सुकुमा के सिलगेर में सेना कैम्पों के लगने का शान्ति पूर्वक विरोध कर रहे आदिवासियों पर जवानों ने गोली चला दी, जिसमें 3 आदिवासियों की मौत हो गयी और 18 घायल हो गये
छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले में सिलेगर में सीआरपीएफ कैम्प लगने का तीन दिन से विरोध कर रहे ग्रामीण आदिवासियों पर जवानों ने बीते 17 मई को गोली चला दी। इस विरोध प्रदर्शन में बड़ी संख्या में महिलाएँ और नाबालिग़ भी शामिल थे। इस गोलीकांड में तीन आदिवासियों की मौत हो गयी, जबकि 18 घायल हो गये। स्थानीय लोग घायलों की संख्या दो दर्ज़न से अधिक बता रहे हैं। हद तो इस बात की है कि पहले पुलिस आईजी ने मारे गये आदिवासियों को नक्सली करार दे डाला, तो दूसरी ओर प्रदेश सरकार द्वारा मृतकों के आश्रितों को मुआवज़े की पेशकश भी की गयी। सवाल यह भी उठ रहा है कि 5000 लोगों के बीच में यदि तीन माओवादी भी हों, तो क्या पुलिस उन तीनों को बिना निशाना चूके मार सकती है?
यह सर्वविदित है कि छत्तीसगढ़ में लम्बे समय से आदिवासियों के साथ अत्याचार हो रहा है। इन लोगों की शिकायतें भी थानों में नहीं सुनी जातीं और जब मर्ज़ी इन्हें पुलिस, सीआरपीएफ के जवान और वास्तविक नक्सली रौंदकर चले जाते हैं। सदियों से अत्याचार के शिकार आदिवासियों की ख़ता सि$र्फ इतनी है कि ये लोग सीधे-सादे हैं और जल-जंगल-ज़मीन को बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं। अब तक सैकड़ों आदिवासियों को बिना कारण के मौत के घाट उतारा जा चुका है। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें पुलिस या सीआरपीएफ के जवानों ने आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया। मरने के बाद उन्हें नक्सली करार दे दिया गया और बाद में अदालतों में यह सिद्ध हुआ है कि मार दिये गये लोग नक्सली नहीं, बल्कि आदिवासी थे।
भीड़ पर अन्धाधुन्ध फायरिंग
सिलेगर में आदिवासी तीन दिनों से सीआरपीएफ कैम्प खोले जाने का शान्तिपूर्वक विरोध कर रहे थे। इस विरोध को रोकने के लिए सीआरपीएफ के जवानों ने अचानक से आन्दोलनकारियों पर लाठियाँ बरसायीं और फिर सीधे गोलियाँ दाग़नी शुरू कर दीं। पुलिस ने इस मामले को नक्सली मुठभेड़ से जोडऩे की कोशिश की और कहा कि आदिवासियों में नक्सली मौज़ूद थे और विरोध प्रदर्शन को नक्सल प्रायोजित बता दिया। जबकि यह सच नहीं है। मारे गये तीन लोग और घायल हुए सभी 18 लोग आस-पास के गाँवों के सीधे-सादे आदिवासी थे। इस गोलीकांड के विरोध में सिलेगर समेत लगाभग 50 गाँवों के आदिवासी विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है, जिसके चलते हालात तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए यह सीआरपीएफ कैम्प बनाया जा रहा है, ताकि आदिवासियों की ज़मीन आसानी से छीनी जा सके। सीआरपीएफ कैप का विरोध रोकने के लिए ही आदिवासियों की हत्याएँ की गयी हैं।
लोगों का विरोध देखकर पुलिस और प्रशासन को आदिवासी प्रतिनिधियों से 23 मई को बातचीत भी करनी पड़ी, लेकिन न तो मृतकों के परिजनों को कोई बड़ा राहत पैकेज देने की घोषणा की गयी और न ही सीआरपीएफ कैम्पों को हटाने को लेकर कोई आश्वासन दिया गया। जब आदिवासियों पर जवानों द्वारा गोलियाँ दाग़ने का मामला काफ़ी तूल पकड़ा, तब मरने वालों को 10-10 हज़ार रुपये राहत के तौर पर देने की घोषणा की गयी। आदिवासियों ने रुपये लेने से साफ इनकार कर दिया। अब सवाल यह उठता है कि जब मारे गये लोग नक्सली थे, तो उन्हें राहत पैकेज क्यों दिया गया, जबकि दूसरा सवाल यह है कि क्या आदिवासियों के जान की क़ीमत सि$र्फ 10 हज़ार रुपये है?
रमन सिंह की राह पर भूपेश बघेल
छत्तीसगढ़ की पूर्व की भाजपा सरकार में आदिवासियों के फ़र्ज़ीमुठभेड़ और हत्या के कारण ही सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में बस्तर समेत छत्तीसगढ़ के समस्त आदिवासियों ने भाजपा के रमन सिंह के बजाय भूपेश बघेल के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन करते हुए कांग्रेस पार्टी को जनादेश दिया। लेकिन भूपेश बघेल भी पूर्व की भाजपा सरकार की ही राह पर चल रहे हैं। 13 सितंबर, 2016 में जब भाजपा नेता डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे, तब भूपेश बघेल ने ट्वीटर पर लिखा था- @drramansingh #bastar से आदिवासियों का सफ़ाया चाहते हैं, ताकि अडानी, अंबानी और संचेती वहाँ पहुँच सकें। इसलिए आदिवासी प्रताडि़त हो रहे हैं।’ आज छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं और आदिवासियों के साथ वही अन्याय, वही प्रताडऩा, वही उनके जल-जंगल-ज़मीन छीनने का सिलसिला जारी है। अब भूपेश बघेल आदिवासियों पर हुए इस गोलीकांड पर भी चुप्पी साधे हुए हैं। ग्रामीणों का कहना है कि सीआरपीएफ के कैम्प नक्सलियों से निपटने के लिए नहीं, बल्कि आदिवासियों की ज़मीने छीनकर उद्योगपतियों को देने के लिए लगाये जा रहे हैं।
आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन
एक साल के अन्दर बस्तर सम्भाग में सीआरपीएफ के 30 से अधिक कैम्प लग चुके हैं, जबकि यह सम्भाग पाँचवीं अनुसूची में आता है और यहाँ कैम्प लगाने का कोई औचित्य नहीं बनता। पेसा एक्ट के अनुसार, बस्तर सम्भाग में ग्रामसभा की अनुमति लिए बग़ैर कोई निर्माण नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके यहाँ पिछले एक साल से सीआरपीएफ के कैम्प बनाये जा रहे हैं। जब आदिवासी सुरक्षा बलों के कैम्पों का विरोध कर रहे हैं, तो उन पर सीधे लाठियाँ और गोलियाँ बरसायी जा रही हैं और उनकी हत्या की जा रही है। छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा इस तरह की बहुत सारी घटनाएँ पहले भी की जा चुकी हैं। सन् 2012 में सीआरपीएफ ने बस्तर सम्भाग के ही सारकेगुड़ा में 17 निर्दोष आदिवासियों को गोलियों से भून दिया था, जिसमें नौ छोटे बच्चे थे। ये सभी मृतक बीज पंडूम त्यौहार मना रहे थे। इस मामले में भी मारे गये लोगों को पुलिस ने माओवादी कहा था। लेकिन जब जाँच आयोग की रिपोर्ट आयी, तो उसने घोषित किया कि मारे गये लोग निर्दोष आदिवासी थे। जाँच आयोग की रिपोर्ट आने के बाद से आज तक किसी के ख़िलाफ़ कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई है।
संविधान के अनुच्छेद-244(1) पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं की भूमिका को अनदेखा कर छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर शोषण, अत्याचार किया जा रहा है। पाँचवीं अनुसूची के धारा-4(3)(क, ख, ग) अधिसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की भूमिका को नज़रअंदाज़कर, ग्रामसभाओं की भूमिकाओं को बाईपास कर राज्य सरकारें मनमाने फ़ैसले ले रही हैं, जिसके कारण अनुसूचित क्षेत्रों में प्रशासनिक और कारपोरेट की दख़लअंदाज़ी बढऩे से आदिवासियों के अस्तित्व, अस्मिता, पहचान और उनकी सांस्कृतिक विरासत के ख़त्म होने का ख़तरा उत्पन्न हो गया है। बड़े पैमाने पर अनुसूचित क्षेत्रों में खनन, कारपोरेट, वन अभ्यारण्य इत्यादि के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं।
समाजसेवियों को पीडि़तों से मिलने से रोका जा रहा
बड़ी बात यह है कि इतनी बड़ी घटना, जिसे सीधे तौर पर हत्या कहना गलत नहीं होगा को लेकर राज्य की बघेल सरकार का रवैया बेरुख़ी वाला और मानवाधिकारों को हनन करने वाला है। सामाजिक कार्यकर्ता ने इस गोलीकांड के ख़िलाफ़ आवाज़उठा रहे हैं, तो उन्हें रोकने के लिए सरकार हर हथकंडे अपना रही है। इस हत्याकांड को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। आदिवासियों का कहना है कि अगर इस तरह उन्हें नक्सली कहकर बिना कारण मारा जाएगा, तो उन्हें इसका प्रतिकार करने का हक़ क्यों नहीं है? जबकि संविधान में सभी को अपने अधिकारों की लड़ाई लडऩे का हक़ दिया गया है। समाजसेवियों ने पूछा है कि अगर मारे गये लोग नक्सली थे, तो सरकार ने उनके परिजनों को मुआवज़ा देने की घोषणा क्यों की? अगर यहाँ जवानों की ग़लती नहीं है, तो फिर आदिवासी समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों को मृतकों के परिजनों, पीडि़तों और आन्दोलनकारियों से क्यों नहीं मिलने दिया जा है? छत्तीसगढ़ की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी को भी आन्दोलनकारियों के बीच जाने से रोका गया, उनका रास्ता बन्द कर दिया गया। इसी तरह दूसरे समाजसेवियों को भी तरह-तरह से प्रतिबन्धित करने की कोशिश पुलिस प्रशासन द्वारा की गयी। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और बेला भाटिया जैसे प्रतिष्ठित लोगों को पुलिस ने सिलेगर जाने की अनुमति नहीं दी। समाजसेवी मनीष कुंजाम को भी सुरक्षाबलों ने घटना स्थल तक नहीं जाने दिया। कुंजाम कहते हैं कि जब वह घटनास्थल की ओर जा रहे थे, तो सुरक्षाबलों के जवानों ने उन्हें धरमपुर के पास रोक लिया और क़रीब दो घंटे तक उन्हें परेशान किया। समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों को रोके जाने को लेकर उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की भूमिका और चुप्पी को लेकर सवाल उठाये हैं।
पुलिस कह रही है कि आदिवासियों की आड़ में नक्सली विरोध-प्रदर्शन में शामिल थे। आदिवासी समाजसेवियों का कहना है कि अगर आदिवासियों के बीच में नक्सली थे, तो पुलिस अब तक उनके ख़िलाफ़ नक्सली होने के सुबूत पेश क्यों नहीं कर सकी है? इसके अलावा अगर आदिवासियों में नक्सली थे, तो जवान भीड़ में गोली कैसे चला सकते हैं? उन्हें पुलिस ने गिरफ़्तार क्यों नहीं किया?
वहीं आदिवासियों पर गोलीबारी मामले में आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जब घटनास्थल पर जाकर मामले की पड़ताल करने चाही, तो उन्हें थाने में ही रोक लिया गया। इस मामले में आम आदमी पार्टी के प्रदेश सह संयोजक सूरज उपाध्याय ने बयान जारी करते हुए कहा कि 17 मई आदिवासियों पर जवानों द्वारा की गयी गोलीबारी की पड़ताल करने जब आम आदमी पार्टी जाँच दल सुबह सिलेगर गाँव के लिए रवाना हुआ, तो पुलिस ने उन्हें कोडनार थाने में बिठा लिया। पुलिस ने कोरोना का बहाना बनाकर उन्हें काफ़ी समय तक रोके रखा और सभी की कोरोना जाँच करवायी, जो कि निगेटिव आयी। लेकिन जाँच के बाद भी पुलिसकर्मियों ने आम आदमी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं की गाड़ी की चाबी छीन ली और जाँच दल को घटना स्थल पर जाने नहीं दिया। लेकिन पार्टी के नेता और कार्यकर्ता पुलिस के इस व्यवहार से शान्त नहीं बैठे और उन्होंने सरकार पर मामले की जाँच कर पीडि़तों को मुआवज़ा देने की माँग की। इस मामले में आम आदमी पार्टी के प्रदेश सह संयोजक सूरज उपाध्याय और दुर्गा झा ने बीजापुर ज़िले के सिलगेर में ग्रामीणों पर गोलीबारी की कड़ी निंदा करते हुए माँग की है कि निर्दोष ग्रामीणों पर जवानों द्वारा की गयी इस गोलीबारी की उच्च स्तरीय जाँच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्तर क्षेत्र में पुलिस या सैन्य बल का कैम्प बनाये जाते हैं और अगर वहाँ स्थानीय निवासी विरोध करते हैं, तो उन पर पुलिस और सैन्य बलों के जवान अत्याचार करते हैं। क्रूरतम व्यवहार करते हैं। कई बार उन्हें मार देते हैं। बाद में शासन-प्रशासन इन ग़रीब, सीधे-सादे ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली या नक्सली समर्थक क़रार दे देता है।
मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की माँग
इस मामले में एम्स के पूर्व चिकित्सक एवं मध्य प्रदेश के मनावर क्षेत्र से विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनसुईया उईके को पत्र लिखकर पीडि़तों को न्याय दिलाने की माँग की है। डॉ. हिरालाल अलावा ने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में कहा है कि दक्षिण बस्तर के सुकमा और बीजापुर ज़िले की सरहद सिलेगर में सीआरपीएफ कैम्प खोले जाने का तीन दिन से विरोध कर रहे हज़ारों ग्रामीणों की भीड़ पर अचानक गोली चलायी गयी। आँसू गैस के गोले छोड़े गये एवं मारपीट की गयी, जिसमें तीन स्थानीय ग्रामीण आदिवासियों की मौत हो गयी, जबकि दो दर्ज़न से अधिक ग्रामीण घायल हो गये हैं। मारे गये तथा घायल ग्रामीणों को पुलिस द्वारा माओवादी बताया जा रहा है और ग्रामीणों के विरोध को माओवादी प्रायोजित बताकर सच को छुपाया जा रहा है। बस्तर सम्भाग में नक्सल उन्मूलन के नाम पर कई बेक़सूर आदिवासियों को मारा जा रहा है। पिछले कई वर्षों से भोले-भाले आदिवासियों की फ़र्ज़ीमुठभेड़, फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण, नक्सलवाद के नाम पर हत्या के अनेक मामले सामने आये हैं।
डॉ. हिरालाल अलावा ने आगे लिखा है कि महोदय, जैसा कि आप अवगत हैं कि पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में समस्त विधायिका शक्ति आपमें एवं राज्यपाल में निहित है और आप संवैधानिक प्रावधानों के तहत देश के लगभग 15 करोड़ आदिवासियों के संरक्षक हैं। देश के 15 करोड़ आदिवासी अपने मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए आपसे आग्रह कर रहे हैं। डॉ. हिरालाल ने राष्ट्रपति से निवेदन किया है कि वह इस मामले की उच्चस्तरीय जाँच कराने के आदेश दें और दोषियों पर कार्रवाई करने के अलावा मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये और घायलों को 50-50 हज़ार रुपये का मुआवज़ा देने की कार्यवाही करें। साथ ही आदिवासियों के अस्तित्व, संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए बस्तर जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को मज़बूत करते हुए अनुच्छेद-244(2) की छठवीं सूची के अनुसार आदिवासियों को स्वायत्तता दी जाए, जिससे बस्तर में आदिवासियों का शोषण, पलायन रुके और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। इसी तरह डॉ. हिरालाल अलावा ने प्रदेश की राज्यपाल से आदिवासियों पर हुए अत्याचार को लेकर न्याय की माँग की है और राज्य स्तर पर मृतकों के परिजनों को 50-50 लाख रुपये एवं घायलों को 20-20 लाख रुपये देने की माँग की है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी विधायकों-मंत्रियों से की इस्तीफ़े की माँग
वहीं सर्व आदिवासी समाज के युवा प्रकोष्ठ के ज़िला अध्यक्ष सन्तु मौर्य ने इस मामले में प्रेस विज्ञप्ति जारी की है। इस प्रेस विज्ञप्ति में उन्होंने कहा है कि आदिवासियों पर हमले के विरोध में छत्तीसगढ़ के सभी आदिवासी विधायकों और मंत्रियों को सामूहिक रूप से इस्तीफ़ा देना चाहिए। उन्होंने कहा है कि आदिवासी विधायकों और मंत्रियों को मध्य प्रदेश के विधायक हिरालाल अलावा से सीख लेनी चाहिए। सन्तु मौर्य ने आगे लिखा है कि आज हक़ीक़त में कहा जाए, तो आदिवासियों के वर्तमान नेता, मंत्री और विधायक यह भी नहीं देख पा रहे कि हमारे समाज के लोगों के साथ इतना बड़ा धोखा हो रहा है और हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग आदिवासी परिवारों में जन्म लेकर भी आदिवासियों के साथ नहीं खड़े हैं, ऐसे लोगों पर धिक्कार है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों पर अत्याचार की ये बातें विदेशों तक जानी चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि चुपचाप सैन्य कैम्पों के विरोध में बैठे आदिवासियों पर गोली चलाना कैसे सही हो सकता है?
घटना के बाद आदिवासी क्षेत्र के एक पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने भी अपने समर्थकों के साथ घटनास्थल का दौरा किया। उन्होंने इस मामले में कहा कि निहत्थे और सीधे-सादे आदिवासियों पर जवानों ने बिना किसी कारण के गोली चलायी। वहीं मनीष कुंजाम ने कहा कि राज्य पुलिस जिन मृतकों को नक्सली बता रही है, सरकार उनके परिजनों को मुआवज़ा दे रही है। इससे पता चलता है कि मारे गये लोग नक्सली नहीं, बल्कि ग्रामीण आदिवासी थे। उन्होंने कहा कि इस मामले की बिना पक्षपात के न्यायिक जाँच होनी चाहिए, जिसमें हाईकोर्ट का कोई पूर्व न्यायाधीश शामिल हो।