आईएसआई पंजाब में हमेशा से ही सक्रिय रही है. वे यहां आतंकवाद को दोबारा सक्रिय करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. – केपीएस गिल, पंजाब के पूर्व डीजीपी
कुछ आतंकवादी संगठन पंजाब और उससे सटे राज्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इन संगठनों को बाहर से जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि ये बड़ा खतरा साबित होने जा रहे हैं. – नेहचल संधू, आईबी प्रमुख
केंद्र सरकार पंजाब की कानून व्यवस्था पर खास नजर रखे हुए है क्योंकि उग्रवादी समूह अब-भी राज्य में आतंकवाद फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. हमारी खुफिया एजेंसियां भी इस संबंध में जागरूक हैं. – पी चिदंबरम, पूर्व गृहमंत्री
पिछले दिनों भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार और जानकार लोगों के पंजाब के बारे में ऐसे कई बयान आए हैं. और इन सब में कमोबेश यही संकेत है कि विदेशों में बैठे कट्टर सिख संगठनों की पूरी कोशिश पंजाब में फिर से आतंकवाद फैलाने और खालिस्तानी आंदोलन पुनर्जीवित करने की है. लेकिन इस चर्चा और चिंता में सबसे निर्णायक मोड़ लंदन में ऑपरेशन ब्लू स्टार के अगुवा रहे रिटायर्ड ले. जनरल केएस बरार पर हुए हमले के बाद आया. हालांकि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि जनरल बरार पर हमला करने वाले लोग कौन थे और हमले का उद्देश्य क्या था. लेकिन 78 वर्षीय जनरल बरार ने अपने ऊपर हुए हमले को खालिस्तानी आतंकी संगठनों की करतूत बताया है.
बरार पर हुए हमले ने जहां एक तरफ पंजाब में आतंक के दौर के उन पुराने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया है. वहीं उसने खालिस्तानी आंदोलन या सिख आतंकवाद को लेकर फिर से एक नई चिंता को जन्म दिया है. यदि कुछ तथ्यों पर नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि राज्य में फिर से आतंकवाद के उभार की संभावना को सीधे-सीधे नकारा नहीं जा सकता. आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच साल में राज्य में 184 खालिस्तानी आतंकवादियों को गिरफ्तार किया गया है. पिछले दिनों ही पाकिस्तान स्थित बब्बर खालसा इंटरनेशनल के दो आतंकी दलजीत सिंह बिट्टू और कुलबीर सिंह बारापिंड को पुलिस ने गिरफ्तार किया है. इनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने हवाला के द्वारा प्राप्त लगभग एक करोड़ रुपए राज्य में पूर्व आतंकवादियों के परिवारों के बीच वितरित किए हैं.
एक अन्य ब्रिटिश नागरिक जसवंत सिंह आजाद को भी हाल ही में पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार किया है जिसके बारे में पुलिस का कहना है कि उसने भी लगभग एक करोड़ रुपए पूर्व आतंकवादियों के परिवारों के साथ ही बब्बर खालसा इंटरनेशनल के पंजाब में मौजूद स्लीपर सेलों (समाज की मुख्यधारा में रह रहे लोग व संगठन जो गुप्त रूप से अपने पितृ संगठन की गतिविधियों से जुड़े रहते हैं) के बीच वितरित किए हैं. पुलिस के मुताबिक आजाद ने पूछताछ के दौरान लगभग एक दर्जन ब्रिटिश नागरिकों के नाम पुलिस को बताए हैं जो राज्य में खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं. ऐसा माना जा रहा है कि विदेशों में स्थित सिख कट्टरपंथी संगठनों ने राज्य में अपना एक मजबूत अंडरग्राउंड नेटवर्क तैयार कर रखा है.
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ‘शहीदों’ की याद में बन रहे स्मारक से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि शहीद किसे माना जाए ?
खुफिया अधिकारी बताते हैं कि खालिस्तानी आंदोलन से जुड़े तमाम संगठनों के मुख्यालय पाकिस्तान में हैं और यहां आईएसआई से उन्हें हथियार, पैसा और ट्रेनिंग समेत हर तरह का सहयोग और समर्थन मिल रहा है. बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई) के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि भारत में वारदात करने के लिए अब यह विदेशी मॉड्यूल (संगठन के बाहर के आतंकवादियों का इस्तेमाल) का प्रयोग कर रहा है. इसी रणनीति का प्रयोग करते हुए उसने लगभग दो साल पहले राष्ट्रीय सिख संगत के प्रमुख रुल्दा सिंह पटियाला की हत्या कराई थी. खुफिया विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि संगठन राज्य में अपने स्लीपर सेलों की एक बड़ी श्रृंखला बना चुका है. जिन्हें वह विभिन्न तरीके अपनाकर लगातार हथियार और पैसे उन तक भिजवा रहा है.
स्लीपर सेलों को तैयार करने के अलावा आतंकी संगठनों के निशाने पर वे परिवार भी हैं जिनके घर से कभी कोई सदस्य आतंकवाद में शामिल रहा है. खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी जानकारी देते हैं, ‘ उन परिवारों को पैसा देकर एक तरह से पेंशन दी जा रही है. इससे आतंकवादियों के दो काम हो रहे हैं. वे इन परिवारों को खुद से जोड़ रहे हैं. साथ ही आम लोगों में सहानुभूति बटोरते हुए यह संदेश भी दे रहे हैं कि सरकार लोगों का ख्याल नहीं रख रही जबकि ये संगठन हमेशा उनके साथ हैं.’ सूत्र बताते हैं कि खालिस्तानी संगठनों ने विदेशों में कई सामाजिक संगठनों का गठन किया है. इनमें दान संगठन, मानवाधिकार संगठन से लेकर गुरुद्वारा आदि के संचालन के लिए कई समूह बनाए गए हैं. इन संगठनों के फंड का सबसे बड़ा स्रोत दान है. सुरक्षा अधिकारी कहते हैं कि कई देश अभी ऐसे हैं जो खालिस्तानी आतंकियों पर अभी सख्ती नहीं बरत रहे हैं. यही कारण है कि कनाडा जैसे देशों में खालिस्तानी संगठन खुलेआम भारत विरोधी बातें करते हुए देखे जा सकते हैं.
कनाडा के अलावा ब्रिटेन भी सिख कट्टरपंथियों का एक प्रमुख गढ़ बनता जा रहा है. हालांकि 1980 के दशक में खालिस्तानी चरमपंथ के उदय के समय से ही ब्रिटेन में सिख कट्टरपंथ काफी तेजी से जड़ें जमाना शुरू कर चुका था. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ब्रिटिश प्रशासन की सख्ती के कारण ये लगभग समाप्त होने के कगार पर आ गया था. लेकिन पिछले कुछ साल में कट्टरपंथियों ने बहुत तेजी से खुद को संगठित किया है. इनके संगठन कई बार पाकिस्तानी संगठनों के साथ मिलकर भारत विरोधी प्रदर्शन करते हैं. ऐसे ही जब खालिस्तान संबंधी कोई आंदोलन या प्रदर्शन हो रहा हो तो उसमें ये पाकिस्तानी भी हिस्सा लेते हैं.
ब्रिटेन में जो आतंकवादी संगठन पूरी तरह सक्रिय हैं उनमें बब्बर खालसा इंटरनेशनल, इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन, दल खालसा और खालिस्तान कमांडो फोर्स आदि शामिल हैं. जिनमें से दल खालसा और खालिस्तान कमांडो फोर्स पर ब्रिटेन में प्रतिबंध नहीं है. इसमें से दल खालसा ब्रिटेन के युवाओं के बीच पिछले कुछ समय में काफी तेजी से लोकप्रिय हुआ है.
अधिकारी बताते हैं कि ये आतंकी संगठन पंजाब स्थित अपने सूत्रों से लगातार संपर्क में हैं. हाल ही में एक बड़ा हंगामा उस समय मचा जब ये खबर आई कि आतंकवादी पटियाला स्थित हाई सिक्योरिटी वाली नाभा जेल से फरार होने के लिए सुरंग खोद चुके हैं और वे किसी समय वहां से बाहर भाग सकते हैं. उल्लेखनीय है कि नाभा जेल में बीकेआई समेत और भी कई अन्य आतंकी संगठनों के खूंखार आतंकवादी कैद हैं. सरकार के पास खबर पहुंचते ही उसके हाथ-पांव फूल गए. इसके बाद जांच एजेंसियों ने जेल और उसके आसपास के इलाके की सघन जांच की. खैर यहां कोई सुरंग तो नहीं मिली लेकिन जांच एजेंसियों के हाथ कुछ ऐसे तथ्य लगे जिनसे उनके होश उड़ गए. जेल से लगभग कई हजार कॉल विदेशों में की गई थीं.
कॉल डिटेल्स से पता चला कि ये लोग विदेशों में स्थित आतंकी संगठनों के लगातार संपर्क में थे. ऐसा नहीं था कि इन्होंने सिर्फ जेल से विदेशों में फोन किया हो बल्कि जेल से बाहर कोर्ट जाने के समय भी विदेश में फोन पर बात की थी. ऐसे में सुरक्षाकर्मियों की भूमिका पर भी प्रश्न उठे थे. जानकारों का एक वर्ग ये मानता है कि एक तरफ जहां विभिन्न खालिस्तानी आतंकी संगठनों द्वारा राज्य में अस्थिरता व आतंक फैलाने तथा खालिस्तानी आंदोलन को पुनः जीवित करने की लगातार कोशिश की जा रही है वहीं दूसरी तरफ राज्य की राजनीति भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकने और अलगाववादियों के मंसूबों को अपनी हरकतों से लगातार मजबूत करती आ रही है.
राज्य की अकाली दल सरकार पर ये गंभीर आरोप लग रहे हैं कि वह जान-बूझकर राज्य में कट्टरपंथी ताकत को मजबूत कर रही है. हाल ही में अकाली दल के नेतृत्व वाली एसजीपीसी ने स्वर्ण मंदिर परिसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाने का काम शुरू किया है. शुरुआत में ऐसी खबरें आईं कि स्मारक ऑपरेशन के दौरान मारे गए जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायियों की याद में बनाया जा रहा है. यह भी कहा गया कि स्मारक में सभी मृतकों के नाम दीवारों पर लिखे जाएंगे. इनमें शहीद का दर्जा प्राप्त भिंडरावाले का नाम सबसे ऊपर होगा. इनकी तस्वीरें भी इस स्मारक में लगाई जाएंगी. ऑपरेशन के दौरान जिन प्रमुख चीजों को नुकसान पहुंचा उनको भी इसमें प्रदर्शित और संरक्षित किया जाएगा. इसमें सोने की वे प्लेटें और वह पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब भी होंगे जिनपर गोली के निशान मौजूद हैं.
लेकिन जब मामले ने तूल पकड़ा तो अकाली दल के अध्यक्ष और राज्य के उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने सफाई देते हुए कहा, ‘ सैकड़ों की संख्या में सिखों की मौत ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय स्वर्ण मंदिर में हुई थी. उन लोगों की ही याद में ये गुरुद्वारा बनाया जा रहा है. यह किसी खास एक व्यक्ति या व्यक्तियों को समर्पित नहीं है.’ इसके बावजूद आलोचकों का कहना है कि अकाली दल जिसके हाथों में एसजीपीसी का नियंत्रण है वह एसजीपीसी को ढाल बनाकर अपनी कट्टरपंथ की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है. और यह सब कुछ आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हो रहा है.
कट्टरपंथी संगठन और उनके प्रमुख
संगठन : बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई)
मुखिया : वाधवा सिंह बब्बर
बीकेआई खालिस्तान समर्थक सबसे पुराना और प्रभावशाली संगठन है जिसकी गतिविधियां पाकिस्तान से संचालित होती हैं
संगठन : दल खालसा
मुखिया : एचएस धामी
इसका मुख्यालय अमृतसर में है और यही एकमात्र संगठन है जो फिलहाल खालिस्तान की मांग शांतिपूर्ण ढंग से कर रहा है
संगठन : खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स (केजेएफ)
मुखिया : रंजीत सिंह नीता
इसका मुख्यालय पाकिस्तान में है.जम्मू में रहने वाले सिख बड़ी संख्या में इस संगठन के साथ जुड़े हुए हैं
संगठन : इंटरनेशनल यूथ सिख फेडरेशन
मुखिया : लखबीर सिंह रोड
पाकिस्तान के लाहौर में इसका मुख्यालय है. इस संगठन का नेटवर्क कनाडा, ब्रिटेन और जर्मनी आदि देशों तक फैला है
संगठन : खालिस्तान टाइगर फोर्स (केटीएफ)
मुखिया : जगतार सिंह
कनाडा, अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में सक्रिय यह संगठन पहले बीकेआई के साथ मिलकर काम करता था
स्मारक बनने के इस पूरे घटनाक्रम से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर वे शहीद कौन हैं जिनकी याद में इसका निर्माण हो रहा है. क्या वे शहीद आम श्रृद्धालु हैं जो ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गए या वे हथियारबंद भिंडरावाले और उनके अनुयायी या फिर सेना के लोग जिन्हें पूरा देश शहीद मानता है. शहीद की इसी परिभाषा को लेकर पेंच फंसा है. अकाली दल और एसजीपीसी के लगभग सभी नेता इस जगह आकर चुप हो जाते हैं. यह सवाल जब तहलका ने अकाली दल से राज्य सभा सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के पुत्र नरेश गुजराल से पूछा तो उनका कहना था कि शहीदों की परिभाषा में वे सभी लोग शामिल हैं जो उस दिन वहां प्रांगण में मारे गए थे. उनसे जब ये पूछा गया कि क्या इसमें सैनिक भी शामिल हैं तो गुजराल ने इससे एक बार सहमति जरूर जताई लेकिन आगे बात करने से मना कर दिया. स्मारक बनाने के औचित्य के प्रश्न पर अमृतसर स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नवदीप सिंह कहते हैं, ‘ आम सिखों में ये भावना है कि अगर मेमोरियल बनाना भी है तो इसे स्वर्ण मंदिर के अंदर नहीं बल्कि बाहर किसी और जगह बनाया जाना चाहिए. मंदिर की पवित्रता हर हाल में कायम रहनी चाहिए.’
ऐसा नहीं है कि स्मारक वह पहला मामला है जिसको लेकर विवाद चल रहा है. पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजौना की फांसी की सजा टलवाने को लेकर जिस तरह से प्रदेश सरकार और एसजीपीसी अति सक्रिय नजर आई उससे भी सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आई है. सरकार ने अपना पूरा जोर लगाकर राजौना की फांसी की सजा को टलवाया. हद तो तब हो गई जब कुछ दिनों के अंदर एसजीपीसी ने राजौना को जिंदा शहीद का दर्जा दे दिया.
उल्लेखनीय है कि राज्य में सिर्फ राजौना को शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है. यह परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है. सबसे पहले अकाल तख्त द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले को शहीद का दर्जा दिया गया. उसके बाद इंदिरा गांधी के हत्यारे केहर सिंह और सतवंत सिंह को शहीद का दर्जा दिया गया. उसके बाद ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष रहे जनरल एएस वैद्य के हत्यारे सुखदेव सिंह ‘सुखा’ और हरजिंदर सिंह ‘जिंदा’ को शहीद की उपाधि एसजीपीसी द्वारा दी गई है. सिर्फ उपाधि नहीं बल्कि हर साल इनकी मौत की बरसी स्वर्ण मंदिर में मनाई जाती है. जिसमें उनके लिए अखंड पाठ करने के साथ ही उस मौके पर उनके परिवार वालों का सम्मान भी किया जाता है.
इस बार भी नौ अक्टूबर को स्वर्ण मंदिर में जनरल एएस वैद्य के हत्यारे सुखदेव सिंह‘ सुक्खा और हरजिंदर सिंह ‘ जिंदा की बरसी के दिन एसजीपीसी की तरफ से न सिर्फ अखंड पाठ का आयोजन किया गया साथ ही सुखा और जिंदा के परिवारवालों को सम्मानित भी किया गया. इसके बाद यह घटना अचानक राष्ट्रीय मीडिया में छा गई थी.
‘60-70 के दशक में पंजाब में वामपंथी आंदोलन का असर था, लेकिन उसका प्रभाव धीरे-धीरे खत्म होने के साथ उसकी जगह कट्टरपंथियों ने ले ली जानकार मानते हैं कि जब इस तरह ऐसे लोगों को एसजीपीसी और वर्तमान अकाली दल सरकार द्वारा हीरो बनाया जाएगा तो फिर किस तरह आने वाली पीढ़ी को फिर अलगाव के रास्ते पर जाने से रोक पाएंगे. ऐसे में क्या ये संभव है कि भविष्य में पंजाब में अलगाववादी ताकतें और अधिक मुखर हो उठें और आतंकवाद के दिनों का सामना फिर से पंजाब के लोगों को करना पड़े? पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह इस सवाल पर कहते हैं, ‘तुरंत तो ऐसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती. दूसरी बात यह है कि पंजाब के लोगों ने 1982 से 1992 के बीच जो आतंकवाद झेला है उसकी पीड़ा से वे आज तक कराह रहे हैं. ऐसे में समाज की तरफ से अलगाववादियों को कोई समर्थन मिलने की संभावना दिखाई नहीं देती. लेकिन भविष्य में क्या होगा इसके बारे में नहीं कहा जा सकता. क्योंकि जिस तरह से देश की आर्थिक नीति चल रही है उसके कारण आने वाले समय में और अधिक लोग बेरोजगार होंगे. आगे चलकर समाज में तनाव या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तो फिर ऐसे में किसी अप्रिय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है.’
पंजाब एक धार्मिक समाज है और यहां की राजनीति धर्म में रची बसी हुई है, ऐसे में धर्म को लेकर कभी कुछ अगर इधर-उधर होता है तो फिर उससे पूरी राजनीति और समाज प्रभावित होने लगता है. ऐसे में राजनीतिक विकल्पहीनता एक खतरनाक स्थिति होती है. इस पर बात करते हुए मंजीत कहते हैं, ‘ पंजाब में 1950-60 के दशक में वाम दलों का काफी प्रभाव था लेकिन बाद में वह खत्म हो गया. यही कारण है कि उसका स्थान दूसरे तरह के आंदोलन ने ले लिया. लोगों को लगा कि वाम दल तो हवा-हवाई बातें करते हैं वहीं दूसरी तरफ खालिस्तानी हैं, जो तुरंत क्रांति ले आएंगे. आज अगर पंजाब के समाज में कोई गुस्सा उभरता है तो फिर कट्टरपंथियों की तरफ जाने के अलावा पंजाब में कोई दूसरी वैकल्पिक राजनीतिक ताकत मौजूद नहीं है. इसलिए सिस्टम के प्रति जो भी नाराज होगा उसके उस तरफ जाने की प्रबल संभावना रहेगी.’
1984 के सिख विरोधी दंगों में न्याय न मिलने की घटना को भी पंजाब में आतंकवाद की सुगबुगाहट बढ़ने के लिए जिम्मेदार वजह माना जा रहा है. जानकार बताते हैं कि तकरीबन 4,000 के करीब सिखों के कत्ल और उस नरसंहार के 28 साल बाद भी उसमें न्याय न होने से सिख समाज के ज्यादातर लोगों के मन में खुद को पीड़ित समझने की भावना अब-भी मौजूद है. गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रमुख सुखदेव सिंह सोहल इस बात से इत्तफाक रखते हैं. उनके मुताबिक, ‘ समाज में अभी तत्काल तो ऐसा कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन अगर आप सोचते हैं कि सिख, ऑपरेशन ब्लूस्टार को एक झटके में भुला देगा तो ऐसा नहीं हो सकता. लोगों की मेमोरी का वे आज भी हिस्सा है. 1984 के दंगे में आज तक न्याय नहीं हुआ उसका जख्म लोगों के दिल में आज तक ताजा है.’
पंजाब में आतंकवाद उभरने के संकेतों पर राजनीतिक दलों के भी अपने-अपने विचार राजनीति से संचालित दिख रहे हैं. अकाली दल के नरेश गुजराल कहते हैं, ‘ सब कांग्रेस की रणनीति है. चुनाव आने के समय वह इस तरह की बातें शुरू कर देती है. लोगों को समझना होगा कि सिख मानस में स्वर्ण मंदिर से बड़ी कोई चीज नहीं है. कोई सिख अपने पिता पर हमला बर्दाश्त कर सकता है लेकिन स्वर्ण मंदिर पर नहीं.’ स्मारक से लोगों के जख्म कुरेदने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘ ये बताइए आखिर उस घटना को भूला कौन है जिसे हम याद करा रहे हैं. मंदिर के अंदर पहले से ही पांच गुरुद्वारे हैं. यह एक और बन जाएगा. बस इतना ही है.’ लेकिन प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सुनील जाखड़ इससे इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘ आज पंजाब बारूद के ढेर पर बैठा है. बारुद का ढेर हैं वे लाखों नाराज, असंतुष्ट और बेरोजगार युवा. और अगर आप इस तरह से भावनात्मक मसले उठाएंगे, धार्मिक भावनाओं को कुरेदेंगे तो फिर स्थिति बिगड़ने से कौन रोक पाएगा.’
जाखड़ कहते हैं, ‘ स्मारक बनाने के पीछे दो कारणों से अकाली दल लगे हुए हैं. पहला यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में इन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष छवि लोगों के सामने पेश की थी. ताकि और बाकी वर्गों के वोट इन्हें मिल सकें लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन्हें लगा कि कहीं ऐसा न हो कि सेक्युलर बनने के चक्कर में इनका परंपरागत वोट बैंक इनसे दूर चला जाए. अपने उसी परंपरागत वोट बैंक को जोड़े रखने के लिए इन्होंने स्मारक बनाने की बात की है. ये सोच रहे हैं कि इस तरह से हम सेक्युलर भी हो जाएंगे और परंपरागत समर्थक भी जुड़े रहेंगे और दोनों के वोट हमें मिलते रहेंगे.’ दूसरे कारण के बारे में वे कहते हैं, ‘स्मारक का मामला इसलिए भी उठाया गया है ताकि जब सुखबीर बादल को मुख्यमंत्री बनाया जाए तो उसका कट्टरपंथी विरोध न करें.’