महिला आरक्षण विधेयक संसद में पास होने के बाद भी फ़िलहाल नहीं होगा लागू
नये संसद भवन में कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी ने विपक्ष की तरफ़ से चर्चा की शुरुआत करते हुए लोकसभा में महिलाओं को राजनीति में 33 फ़ीसदी आरक्षण वाले नारी शक्ति वंदन विधेयक पर ओबीसी महिलाओं को आरक्षण से बाहर रखने पर सवाल उठाते हुए इस विधेयक को तत्काल प्रभाव से लागू करने की माँग की, तो भाजपा की तेज़ तर्रार सदस्य उमा भारती ने भी क़ानून में ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण की माँग की। निश्चित ही उनके तेवर भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं।
सबसे विचित्र बात यह है कि यह क़ानून आज से छ: साल बाद 2029 में कहीं जाकर लागू हो पाएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा ने लम्बी प्रक्रिया का बहाना बनाकर क्या महज़ चुनाव में लाभ लेने के लिए इस विधेयक को अभी पास करवा दिया? यदि कांग्रेस व उसके विपक्षी सहयोगियों ने विधेयक पास होने के बावजूद महिला आरक्षण लटकाने को मुद्दा बना दिया, तो भाजपा को लाभ की जगह नुक़सान भी हो सकता है। ऊपर से विधेयक में ओबीसी को बाहर रखने का मुद्दा भी भाजपा के ख़िलाफ़ जाता है।
भाजपा को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं के क़रीब 50 फ़ीसदी वोट मिले थे और पार्टी इन्हें बचाए रखने की क़वायद के लिए ही यह विधेयक चुनाव से पहले लायी, भले आरक्षण छ: साल बाद ही लागू हो। सन् 2019 में जब भाजपा दोबारा सत्ता आयी थी, तब महिलाओं का भाजपा से मोह भंग नहीं हुआ था। लेकिन अब चार साल बाद महँगाई और अन्य मुद्दों के चलते महिलाओं का भाजपा से मोह भंग हुआ है। भाजपा में इससे चिन्ता है। रोज़गार नहीं मिलने से युवा पहले ही भाजपा से दूर हुए हैं। ऐसे में भाजपा के पास महिला आरक्षण ही एक ऐसा हथियार था, जिससे वह महिलाओं को पार्टी से दूर जाने से रोक सकती थी। हालाँकि कुछ जानकार कहते हैं कि राजनीति में आरक्षण बहुत सीमित मात्रा में महिलाओं को आकर्षित करता है, क्योंकि 70 फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाओं का राजनीति से सीधा कुछ लेना-देना नहीं होता। हाल के वर्षों में महिलाओं में राजनीति की तरफ़ रुझान बढ़ा है; लेकिन आज भी महिलाओं के लिए सबसे बड़े मुद्दे महँगाई और रोज़गार हैं। आज भी गाँवों / पंचायतों (स्थानीय निकाय) में जहाँ महिला आरक्षण लागू है, वहाँ भी महिलाओं की वास्तव में रोल बहुत सीमित है; क्योंकि परदे के पीछे उनके पति या पुरुष साथी ही फ़ैसले करते हैं।
फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़े स्तर पर 33 फ़ीसदी आरक्षण मिलने से महिलाओं को अपनी आवाज़ बुलंद करने का अवसर मिलेगा। वे अपने मुद्दों को और मज़बूती से सामने ला पाएँगी और उनके हल का दबाव भी सत्ताओं पर बढ़ेगा। हाल के वर्षों में महिला आरक्षण को लेकर स्वर तेज़ हुए हैं। सन् 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी तो महिला आरक्षण की सम्भावना सबसे मज़बूत दिखी थी। इसका कारण यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी का महिलाओं के प्रति रुझान था। यह सोनिया गाँधी ही थीं, जिन्होंने पहले विदेश सेवा की अधिकारी मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनवाया। साथ ही राज्यसभा में नज़मा हेपतुल्ला को उप सभापति बनाया। इसके बाद प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति भी उनके ही कारण बनीं। सोनिया गाँधी ने कहा था कि वह अपने दिवंगत पति राजीव गाँधी के महिलाओं को ज़्यादा अधिकार देने के सपने को पूरा कर रही हैं। हालाँकि यूपीए के अपने ही कुछ साथियों के विरोध के कारण यूपीए सरकार महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पास करवाने के बावजूद लोकसभा में पेश नहीं कर सकी। यदि ऐसा हो पाता, तो 2010-11 में ही महिला आरक्षण लागू हो गया होता।
भाजपा की सफलता
इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा कहीं ज़्यादा योजना के साथ संसद में विधेयक लाती है और उनका पास होना भी सुनिश्चित करती है। पहले जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने जैसा विवादित विधेयक पास करवाना इसका उदाहरण है। अब उसने महिला आरक्षण विधेयक भी संसद में पास करवा लिया। निश्चित ही यह विधेयक शुद्ध चुनावी हथियार है। लेकिन यह भी सच है कि दशकों से लटका यह विधेयक पास हो गया है; भले मोदी सरकार इसे अभी लागू नहीं कर रही है। भाजपा और ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह इस विधेयक को ख़ुद की कोशिश बताया, उससे ज़ाहिर है कि वह विपक्ष को इसका बिलकुल भी श्रेय नहीं लेने देना चाहते हैं।
भाजपा महिला विधेयक पास करवाने को उज्ज्वला रसोई गैस योजना, मुफ़्त महिला शौचालय और नल से जल जैसी पिछली महिला सम्बन्धी योजनाओं से भी जोड़ेगी। गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि यह क़ानून 2029 तक ही लागू हो पाएगा। ज़ाहिर है महिलाओं को अभी लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा। चूँकि यह काफ़ी लम्बा होगा, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल आने वाले चुनावों में इसके लिए भाजपा को घेर सकते हैं। इस दौरान कौन-सी सरकारें केंद्र में सत्ता में आएँगी, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कम-से-कम दो चुनाव तो इस दौरान पड़ेंगे ही। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि आरक्षण के नाम पर महिलाओं को फ़िलहाल तो बहुत लम्बा इंतज़ार ही मिला है। लेकिन यह तय है कि इस साल होने वाले विधानसभाओं और 2024 (या जब भी हों) के लोकसभा चुनाव में भाजपा महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने की बात को भुनाने की पूरी कोशिश करेगी।
भाजपा अगले चुनाव को बड़ी चुनौती के रूप में देख रही है। उसे लग रहा है कि कांग्रेस उभर सकती है। कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन से उसे मुश्किल चुनौती मिल सकती है। दूसरे विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गाँधी की रेटिंग (जनता में स्वीकार्यता) हाल के महीनों में बढ़ी है। ज़ाहिर है, जिस राहुल गाँधी को भाजपा नेता विपक्ष की सबसे कमज़ोर कड़ी बताते रहते हैं। वहीं राहुल गाँधी वास्तव में भाजपा के लिए सबसे गम्भीर चुनौती हैं।
ऐसे में भाजपा चुनाव के लिए अपने थैले में एक से अधिक तुरुप के पत्ते रखना चाहती है। महिला आरक्षण क़ानून के अलावा राम मंदिर को वह अपना बड़ा हथियार बनाएगी। इसके अलावा उसने एक राष्ट्र, एक चुनाव, कृष्ण जन्म भूमि और समान नागरिक संहिता का राग भी छेड़ रखा है, ताकि अपने मुद्दों का वज़न बढ़ा सके। भले इन दोनों मुद्दों को वह भविष्य के चुनावों में इस्तेमाल के लिए रखे। ऐसे में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन या अन्य विपक्षी दलों के सामने इन मुद्दों की बड़ी चुनौती तो रहेगी ही। देखना यह होगा कि वे मोदी सरकार के ख़िलाफ़ 10 साल की एंटी-इंकम्बैंसी को भुना पाते हैं या नहीं? उन्हें भाजपा के ब्रांड चेहरे नरेंद्र मोदी के अलावा इन मुद्दों से निपटना पड़ेगा।
संसदीय प्रणाली का नया अध्याय
संसद का विशेष सत्र नये संसद भवन में हुआ। सत्र के पहले दिन पुराने भवन में तमाम सदस्यों ने भावुकता से पुराने लम्हों को याद किया, वहीं इस भवन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डाला। बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने प्रस्ताव किया कि पुराने संसद भवन को अब संवैधानिक भवन कहा जाए। सदस्यों का सामूहिक फोटो सेशन भी हुआ। इसके बाद पैदल चलते हुए सभी सदस्य नये भवन पहुँचे, जहाँ आगे की कार्यवाही हुई। नये संसद भवन के साथ भारतीय संसदीय प्रणाली का नया अध्याय शुरू हुआ है।
निश्चित ही नये संसद भवन में आने वाली सरकारों की तरफ़ से नये क़ानूनों, सामाजिक, आर्थिक और वैधानिक विषयों के नये मापदंड स्थापित होंगे। भविष्य में नयी पीढ़ी के जो सदस्य चुनकर आएँगे, उनके लिए पुराने संसद भवन का इतिहास अध्ययन और जिज्ञासा का विषय होगा। नये संसद भवन का नाम इतिहास में इसलिए भी दर्ज हो गया कि इसकी पहली ही बैठकों में महिला आरक्षण विधेयक आया और पास हुआ। इस विधेयक के लागू होने के बाद संसद के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण बदलाव दिखेंगे, क्योंकि लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 82 से बढक़र 181 हो जाएगी।
क्या है महिला आरक्षण विधेयक?
बिल में महिला आरक्षण की अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गयी है और दलित और आदिवासियों के लिए जितनी सीटें लोकसभा और विधानसभा के लिए आरक्षित हैं, उनमें से 33 फ़ीसदी इस समुदाय की महिलाओं के लिए निर्धारित हो जाएँगी। ओबीसी के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है, जो यूपीए के विधेयक में थी। हालाँकि ओबीसी आरक्षण की माँग के चलते यह विधेयक इतने समय लटका रहा। इस विधेयक के तहत महिला आरक्षण 15 साल के लिए मिलेगा। उसके बाद इसे जारी रखने के लिए फिर से विधेयक लाना होगा।
वर्तमान में लोकसभा में 82 महिला सदस्य हैं, जो कुल सदस्यों का महज़ 15 फ़ीसदी हैं। उधर राज्यसभा में 31 महिला सदस्य हैं, जो कुल सदस्य संख्या का सिर्फ 13 फ़ीसदी है। राज्यों की बात करें, तो विधानसभाओं में महिलाओं की उपस्थिति 10 फ़ीसदी से भी कम है। भले स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की बड़ी भागीदारी रही थी, उन्हें राजनीति में बहुत बेहतर प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है। सन् 1977 में जे.पी. आन्दोलन के बावजूद संसद में महिला प्रतिनिधित्व महज़ 3.5 फ़ीसदी रहा था, जो अब तक का सबसे कम है।
![](https://tehelkahindi.com/wp-content/uploads/2023/10/8-4-1024x724.jpg)
महिला आरक्षण विधेयक का पहला ड्राफ्ट सन् 1996 में तैयार किया गया था। हालाँकि शुरुआत से ही इसे विवादों ने घेर लिया। कारण थी पुरुष मानसिकता, जो महिलाओं को ज़्यादा अधिकार देने के ख़िलाफ़ थी। सन् 1998 में जब केंद्र में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार थी, उनकी ही पार्टी के भीतर विधेयक को लेकर विद्रोह हो गया। लिहाज़ा विधेयक ही पेश नहीं हो सका। इसके बाद उसी साल अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी विधेयक पेश करने की कोशिश की; लेकिन समाजवादी पार्टी के सांसदों ने विधेयक की प्रतियाँ सदन में ही फाड़ डालीं। सन् 2000 में उस समय के क़ानून मंत्री राम जेठमलानी ने विधेयक पेश तो किया; लेकिन पास नहीं हो पाया। इसके बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 3 मार्च, 2002 को महिला आरक्षण पर सहमति के लिए सर्वदलीय बैठक बुलायी; लेकिन इस पर भी सहमति नहीं बन पायी। एक बार फिर समाजवादी पार्टी और राजद ने इसमें पिछड़ों के लिए कोटे की माँग करके इसका विरोध किया। इसके बाद सन् 2010 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार इकलौती सरकार थी, जो महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पास करवाने में सफल रही; लेकिन लोकसभा में नहीं करवा पायी। उस समय राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक को एक के मुक़ाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया गया था।
अब जब यह विधेयक संसद में पास हो गया है। कांग्रेस की माँग है कि इसे तत्काल अमल में लाया जाए। साथ ही वह जातीय जनगणना की माँग है, ताकि ओबीसी महिलाओं को भी आरक्षण का प्रावधान करके लाभ दिया जा सके। उधर भाजपा इसे मोदी सरकार की प्राथमिकता से जोड़ रही है। लेकिन यह भी सच है कि नये विधेयक में सबसे बड़ा पेच यह है कि यह परिसीमन के बाद ही लागू होगा। परिसीमन इस विधेयक के पास होने के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर होगा। साल 2024 में होने वाले आम चुनावों से पहले जनगणना और परिसीमन क़रीब-क़रीब असम्भव है। इस फॉर्मूले के मुताबिक, विधानसभा और लोकसभा चुनाव समय पर हुए, तो इस बार महिला आरक्षण लागू नहीं होगा। यह साल 2029 के लोकसभा चुनाव या इससे पहले के कुछ विधानसभा चुनावों से लागू हो सकता है।
महिला आरक्षण का इतिहास
महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण की पहली माँग सन् 1931 में उठी थी, जब बेगम शाह नवाज़ और सरोजिनी नायडू ने इसे लेकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिलाओं के लिए राजनीति में समानता की माँग की थी। इस दौरान संविधान सभा की बहसों में भी महिलाओं के आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा हुई।
सन् 1971 में नेशनल एक्शन कमेटी ने भारत में महिलाओं के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर चिन्तन के लिए बैठक की। सदस्यों ने स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण का समर्थन किया। इसके बाद कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का रास्ता खोला। सन् 1988 में महिलाओं के लिए नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान ने पंचायत स्तर से संसद तक महिलाओं को आरक्षण की सि$फारिश की। इसी का नतीजा था कि राजीव गाँधी सरकार के समय पंचायती राज संस्थानों और सभी राज्यों में शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण अनिवार्य करने वाले 73वें और 74वें संविधान संशोधनों की नींव रखी गयी। इन सीटों में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
इसके बाद सन् 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों में पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गयीं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और केरल सहित कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू किया है।
चुनाव की बात करें, तो सन् 2009 में ओबीसी के भाजपा को 22 फ़ीसदी, कांग्रेस को 24 फ़ीसदी, जबकि क्षेत्रीय दलों को 54 फ़ीसदी वोट मिले। इसी तरह सन् 2014 में भाजपा को 34, कांग्रेस को 15 और क्षेत्रीय दलों को 51 फ़ीसदी वोट मिले। उधर सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 44, कांग्रेस को 15 जबकि क्षेत्रीय दलों को 41 फ़ीसदी वोट मिले थे। ऐसे में ओबीसी वोट चुनाव में महत्त्व रखता है। लिहाज़ा महिला आरक्षण में इस समुदाय को नज़रअंदाज़ करने का भाजपा को नुक़सान हो सकता है।
![](https://tehelkahindi.com/wp-content/uploads/2023/10/8-2.jpg)
सारे दलों को इस विधेयक का समर्थन करना पड़ा है। यही लोग हैं, जो पहले विधेयक फाड़ा करते थे। आज उनको विधेयक को समर्थन करना क्यों पड़ा? क्योंकि देश भर में पिछले 10 साल में महिलाएँ शक्ति बनकर उभरी हैं। हमने संसद में पहुँचने से पहले देश में सामथ्र्य बना दिया। आपकी शक्ति ने रंग दिखा दिया कि सभी राजनीतिक दलों को इस काम में जुडऩा पड़ा। शायद ईश्वर ने इस और ऐसे कई पवित्र काम के लिए मोदी को ही चुना है।’’
नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री
![](https://tehelkahindi.com/wp-content/uploads/2023/10/8-3.jpg)
महिला आरक्षण अच्छा क़दम है; लेकिन इसमें दो शर्तें लगायी गयी हैं। इसे लागू करने से पहले जनगणना और परिसीमन कराना होगा। इन्हें करने में बहुत साल लगेंगे। सच्चाई यह कि महिला आरक्षण को आज से ही लागू किया जा सकता है। भाजपा को इन दोनों शर्तों को हटा देना चाहिए। यह कोई जटिल मामला नहीं है; लेकिन सरकार यह नहीं करना चाहती। सच्चाई ये है कि यह आज से 10 साल बाद लागू होगा। यह भी नहीं मालूम कि होगा या नहीं होगा। महिला आरक्षण एक डायवर्सन टैक्टिक है। इसके ज़रिये ओबीसी जनगणना से लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है। मुझे पता लगाना है कि ओबीसी हिन्दुस्तान में कितने हैं। जितने भी हैं, उन्हें भागीदारी मिलनी चाहिए।’’
राहुल गाँधी
कांग्रेस नेता
कांग्रेस तत्काल लागू कर देती आरक्षण!
कांग्रेस इसे तत्काल लागू करने की माँग कर रही है। इस पत्रकार की जानकारी के मुताबिक, वह लोकसभा चुनाव में इसे सत्ता में आते ही लागू करने की बात अपने चुनाव घोषणा-पत्र में ला सकती है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने इस पत्रकार को नाम न छापने की शर्त पर बताया- ‘पार्टी इसे 2010 में ही लागू कर देती, यदि यह लोकसभा में भी उस समय पास हो गया होता। हमने फ़ैसला कर लिया था। लेकिन दुर्भाग्य से यह नहीं हो पाया था। सोनिया जी का भी इस क़ानून को लागू करने पर बहुत ज़ोर था। अब हम आने वाले चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में इसे सत्ता में आते ही लागू करने का वादा कर सकते हैं।’
चूँकि विधेयक पास हो चुका है, इसलिए सत्ता में आने पर कांग्रेस को इसे लागू करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी। विधेयक संसद में पास होने के अगले ही दिन कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके महिला आरक्षण अगले लोकसभा चुनाव में ही लागू करने की माँग की। उनसे पहले सोनिया गाँधी पहली विपक्षी सदस्य थीं, जिन्होंने संसद के भीतर महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में आवाज़ बुलंद की। ज़ाहिर है इस विधेयक को पास करवाकर चुनाव में लाभ लेने की भाजपा की कोशिश को कांग्रेस अपने तरी$के से भोथरा करने की तैयारी में है। कांग्रेस पहले ही इसे पार्टी (यूपीए) का विधेयक बताकर श्रेय लेने की कोशिश कर चुकी है।
विदेशों में महिला आरक्षण
वैसे तो भारत में महिलाओं की आबादी 48 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है; लेकिन राजनीति में उनकी हिस्सेदारी (वर्तमान विधेयक पास होने से पहले) महज़ 17 फ़ीसदी ही है। महिलाओं के संसंद में प्रतिनिधित्व के लिहाज़ से भारत की 185 देशों में आज 141वीं रैंकिंग है। यह 15 फ़ीसदी है, जो हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी कम है। हाँ, हाल में संसद में पास हुआ क़ानून लागू होने से स्थिति ज़रूर बदलेगी। दुनिया के कई देशों में महिलाओं के लिए संसद में 50 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान है, जिनमें फ्रांस और दक्षिण कोरिया शामिल हैं।
अर्जेंटीना, मैक्सिको और कोस्टा रिका की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 36 फ़ीसदी से ज़्यादा है। पाकिस्तान में सन् 2002 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ सरकार ने इसे 33 फ़ीसदी कर दिया। बांग्लादेश की संसद की 350 सीटों में 50 महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। नेपाल में तो सन् 2007 से ही महिलाओं के लिए 33.09 फ़ीसदी आरक्षण है। अमेरिका और ब्रिटेन में महिला आरक्षण नहीं; लेकिन उनका प्रतिनिधित्व बिना आरक्षण के भी क्रमश: 29 और 35 फ़ीसदी है। दुनिया में एक-तिहाई देश ऐसे हैं, जहाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33 फ़ीसदी है। महिलाओं के आधे प्रतिनिधित्व के मामले में न्यूजीलैंड और यूएई जैसे देश हैं। इस मामले में सबसे ऊपर रवांडा है, जहाँ 61 फ़ीसदी महिलाओं का प्रतिनिधित्व है।