7 दिसंबर, 2019 की सुबह सूरज ने अभी पूरी तरह आँखें खोलीं भी नहीं थीं कि सहसा एक दु:खद सूचना मिली कि हिन्दी के अनूठे, महबूब और मकबूल कथाकार स्वयं प्रकाश नहीं रहे। अभी दो दिन पहले लेखक व एक्टविसस्ट राम प्रकाश ने मुम्बई में उनके गम्भीर रूप से बीमार होने की सूचना दी थी। राम प्रकाश त्रिपाठी ने सरकार से उनकी चिकित्सा के लिए धन मुहैया करवाने की अपील भी की थी।
जिस दिन स्वयं प्रकाश ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, उससे तीन दिन पहले मुम्बई के एक प्रतिष्ठित अखबार के साहित्यिक सम्पादक हरि मृदुल ने उन्हें देखने के लिए लीलावती अस्पताल चलने की बात की। दुर्भाग्य से उस दिन मैं शहर की दूसरी दिशा में था और मैंने उनसे अगले दिन अस्पताल चलने को कहा। अगले दिन भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस था, ट्रेनों में भयानक भीड़ थी, अस्तु उस दिन जाना नहीं हो सका। उसके अगले दिन उनके निधन की सूचना मिली! मन पश्चाताप और विषाद से भर उठा।
उफ! कभी-कभी वक्त इंसान को एक मौका भी नहीं देता है। चूँकि उनकी अंत्येष्टि मुम्बई में ही हो रही थी, इसलिए हम सात-आठ मित्र सांताक्रुज के विद्युत शवदाह गृह पहुँचे। विद्युत चैम्बर में डालने के पहले उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ रखा गया। पहली बार उस मृत काया को देखकर यह विश्वास ही नहीं हुआ कि यह शरीर मृत है। शरीर पर इंजेक्शन व ग्लूकोज के नीडल के निशान, सफेद टेप के साथ उभरे थे। हाथ की लालिमा अभी भी बनी हुई थी; लेकिन जब चेहरा देखा तो मन में रुलाई का ज्वार-सा उठा। उनके छोटे भाई, उनकी बहनें और बेटियाँ विलाप कर रहे थे। उस करुण वातावरण में हम सबकी आँँखें आर्द्र हो उठीं। सहसा यह यकीन हो गया कि हम सबके चहेते कथाकार ने इस संसार से सदा-सदा के लिए अपना नाता तोड़ लिया है। अब हमारे पास उनसे बात करने का एक ही ज़रिया रह गया है और वह है- उनका शब्द-संसार, उनके पात्र और पात्रों का दु:ख-दर्द।
स्वयं प्रकाश से वैसे तो कभी मिलना नहीं हुआ, पर उनके पत्र और उनकी भेजी कहानी अभी भी ज्यों-की-त्यों अपनी भौतिक उपस्थिति से हमें चौंकाती और आश्वस्त करती है कि रचनाकार कभी मरता नहीं है। वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, कबीर, रैदास, सूरदास, मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास, मीराबाई, गालिब, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सबके सब एक साथ हमारे अंतस में बसे हैं। हम सबसे जब-तब संवाद करते हैं। हम उनसे जीवन की ज्योति और जीवन रस पाते रहते हैं।
बात नब्बे के दशक की हैं। मुम्बई के हम कुछ मित्रों ने ‘चिंतन दिशा’ नामक त्रैमासिक पत्रिका शुरू की। वैसे इस शीर्षक से साथी हृदयेश मयंक पाक्षिक पत्रिका की वर्षों से निकाल रहे थे। बाद में उसी पाक्षिक को हम कुछ मित्रों ने एक त्रैमासिक पत्रिका के रूप में निकालने की योजना बनायी। देखते-देखते पहला अंक प्रकाशित हुआ और उसे हम लोगों ने देश के सभी प्रमुख रचनाकारों के पास न केवल भेजा, बल्कि रचनाएँ भेजने की अपील भी की। चिन्तन दिशा के दूसरे अंक के लिए स्वयं प्रकाश ने एक कहानी- ‘उनकी अगली शुरुआत’ भेजी। साथ ही पहले अंक पर उनकी महत्त्वपूर्ण राय भी मिली। प्रशंसा के अलावा कुछ सुझाव भी थे। इस तरह से उनके साथ सन् 1988 से एक आत्मीय व लेखकीय सांस्कृतिक सम्बन्ध जुड़ गया, जो उनके जीवन के अंत तक बना रहा।
स्वयं प्रकाश आठवें दशक के अनूठे कथाकार थे। एक साथ स्वयं प्रकाश, उदय प्रकाश, संजीव, प्रियंवद, शिवमूर्ति और सृंजय आदि रचनाकार साहित्याकाश पर अपनी आभा बिखेरने लगे थे। यह पीढ़ी, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, काशीनाथ और रवींद्र कालिया के बाद की पीढ़ी थी। स्वयं प्रकाश ने बिना किसी दबाव के अपनी कथा शैली विकसित की। उन्होंने समाज के बदलते रिश्तों की न केवल पहचान की, अपितु उसे अपनी गहरी कलात्मक सृजनशीलता से अभिव्यक्त भी किया। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ भारत के निम्न वर्ग का दु:खांत हैं। औद्योगिकीकरण के बाद भारतीय समाज में तेज़ी से विभाजन और पलायन हुआ। देश की एक बड़ी आबादी, जिसमें निम्न और निम्न मध्य वर्ग के ज़्यादातर लोग थे कस्बों, शहरों और महानगरों में जीवन संघर्ष करने लगे।
स्वयं प्रकाश ने इस बदलते और नये श्रम सम्बन्धों को बारीकी से न केवल देखा, बल्कि उसके परिणामों व दुष्परिणामों की द्वंद्वात्मकता को कहानी कला के उत्कृष्ट फॉर्म में रचा भी। उनकी कहानियों के पात्र हमारे आस-पास के ही होते हैं, जिन्हें हम रोज़ देखते हैं और देखकर रह जाते हैं, पर उसे वे अपनी विशिष्ट वर्गीय दृष्टि से एक अनूठा आख्यान बना देते हैं। उनकी कहानियों में व्यक्त गहरी संवेदना न केवल पाठक से तत्काल रिश्ता बना लेती है, अपितु उसे बेहतर मनुष्य होने की माँग भी करती है।
उनकी कहानियों में समाज की विडम्बना इकहरी नहीं है, उसके कई स्तर हैं। वे जहाँ एक तरफ अपनी यथार्थवादी दृष्टि व अभिव्यक्ति से पाठकों को झकझोरते हैं, वहीं दूसरी अपनी संवेदना की चादर से उसके अंत: जगत को अपने घेरे में ले लेते हैं। वे पाठक से आत्मीय रिश्ता बना लेते हैं। उसकी कैिफयत की तासीर मन में अपराध-बोध पैदा करने लगती है। सहसा हमें लगने लगता है कि कहीं हमारा अपरोक्ष सहयोग तो नहीं, इस क्रूरता को बनाये रखने में! यह स्वीकारोक्ति पाठक को अपनी स्थिति तथा समाज की स्थिति के प्रति गहरा असंतोष पैदा कराता है। उसे आत्मालोचना करने को विवश करता है। उसकी इंद्रियों को अधिक विस्तृत और समाजोन्मुख बनाता है। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ इस दृष्टि से बड़े सरोकार को हमारे समाने रखतीं हैं। हमारी निष्क्रिय संवेदना को सक्रिय करतीं हैं, उसे मानवीय बनातीं हैं।
स्वयं प्रकाश की कहानियों में बहुत से अन्य कथाकारों की तरह भाषा का खेल नहीं दिखायी देगा। उनकी कहानियों की भाषा सहज होते हुए भी असाधारण बनती चली जाती है। उनका आलोचनात्मक नज़रिया और उसका विट उसे रेटॉरिक होने से बचाता है। यहीं कारण है कि उनकी हर कहानी की भाषा विशिष्ट और अलग होती है। उनकी कहानियों में ज़बरदस्त ह्यूमर ( हास्य) है और यह प्रयोगात्मक नहीं, बल्कि कथा, देश-काल व पात्र से धीरे-धीरे होता है।
स्वयं प्रकाश का लेखक एक खास मोटिव लिए हुए है और वह मोटिव है समाज को प्रगतिशील मूल्यों की तरफ चलने को प्रेरित करना। उसे जड़ता से बाहर निकालना। उसके भीतर छिपे हुई शुभंकर शक्तियों को जागृत करना। वे लगातार हमारे भीतर छिपी आंतरिक क्रूरता से हमें आगाह भी करते हैं और उससे मुक्त होने का संवेदनात्मक विवेक व उद्वेग पैदा करते हैं। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ स्वतंत्र भारत के तथाकथित विकास के एक्स-रे हैं। उन्होंने बदले भारत की आर्थिक व सामाजिक ढाँचे से उत्पन्न हुई विसंगतियों की न केवल पहचान की, अपितु शोषित व उत्पीडि़त का मार्मिक वृत्तांत रचकर अपने लेखकीय व सामाजिक कर्म को असर्ट किया।
स्वयं प्रकाश की कहानियाँ साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा (व्यक्त और अव्यक्त) की बड़ी जगह घेरतीं हैं। पार्टिशन, रफीक का पाजामा, क्या कभी किसी सरदार को भीख माँगते देखा है! चौथा हादसा आदि। पार्टिशन या रफीक का पाजामा में एक घृणा और हिंसा तो व्यक्त होती है, पर उससे बड़ी घृणा और हिंसा हमारे भीतर छिपी रह जाती है और हमें अपने मानवीय दायित्व से विमुख करती है। हम अपने-अपने दिलों में एक न दिखाई देने वाला बँटवारा लिये हुए हैं, जो दिखाई देने वाले बँटवारे से ज़्यादा खतरनाक है। साम्प्रदायिक दुर्भावना सदियों पुरानी सामूहिकता को उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियों को न केवल नष्ट करती है, बल्कि उसे संदेह के घेरे में ला खड़ा छोड़ती है। हमारी विविधता में एकता के घोष वाक्य को प्रश्नांकित करती है। स्वयं प्रकाश की कहानियों में जातिवाद, बाज़ारवाद, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की जहाँ एक तरफ त्रासदियाँ हैं, वहीं दूसरी तरफ अलक्षित होते समाजवादी सपनों का मार्मिक स्मरण भी है। भूमंडलीकरण का सबसे अधिक घातक प्रभाव हमारे पर्यावरण और आदिवासी समाज पर पड़ा है। ‘बलि’ कहानी इस जटिलता को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त करती है।
‘उनकी अगली शुरुआत’ में वे पति-पत्नी की एकरसता को भंग करते हैं और स्त्री के सौन्दर्य को नये दृष्टिकोण से रखते हैं। ‘बदबू’ कहानी में एक भ्रष्ट नेता के बहाने वे समूचे सत्ता तंत्र के चरित्र को उजागर करते हैं।
स्वयं प्रकाश का लेखन बहुआयामी है। उन्होंने प्राय: सभी विधाओं में लिखा है। उनके दर्जन भर कहानी संग्रह हैं उनमें प्रमुख हैं- ‘मात्रा और भार’, ‘सूरज कब निकलेगा’, ‘आसमाँ कैसे-कैसे’, ‘अगली किताब’, ‘आएँगे’ ‘अच्छे दिन भी’, ‘आदमी जात का आदमी’ आदि । इसके साथ-साथ कई उनके कई उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं। उनमें प्रमुख हैं- ‘चलते जहाज़ पर बीच में विनय’, ‘ईंधन’, ‘ज्योति रथ के सारथी’ आदि। निबंध संग्रह – ‘स्वांत: सुखाय’, ‘दूसरा पहलू’, ‘रंगशाला में दोपहर’, ‘एक कहानीकार की नोटबुक’।
रचनाएँ, सेवाएँ एवं सम्मान
रेखाचित्र : हम सफरनामा।
नाटक : फीनिक्स।
स्वयं प्रकाश ने बच्चों के लिए भी विपुल साहित्य रचा। उन्होंने बच्चों की पत्रिका चकमक दुनिया का कई साल तक सम्पादन भी किया।
स्वयं प्रकाश जी को कई सम्मान व पुरस्कार भी मिले, जिनमें प्रमुख सम्मान है- भवभूति सम्मान; प्रमुख पुरस्कार- साहित्य अकादमी पुरस्कार (बाल साहित्य) राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, वनमाली स्मृति पुरस्कार, सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार आदि।
स्वयं प्रकाश का जन्म 20/01/1947 इंदौर मध्यप्रदेश, शिक्षा- इंदौर और अजमेर राजस्थान,
सेवा – भारतीय नौसेना, भारतीय डाक व तार विभाग, भारतीय जिंक अथारिटी आदि।