकार मायावती के समर्थन से बच जाती है तो सीबीआई के जरिए कांग्रेस और मायावती दोनों मिलकर मुलायम के लिए मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर सकते हैं.
दरअसल, आज कांग्रेस में सबसे ज्यादा चिंता एम करुणानिधि की पार्टी डीएमके को लेकर है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक की बढ़ती मजबूती को देखते हुए डीएमके के कई नेता मानते हैं कि पार्टी को केंद्र सरकार से अलग होकर सड़क पर संघर्ष करना चाहिए. इन्हें लगता है कि ऐसा करके ये विधानसभा चुनावों से शुरू हुए अन्नाद्रमुक के विजय अभियान को रोक पाएंगे. लेकिन करुणानिधि को जानने वाले लोग बताते हैं कि उनकी छवि एक ऐसा नेता की है जो संबंधों को निभाता है. यही कांग्रेस के लिए सबसे राहत की बात है. मगर करुणानिधि अब बुजुर्ग हो गए हैं और पार्टी के मुख्य फैसलों में उनके बेटे, बेटी और अन्य नेता भी अहम भूमिका निभाने लगे हैं. इसलिए आशंका यह भी जताई जा रही है कि डीएमके कभी भी संप्रग को गच्चा देकर केंद्र सरकार की ‘जनविरोधी’ नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतर सकती है. डीएमके की तरफ से कई बार यह कहा भी गया है कि संप्रग के रणनीतिकार सहयोगी दलों को अहमियत नहीं देते. कुछ इसी तरह की बातें ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार भी कहते रहे हैं. अब ममता संप्रग से अलग हैं लेकिन डीएमके, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तृणमूल के प्रतिनिधियों के बीच दो दौर की बातचीत आपसी समन्वय को लेकर अब तक हुई है. ऐसे में अगर कुछ नए राजनीतिक समीकरण दिखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को भी यह अहसास है कि आम चुनाव की स्थिति कभी भी पैदा हो सकती है. यही वजह है कि दिल्ली से सटे फरीदाबाद के सूरजकुंड में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में घूम-फिरकर संप्रग सरकार की नाकामी और आगामी आम चुनाव का मुद्दा ही छाया रहा. खुद पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने संबोधन में कार्यकर्ताओं से चुनाव के लिए तैयार रहने का आह्वान करते हुए संप्रग सरकार को डूबता हुआ जहाज बताया. पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद भाजपा की चुनावी तैयारियों के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं, ‘अगर एक महीने में भी चुनाव होते हैं तो भाजपा इसके लिए तैयार है.’ वे कहते हैं, ‘हम सरकार को गिराने की कोशिश नहीं करेंगे लेकिन यह सरकार अपने ही कर्मों से जाएगी.’ सुधार की राह में रोड़े अटकाने के कांग्रेस के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए वे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि देश 1991 की स्थिति में पहुंच गया है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है. पिछले साढ़े आठ साल से मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हैं. इसके बावजूद अगर अर्थव्यवस्था की बुरी हालत है तो इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.’
संप्रग की यह सरकार गिरे या नहीं लेकिन यह एक तथ्य है कि डेढ़ साल बाद तो हर हाल में चुनाव होंगे ही और यह कोई बहुत लंबा वक्त नहीं है. ऐसे में भ्रष्टाचार, महंगाई और जनविरोधी नीतियों के आरोपों से जूझ रही सरकार अपनी चुनावी संभावनाओं को मजबूती देने के लिए आखिर किस रास्ते जाएगी. इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘सरकार आर्थिक सुधार की गाड़ी आगे बढ़ाने की बात तो कर रही है लेकिन खुद एक उलझन में दिखती है. कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि आर्थिक सुधारों की वजह से देश का मध्य वर्ग उनके साथ जुड़ेगा. उलझन यहीं है. मध्य वर्ग को यह तो लगता है कि वॉलमार्ट जैसी कंपनियां आएंगी तो उन्हें इनमें नौकरी मिलेगी. लेकिन सरकार बिजली क्षेत्र में भी सुधार लाना चाहती है. या यों कहें कि बिजली की दरें भी बढ़ाना चाहती है. अब इससे सबसे ज्यादा नाराजगी मध्य वर्ग को ही होगी. इसलिए सरकार एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति में हैं.’
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की पकड़ मजबूत होते देख डीएमके के कई नेता मानते हैं कि पार्टी को केंद्र सरकार से अलग होकर सड़क पर संघर्ष करना चाहिए
सरकार के आगे के सफर के बारे में वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘सरकार सुधार की गाड़ी तो आगे बढ़ाएगी. क्योंकि मनमोहन सिंह की विदेशी मीडिया और रेटिंग एजेंसियों ने काफी आलोचना की है. कॉरपोरेट सेक्टर भी मनमोहन सिंह से खुश नहीं था. जब से खुदरा में विदेशी निवेश को हरी झंडी देने की घोषणा केंद्र सरकार ने की है तब से देश के आर्थिक अखबार मनमोहन सिंह की तारीफ के पुल बांधने में दोबारा लग गए हैं. आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर बताने वाला टाइम कुछ सप्ताह बाद उन्हें बदलाव का वाहक कहने लगे. इससे मनमोहन सिंह भले ही खुश हों लेकिन कांग्रेस के लोगों को और खास तौर पर उन्हें जो चुनावी दांव-पेंच जानते हैं, पता है कि चुनाव टाइम और रेटिंग एजेंसियां नहीं जितवातीं.’ ठाकुरता आगे कहते हैं, ‘इसलिए यह सरकार कुछ लोकलुभावन योजनाएं लेकर आएगी. खाद्य सुरक्षा इनमें से एक हो सकती है. गरीबों को मुफ्त में दवा देने की योजना भी यह सरकार लागू कर सकती है.
इसका मतलब यह हुआ कि सरकार एक तरफ सुधार के जरिए कॉरपोरेट सेक्टर को साधेगी तो लोकलुभावन योजनाओं के जरिए आम मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी.’ सरकार ने इस दिशा में संकेत भी दिए हैं. केंद्रीय कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में भी बढ़ोतरी कर दी गई. खुद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मीडिया से बातचीत में यह कहा कि अगले चुनाव में कांग्रेस के लिए खाद्य सुरक्षा कानून और जमीन अधिग्रहण कानून ट्रंप कार्ड होंगे.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इन लोकलुभावन योजनाओं के झांसे में आकर देश की जनता भ्रष्टाचार और महंगाई रोकने में सरकार की नाकामी को भूल जाएगी. केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दिया था कि देश की जनता भ्रष्टाचार के मामलों को भूल जाती है. लेकिन नीरजा चौधरी ऐसा नहीं मानतीं. वे कहती हैं, ‘किसी भी सरकार की सबसे बड़ी पूंजी उसकी विश्वसनीयता होती है. इसका महत्व एक ऐसी सरकार के लिए और भी अधिक बढ़ जाता है जिसका कार्यकाल सिर्फ डेढ़ साल ही बचा हुआ हो.’ ठाकुरता कहते हैं, ‘जनता की अदालत से अपने पक्ष में फैसला पाना कांग्रेस के लिए काफी मुश्किल होने जा रहा है क्योंकि कांग्रेस अपने चुनाव चिह्न हाथ के जिस आम आदमी के साथ होने का दावा करती है, वही इसके कार्यकाल में सबसे अधिक परेशान हुआ है.’