दिल्ली की भीड़भाड़ शाम में पर्यटक, इतिहास और कैमरों की क्लिक सब कुछ सामान्य था। लेकिन अगले कुछ सेकंड में एक धमाके ने लाल क़िले की सैकड़ों साल पुरानी दीवारों को कंपा दिया। देश की सबसे सुरक्षित धरोहरों में शामिल इस परिसर के भीतर हुआ यह विस्फोट सिर्फ़ एक हमला नहीं था, बल्कि एक संकेत था।आतंकवाद का नया संस्करण हमारे सामने खड़ा है, और इसकी जड़ें कहीं ज्यादा भीतर तक फैली हुई हैं।
जांच टीम जब घटनास्थल से सबूत उठाने लगी, तो जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि यह कोई साधारण आतंकी कार्रवाई नहीं थी।इस घटना को अंजाम देने के पीछे किसी छोटे आतंकवादी का नहीं बल्कि किसी बड़े, साफ-सुथरे, प्रतिष्ठित और ‘व्हाइट-कॉलर’ शख्स का था।
जबकि देश में आतंकवादी संगठनों की पारंपरिक भर्ती में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की जा रही है, लेकिन सुरक्षा एजेंसियाँ एक नए और खतरनाक रुझान को लेकर सतर्क हैं। अब आतंकवाद का चेहरा बदल रहा है । हथियार उठाने वालों की संख्या घटी है, पर ‘वाइट-कॉलर आतंकियों’ यानी पढ़े-लिखे और पेशेवर सहयोगियों का नेटवर्क तेज़ी से फैल रहा है।
सुरक्षा एजेंसियों के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में इस वर्ष अब तक केवल दो नए रिक्रूट सामने आए हैं। 2023 में यह संख्या 17, 2022 में 120, 2021 में 124 और 2020 में लगभग 200 थी। भले यह गिरावट राहत देती हो, पर विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि खतरा अब “अदृश्य” रूप में समाज के भीतर पनप रहा है।
बदलता पैटर्न: हथियार कम, लेकिन सपोर्ट सिस्टम मज़बूत
खुफिया सूत्रों का कहना है कि अब आतंकी संगठन ओवर-ग्राउंड नेटवर्क (OGW) और लॉजिस्टिक सपोर्ट सिस्टम पर ज़ोर दे रहे हैं। ये वाइट-कॉलर सहयोगी सीधे हथियार नहीं उठाते, बल्कि आतंकियों को सूचना, फंडिंग, रहने की जगह और प्रचार-प्रसार में सहायता करते हैं।
इनकी पहचान मुश्किल होती जा रही है क्योंकि ये लोग आम नागरिकों की तरह पेशेवर जीवन जीते हैं और समाज में घुले-मिले रहते हैं।
राष्ट्रीय खुफिया ब्यूरो (IB) और राज्य स्तरीय IB विंग्स ने हाल के महीनों में ऐसे नेटवर्कों पर कड़ी निगरानी बढ़ाई है। सूत्रों के अनुसार, कई शिक्षित पेशेवर आईटी, मेडिकल, सोशल सेक्टर और बिज़नेस पृष्ठभूमि के लोग संदिग्ध गतिविधियों में पाए गए हैं।
एजेंसियाँ इन प्रोफेशनल्स की डिजिटल गतिविधियों, वित्तीय ट्रांजैक्शनों और संपर्कों की गहन जांच कर रही हैं ताकि किसी बड़े आतंकी षड्यंत्र को समय रहते रोका जा सके।
रैडिकलाइज़ेशन का नया चेहरा , स्थानीय नागरिकों का परिवर्तन
एक सुरक्षा अधिकारी का कहना है कि पहले अधिकांश आत्मघाती हमलों के पीछे पाकिस्तान से भेजे गये या संगठनों द्वारा भेजे गये आतंकवादी रहते थे। अब खुफिया रिपोर्ट में ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि कुछ भारतीय नागरिकों को मानसिक रूप से रैडिकलाइज (ब्रेनवॉश) कर के आत्मघाती या हिंसक गतिविधियों के लिये प्रेरित किया जा रहा है। अधिकारी इसे ‘‘ब्रेन-वॉश की ऊँची स्तर’’ बताते हैं और कहते हैं कि यह प्रक्रिया समाज के भीतर धीरे-धीरे काम करती है । ऑनलाइन प्रचार, संदिग्ध संपर्क और प्रेरक लोकल नेटवर्क के जरिए।
एजेंसियों ने यह भी बताया कि जिन धमाका, विस्फोटक सामग्रियों का उपयोग हुआ, वे हमेशा घरेलू स्रोतों से नहीं आते। कई मामलों में शक है कि विस्फोटक या उनके घटक देश के बाहर से आए स्रोतों से मंगवाए गए या भेजे गए हैं। कुछ खुफिया संकेतों के अनुसार ऐसी सामग्री को देश के विभिन्न हिस्सों में छिपाकर रखा जा सकता है । इसलिए सुरक्षा उपाय सिर्फ सीमाओं पर ही नहीं बल्कि आंतरिक तह में भी तेज किए जा रहे हैं।
अधिकारियों का कहना है कि हिंसक रिक्रूटमेंट में गिरावट सकारात्मक है, पर वाइट-कॉलर सहयोगियों और देशी रैडिकलाइज़ेशन की बढ़ती घटनाएँ एक नई सुरक्षा चुनौती पेश करती हैं। इसलिए खुफिया एकीकरण, स्थानीय पुलिस-इंटेलिजेंस तालमेल, डिजिटल मॉनिटरिंग और नागरिक जागरूकता को बढ़ाना अनिवार्य माना जा रहा है। साथ ही सीमा सुरक्षा के साथ-साथ घरेलू सप्लाई चेन और फंडिंग चैनलों की भी गहन जाँच चल रही है।
सुरक्षा तंत्रों के मुताबिक केवल रिक्रूटमेंट के घटते आंकड़ों से संतोष नहीं किया जा सकता; तब तक पूर्ण सुरक्षा सुनिश्चित नहीं मानी जाएगी जब तक ओवर-ग्राउंड नेटवर्क, फंडिंग सूत्र और रैडिकलाइज़ेशन के स्थानीय ढांचे प्रभावी रूप से बाधित न किए जाएँ। सरकार और नागरिक समाज दोनों की भूमिका अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है । सूचना देना, संदिग्ध गतिविधियों की रिपोर्ट करना और सामुदायिक निगरानी बढ़ाना आवश्यक है। लाल क़िला—एक हमले से ज्यादा, एक चेतावनी थी
यह घटना हमसे कहती है—
सुरक्षा केवल दीवारों और हथियारों पर नहीं टिकी,
बल्कि उन लोगों की नीयत पर भी जो सिस्टम को संभालते हैं। हमले के बाद कई अफसरों ने यह स्वीकारा कि देश की सुरक्षा अब बॉर्डर केंद्रित नहीं,
बल्कि “नेटवर्क केंद्रित” हो चुकी है। अगर इस नए खतरे को नहीं समझा गया, तो बंदूक उठाने वाले कम होंगे पर उन्हें सपोर्ट देने वाला नेटवर्क और अधिक खतरनाक हो जाएगा।
अंतिम निष्कर्ष
“लड़ाई अब बंदूकों से नहीं, दिमागों से है।
दुश्मन सीमा पर नहीं, सिस्टम के भीतर है।
और इसे हराने के लिए सिर्फ़ सेना नहीं, समाज की जागरूकता भी जरूरी है।
आतंकवाद का यह नया चेहरा, अदृश्य भी है,
बुद्धिमान भी और कहीं ज्यादा शक्तिशाली भी।
देश की सुरक्षा एजेंसियों के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती इस व्हाइट-कॉलर जंगल में छिपे उन सायों को ढूँढने की है, जो हाथ में हथियार नहीं रखते,
पर हर हमले का पहिया घुमाते हैं।


