पुरुषों के वर्चस्व वाले पेशे पर महिलाओं की बढ़ती धाक से जुड़ी यह सकारात्मक खबर झारखंड के कोल्हान इलाके की है. महिलाएं डॉक्टरी के पेशे में तो शुरू से ही पुरुषों से कदमताल करती रही हैं लेकिन वैद्यराज का पेशा अमूमन पुरुषों के ही हाथ में रहा. पुरूषों का ही आधिपत्य रहा इस पेशे पर. लेकिन पिछले कई सालों की मेहनत के बाद सिंहभूम के नोवामुंडी और जगन्नाथपुर इलाके में महिलाएं वैद्यगिरी कर एक नयी राह दिखा रही हैं.जटिया, जगन्नाथपुर, कोटगा आदि साप्ताहिक हाट से लेकर आसपास के करीब तीन दर्जन सुदूरवर्ती गांवों में ये महिलाएं स्वास्थ्य सलाह और दवाएं दे रही हैं. ये महिला वैद्यराज ‘होड़ोपैथी’ की विशेषज्ञ हैं. होड़ोपैथी यानि देसज और आदिवासी समुदाय की चिकित्सा पद्धति. इसी के जरिये वैद्यराज बनी महिलाएं मलेरिया, ल्यूकोरिया, लकवा, सर्दी-बुखार, चर्मरोग, जोड़ों के दर्द से लेकर दूसरी तमाम बीमारियों का निदान जंगल की जड़ी-बूटियों से तैयार दवाओं से कर रही हैं. सिर्फ इलाज या दवा वितरण ही नहीं, इन महिलाओं द्वारा नोवामुंडी और जगन्नाथपुर इलाके के गांवों में स्वयंसहायता समूह बनाकर गांव की अन्य महिलाओं व लड़कियों को भी होड़ोपैथी पद्धति से अवगत कराया जा रहा है. पिछले 13 सालों के अथक प्रयास के बाद अब करीब 300 महिलाएं पेशेवर तौर पर वैद्य बन गयी हैं और उन्हीं के द्वारा अब दूसरी महिलाओं और लडकियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है.
इस अभियान की सूत्रधार अजीता हैं लेकिन वे खुद पर बात करने को तैयार नहीं होती. सिर्फ यही बताती हैं कि काम महत्वपूर्ण है, नाम नहीं. अजीता मूलतः केरल की रहनेवाली हैं लेकिन अब झारखंड में ही रच-बस गई हैं. वे बताती हैं कि करीब डेढ़ दशक पहले 15 महिलाओं के साथ उन्होंने ओमन नामक एक संगठन बनाकर यह अभियान शुरू किया था. हो भाषा(हो समुदाय की भाषा) में ‘ओमन’ का मतलब अंकुर होता है. शुरुआत में कुछ महिलाएं झारखंड के ही मधुपुर के निकट महेशमुंडा गांव में रहने वाले होड़ोपैथी के प्रसिद्ध विशेषज्ञ डा. पीपी हेम्ब्रम के पास गईं और उन्हीं से यह गुर सीख कर लौटीं. फिर एक-एक कर महिलाओं और लडकियों को जोड़ने का काम शुरू हुआ.
शुरुआत में स्वाभाविक तौर पर बहुत कठिनाइयां आती रहीं क्योंकि इस पेशे में आने से पहले महिलाओं को कई बार सोचना पड़ रहा था और फिर घर-समाज से इजाजत लेने की बात भी थी. लेकिन धीरे-धीरे राह आसान होती गई. फिर नोवामुंडी में होड़ोपैथी दवाओं की दुकान भी खोली गयी.दवाओं का निर्माण महिलाओं द्वारा कुंदरीजूर गांव में होने लगा. दवा निर्माण के लिए जंगल से नीम, अजरुन, हरसिंगार, तुलसी, चिरैता तथा अन्य औषधीय सामग्री व जड़ी-बूटी जुटाने का काम भी ये महिलाएं स्वयं ही करती हैं.
शुरु में जिन गांवों में ये महिलाएं दवा देने जाती थीं, वहां की गंभीर समस्या मलेरिया है. इसे ध्यान में रखते हुए उन गांवों में इन महिलाओं द्वारा मलेरिया के कारण व उससे बचने के उपाय से संबंधित एक घंटे की फिल्म भी स्थानीय हो भाषा में तैयार की गयी. अपनी बोली में तैयार फिल्म को देखने में लोगों की रुचि जगी, फिर महिलाओं पर समाज का भरोसा बढता रहा और अब तो ये महिलाएं ही कई गांवों में पहली और आखिरी उम्मीद की तरह हैं. स्वास्थ्य में जो फायदा हुआ, वह तो हुआ ही, इसका सबसे बडा फायदा अंधविश्वास को दूर करने में हुआ. रश्मि बताती हैं, ‘डायन आदि के नाम पर प्रताड़ित करने का चलन कम हुआ है, क्योंकि डायन आदि बीमारियों से भी जुडा मामला रहा है. गांवों में होड़ोपैथी को बढावा देने, महिलाओं को वैद्यराज बनाने के साथ ही इस पद्धति के दस्तावेजीकरण यानी डॉक्यूमेंटेशन का काम भी इन महिलाओं द्वारा शुरू किया गया है क्योंकि होड़ोपैथी का लिखित डॉक्टयूमेंटेशन नहीं होने के कारण अगली पीढी में इसके खत्म हो जाने का भी डर है.