एक बार एक जंगल में आग लग जाती है। जंगल के सभी पशु-पक्षी व्याकुल होकर भागने-उडने लगे। लेकिन एक चिडिया पास के तालाब से अपनी चोंच में पानी भरकर लाती और ऊपर से आग पर छोड़ देती। चिडिय़ा की यह कोशिश देखकर कौवा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। कौवा चिडिय़ा का मखौल उड़ाते हुए बोला- ‘अरी पागल! जंगल में इतनी भीषण आग लगी है। पास के गाँवों के सैकड़ों लोग उसे बुझाने में लगे हैं, तब भी वह नहीं बुझ रही है। तेरे एक-एक बूँद पानी से यह आग कैसे बुझेगी? नादानी छोड़ और दूसरे जंगल में उड़ चल।’ चिडिय़ा कौवे की बात पर मुस्कुराते हुए बोली- ‘मैं जानती हूँ कि मेरे इस प्रयास से जंगल की आग कभी नहीं बुझेगी। लेकिन जब इस आग लगने और इसके बुझने का इतिहास लिखा जाएगा, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, बुझाने वालों में लिखा जाएगा।’
आज हमारे देश में भी कोरोना वायरस जैसी महामारी की आग लगी हुई है। लेकिन कुछ लोग तमाशाई बने हुए हैं। कुछ लोग इस आग में अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं और कुछ लोग अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से इसे बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। जो लोग पीडि़तों की मदद करके इस आग को बुझाने की कोशिश कर रहे हैं, वे वास्तव में इंसान हैं। उन्होंने बता दिया है कि इंसान का पहला धर्म क्या है? उन्होंने बता दिया है कि जिस तरह दूसरे लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं, अगर हमने आज उनकी मदद नहीं की, तो अगली बारी किसी और की या ख़ुद हमारी भी हो सकती है। मज़हबी दीवारों को तोडक़र इस समय बहुत-से लोग बिना किसी भेदभाव के ऐसे-ऐसे महान् कार्य कर रहे हैं, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है।
इससे बड़ा दुनिया का कोई धर्म नहीं हो सकता, जब मज़हब-ए-इस्लाम को मानने वाले लोग सनातन रीति से, पूरे मान-सम्मान के साथ किसी सनातनी के शव का अन्तिम संस्कार करें। जब कोई सनातन या दूसरे धर्म का व्यक्ति किसी मुस्लिम के मुर्दे को उसके मज़हब के रिवाज़ के हिसाब से उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करे। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता, जब कोई इंसान बिना किसी कोरोना मरीज़ की ज़ात और उसका मज़हब पूछे उसकी तीमारदारी करे। उसे खाना खिलाये। उसके लिए ऑक्सीजन की व्यवस्था करे। आज महामारी के बुरे वक़्त में स्पष्ट हो गया है कि अगर हमारे बीच बुरे और शैतान लोगों की कमी नहीं है, तो ऐसे बहुत इंसान हैं, जो भगवान तो नहीं, लेकिन भगवान से कम भी नहीं है; कम-से-कम उन लोगों के लिए तो ज़रूर, जिनकी ज़िन्दगी बचाने की वे कोशिशें कर रहे हैं।
लेकिन कितने ही लोग अभी भी नफ़रतें बो रहे हैं। घृणा कर रहे हैं। कोई भी बच्चा जब पैदा होता है, तो न तो उसे किसी से नफ़रत होती है। न ही वह किसी से भेदभाव करता है। न उसे किसी की ज़ात या मज़हब से कोई लेना-देना होता है। न ही उसे अपने-पराये का भान होता है। इसीलिए तो उसे परमहंस कहा जाता है। ईश्वर का रूप कहा जाता है। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, हम स्वार्थवश उसे अपने-पराये का भेदभाव सिखा देते हैं। नफ़रत और क्रोध की घुट्टी पिला देते हैं। मज़हबी चोला पहना देते हैं। दूसरे धर्म के लोगों से दूर रहने का सबक़ देने लगते हैं। दूसरे धर्म के रीति-रिवाज़ों से दूर रहने की तालीम देते हैं। छुआछूत का ज़हर उसकी नसों में घोल देते हैं। दूसरे धर्म में एक ही ईश्वर, सही मायने में अपने ही ईश्वर का अलग नाम होने के चलते उसे ही गालियाँ देना और भला-बुरा कहना सिखा देते हैं। इसी के चलते वही बच्चे आगे चलकर ख़ून-ख़राबा करते हैं। नफ़रतें बोते हैं। और आगे चलकर अपने बच्चों की नसों में अपने माँ-बाप से भी ज़्यादा ज़हर घोलते हैं।
लेकिन जो लोग अपने बच्चों को मज़हबी बनने से पहले इंसान बनने की सीख देते हैं। या उनके मज़हब में दी गयी शिक्षाओं पर सही से अमल करते हैं, वे कभी ऐसा नहीं करते, बल्कि मुसीबत के समय बिना किसी की ज़ात पूछे, बिना उसका मज़हब जाने उसी मदद करते हैं। आज ऐसे ही लोग हमारे सामने हैं और महामारी में फ़रिश्ते बनकर पीडि़तों की सेवा कर रहे हैं। ख़ून और प्लाज्मा दे रहे हैं। रोज़ा तोडक़र ख़ून और प्लाज्मा देना अपना पहला धर्म समझ रहे हैं। यही तो असली धर्म है। ख़ून का कोई मज़हब नहीं होता। चाहे वह किसी भी इंसान का हो। इंसान भी अगर मज़हबी चोले में न रहे, तो केवल चेहरा देखने भर से कोई नहीं पहचान सकता कि वह किस धर्म को मानता है। वास्तव में मज़हब है ही मानने की चीज़। उसे किसी पर भी जबरन थोपा नहीं जा सकता। आत्मा का भी धर्म नहीं होता, कोई जाति नहीं होती। आत्मा को तो कोई जानता भी नहीं है। सब शरीर को जानते हैं। और शरीर के लिए ही सब कुछ करते हैं।
अगर कोई आत्मा को पहचानता है, तो वह परमहंस हो जाता है, उसे तेरे-मरे से, भेदभाव से, घृणा से, ईष्या से, मोह से कोई काम नहीं। उसके लिए सारा संसार एक जैसा है। उसे क्रोध भी नहीं आता। वह दयालु और मददगार प्रवृत्ति को अपना लेता है। उसे दुनियावी मज़हबों से कोई लेना-देना नहीं। उसे मनुष्य में सिर्फ़ एक ही जाति दिखती है- मनुष्य जाति। उसका एक ही धर्म होता है- इंसानियत। उसका एक ही कर्म होता है- सभी की भलाई। और उसका एक ही उद्देश्य होता है- ईश्वर की प्राप्ति। मुझे आज के तथाकथित उन साधु-सन्तों, मुल्ला-पादरियों पर हैरानी होती है, जो इस संकट की घड़ी में भी मानव सेवा के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। उनसे से अच्छे वे लोग हैं, जो भले ही क्रूर और क्रोधी स्वभाव के हैं, लेकिन कम-से-कम अव्यवस्था पर सवाल तो उठा रहे हैं। और सबसे भले वे हैं, जो मानव-सेवा में दिन-रात लगे हैं। हमें कम-से-कम ऐसा संसारी बनकर रहना चाहिए, तभी हमारी आने वाली पीढिय़ाँ सुरक्षित रह सकेंगी। सुखी रह सकेंगी।