जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए सैकड़ों वर्षों से संघर्षरत प्रकृतिवादी आदिवासी समाज आज भी ग़रीबी, अशिक्षा, कुपोषण और आवश्यक ज़रूरतों से वंचित है। सरकार आदिवासी समाज के सच्चे देशप्रेम की भावना को समझना नहीं चाहती है यहीं कारण है कि सरकार की विकास योजनाओं के लाभ से आज भी आदिवासी समुदाय वंचित है।
उल्टे सरकार ही आदिवासी समाज के जल, जंगल, ज़मीन को लूटने में उद्योगपतियों की सहयोग करने लगी है। आदिवासी अंग्रेजी शासन के दौरान भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे और आज भी लड़ रहे हैं। आदिवासी समुदाय से भारत के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर महामहिम द्रौपदी मुर्मू के विराजमान होने पर बेशक आदिवासी लोगों को लगता हो कि उनके समाज, संस्कृति और जल जंगल ज़मीन की रक्षा होगी; लेकिन इसकी उम्मीदें कम ही हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि आदिवासी समाज जिन जंगलों को, ज़मीनों को सुरक्षित रखना चाहता है, उन्हें सदियों से उनसे जबरन छीने जाने में और उनके घरों को उजाडऩे में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ही मुख्य भूमिका है। उद्योगपति सरकार की मिलीभगत से ही आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन छीनकर उनकी ज़िन्दगी को तबाह कर देते हैं। आदिवासियों के ऊपर ऐसे अत्याचार की सैकड़ों सच्ची घटनाएँ न सिर्फ़ बेचैन करती हैं, बल्कि सच्चे देशप्रेमी आदिवासियों के प्रति सरकार के ग़ैर-जिम्मेदार रवैये को भी दर्शाती हैं।
हाल ही में आदिवासी समुदाय के प्रोत्साहन और जनजातीय संस्कृति, शिल्प, खान-पान, वाणिज्य, पारम्परिक कला को प्रदर्शित के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आदि महोत्सव का आयोजन केंद्र सरकार द्वारा किया गया। इस महोत्सव का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इस पूरे कार्यक्रम में जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा उनके साथ रहे। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि देने के बाद अपने भाषण में आदिवासियों की संस्कृति की तारीफ़ की और अपनी सरकार में उनके विकास के दावे किये। उन्होंने आदिवासी समाज का हित व्यक्तिगत बताया। उन्होंने एक बात पूरी तरह सही कही कि आज भारत विश्व को बताता है कि अगर आपको जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौतियों का समाधान चाहिए, तो आदिवासियों की जीवन परम्परा देख लीजिए, आपको रास्ता मिल जाएगा।
विश्व की बात तो छोडि़ए, प्रश्न यह है कि भारत में कितने लोग आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को समर्थन दे रहे हैं और कितने लोग आदिवासियों के साथ मिलकर प्रकृति को, जल जंगल ज़मीन को बचाना चाहते हैं? बड़े-बड़े पूँजीपति, माफिया, तस्कर सरकारों के साथ मिलकर उन्हीं आदिवासियों को कुचल रहे हैं, जो आदिवासी दुनिया को प्रकृति से जुडक़र जीना सिखा रहे हैं। इन समुदायों की ज़मीनी ज़िन्दगी बिल्कुल सीधी-सादी और प्रकृतिवादी होती है, इसके बावजूद भी इन पर अत्याचार ग़ुलामों और आतंकवादियों की तरह किया जाता है। आज भी सीधे-साधे आदिवासियों को नक्सली ठहराकर उन पर दिल दहला देने वाले अत्याचार किये जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास से आदिवासियों के शिल्प, कला और संस्कृति को बढ़ावा ज़रूर मिलेगा, किन्तु क्या आदिवासियों की उन समस्याओं का समाधान हो सकेगा, जिनके लिए वे सदियों से संघर्ष कर रहे हैं?
जल, जंगल, ज़मीन का संघर्ष
आदिवासियों के लिए अपने आस्तित्व जल, जंगल, ज़मीन को बचाने की चुनौती सबसे बड़ी है। कभी नौकरी का झाँसा देकर, कभी मुआवज़े का झाँसा देकर, तो कभी तरक़्क़ी के नाम पर जबरन आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जाती रही हैं, उनकी बस्तियाँ उजाड़ी जाती रही हैं। आदिवासी इलाक़ों में माइनिंग, जंगलों का कटान, भू-संसाधनों का दोहन जिस गति से पिछले 75 वर्षों में हुआ है, उसने सीधे-साधे आदिवासियों की ज़िन्दगी तहस-नहस कर दी है। सुविधाओं के मामले में आदिवासियों से सरकारों का सौतेला व्यवहार किसी से छिपा नहीं है।
भाषा और संस्कृति के लिए संघर्ष
भारत में सभी आदिवासी समुदायों की अपनी भाषा, रीति-रिवाज, अपनी संस्कृति, अपना जीवन दर्शन हैं। लेकिन ये मुख्यत: तीन भाषाई समुदायों में बांट दी गयी हैं- गोंडी, द्रविड़, आस्ट्रिक। किन्तु भीली, संताली, मुंडारी, हो, कुड़ुख, खडिय़ा, बोडो, डोगरी, टुलु, हलबी और सादरी जैसी भाषाएँ आदिवासियों की देन हैं। भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है, जिनमें दो आदिवासी भाषाएँ- संताली और बोड़ो ही आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों के आदिवासी आज भी अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। इसी तरह आदिवासी अपनी संस्कृति-सभ्यता को बचाने की लड़ाई आज़ादी से पहले से कर रहे हैं। आज़ादी के बाद उन्हें सांस्कृतिक संरक्षण मिलना चाहिए, किन्तु आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बावजूद आदिवासी समाज संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज़ को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
ओडिशा का आदिवासी मेला
ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में वार्षिक राज्य स्तरीय आदिवासी मेला भी 20 फरवरी, 2023 से 1 मार्च, 2023 तक लगा है। इस बार इस मेले में टीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी, माइक्रो प्रोजेक्ट्स, मिशन शक्ति, ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसायटी, ट्राइबल डेवलपमेंट को-ऑपरेटिव कॉरपोरेशन शामिल रहे। इस मेले में लगे 100 स्टॉलों में से 80 पर आदिवासी संस्कृति की झलक दिखी।
तरह-तरह की परेशानियों और संघर्षों के बीच सीधी-सादी ज़िन्दगी जी रहे ओडिशा के आदिवासी आज भी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। आज़ादी के 75 वर्षों में न तो उन्हें मुख्यधारा में लाया गया है और न ही उनका अपना अस्तित्व सुरक्षित है। ओडिशा के दक्षिणी पश्चिमी ज़िलों कालाहांडी और रायगढ़ में 250 वर्ग किलोमीटर में फैली नियामगिरी पर्वत शृंखला को बचाने के लिए यहाँ के आदिवासी संघर्षरत हैं। इस पर्वत पर डोंगरिया कोंध नाम के आदिवासी रहते हैं। डोंगरिया नियामगिरी पर्वतों को अपना पूर्वज और सबसे पहला राजा पेनु कहते हैं। प्रकृति प्रेमी आदिवासी इस पर्वत को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाते हैं। स्थानीय प्रशासन और पुलिस की शह पर इन आदिवासियों पर माइनिंग, जंगलों के कटान और भू संसाधनों के दोहन के लिए लगातार अत्याचार होते रहते हैं। इनके संघर्ष में न तो कोई राजनीतिक पार्टी शामिल है और ना ही वे लोग जो अपने को प्रकृति प्रेमी कहते हैं।
हक़ीक़त में कोई सुधार नहीं
मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र के रहने वाले राजेश पाटिल ने आदिवासियों की मूल समस्याओं को रखते हुए कहा कि आदिवासियों की समस्याओं पर ध्यान देने से ज़्यादा उन्हें लूटने की साज़िश की जाती रही है। इसकी वजह यह है कि आदिवासियों की आवाज़ उठाने वाले संगठन और संस्थान कम हैं। जो है, वो बाहरी ज़्यादा है। एनजीओ भी ग़ैर-आदिवासी लोगों के ज़्यादा हैं, जो आदिवासियों के हितों से कोई ख़ास मतलब नहीं रखते।
मध्य प्रदेश सरकार विज्ञापनों के ज़रिये यह प्रचार कर रही है कि उसने पूरे प्रदेश में नल से जल की व्यवस्था कर दी है, पर सच्चाई यह है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में आज भी आदिवासी समाज की महिलाएँ और पुरुष पीने तक का पानी लेने के लिए कई-कई किलोमीटर दूर जाते हैं। उस बुरहानपुर ज़िले में भी, जिसे नल से जल के लिए देश का पहला ज़िला घोषित किया जा चुका है। आदिवासियों को आज भी दिहाड़ी मज़दूर बनाकर उनसे कम मज़दूरी में काम कराया जाता है। इसी को यह कहकर दिखाया जाता है कि आदिवासियों को रोज़गार दिया गया है, उनका विकास किया गया है। आदिवासियों के विकास के सरकारी दावों की सच्चाई अगर जाननी हो, तो वो आदिवासी क्षेत्रों में जाने से पता चलेगी।