बिना किसी से मशविरा किए अपनी तरफ से ही छठी रथ यात्रा पर जाने की लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा क्या की भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष स्तर पर उथल-पुथल का माहौल बन गया. आतंकवाद के खिलाफ 2006 में की गई उनकी भारत सुरक्षा यात्रा का निर्णय भी अचानक ही उनकी पार्टी और तब के पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर थोपा गया था. वर्तमान यात्रा की तरह तब भी आडवाणी की यात्रा को हताशा की सीमा तक जाती उनकी महत्वाकांक्षा के परिणाम के तौर पर देखा गया था. भारत सुरक्षा यात्रा असफल रही और प्रमोद महाजन की असमय मृत्यु के चलते आडवाणी और राजनाथ सिंह दोनों को ही अपनी यात्रा बीच में ही रोकने का एक बड़ा बहाना मिल गया.
जब उनके ऊपर पार्टी में दूसरी पीढ़ी को दिशा दिखाने और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा को निपटाने की जिम्मेदारी थी तो वे खुद ही इस पीढ़ी के प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं
इसके बावजूद आडवाणी को 2009 के आम चुनाव में भाजपा का उम्मीदवार बना दिया गया. इसे मजबूरी में लिया गया निर्णय कहना गलत नहीं होगा. 2004 के चुनाव के बाद भाजपा में नई पीढ़ी को लाने के लिए जो प्रयास किए जाने चाहिए थे, वे कभी किए ही नहीं गए. तो पार्टी के सामने आडवाणी के अलावा कोई और विकल्प ही नहीं बचता था. 2004 के बाद जिन आडवाणी से भीष्म पितामह सरीखी एक सम्मानित भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती थी वे आडवाणी अपनी बनाई महाभारत में खुद ही अर्जुन की भूमिका निभाने को बेताब थे. अपनी इस कई मायनों में असामयिक महत्वाकांक्षा के चलते उन्होंने पार्टी के बारे में सोचने, सभी के साथ विचारने और पार्टी को दिशा देने का प्रयास करना छोड़ दिया. इसकी बजाय वे अपने इर्द-गिर्द मौजूद एक छोटे-से गुट के संरक्षक और उसकी सलाहों पर चलने वाले नेता बन गए. इसने भाजपा में भ्रम की स्थिति को बढ़ावा देकर इसे निहायत ही अनुपयोगी मुद्दों में उलझी रहने वाली पार्टी बना दिया.
आडवाणी की इस भूमिका और बर्ताव की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी. साल 2004 में जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी तब वह इतनी खराब स्थिति में नहीं थी. पार्टी ने केंद्र सरकार को काफी बढ़िया तरीके से चलाया था और इतनी पार्टियों की किसी गठबंधन सरकार ने केंद्र में पहली बार अपना कार्यकाल पूरा किया था. अगर आडवाणी सही तरह से मार्गदर्शक की भूमिका निभाते तो भाजपा खुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाया से कुछ और दूर कर पाने और एक आधुनिक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल में परिवर्तित होने में सफल साबित हो सकती थी. मगर जब उन्होंने अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पार्टी से आगे रखा तो यह प्रक्रिया न केवल थम गई बल्कि उसने उल्टी दिशा भी पकड़ ली. इससे संघ को भाजपा पर अपनी पकड़ मजबूत करने का मौका मिल गया और पार्टी में ‘राजनीतिज्ञों’ और संघ द्वारा स्थापित पदाधिकारियों के बीच एक नई रस्साकशी शुरू हो गई.
वर्ष 2009 में विकल्पहीनता और एक सीमा तक पार्टी को करीब आधी शताब्दी तक अपनी सेवाएं देने के लिए उनके प्रति सम्मान के चलते आडवाणी को बिना ज्यादा ना-नुकुर किए भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था. 2009 के चुनाव में भाजपा के उन नेताओं ने जिन्हें आडवाणी ने खुद तैयार किया था, उनका साथ देकर एक प्रकार की गुरु दक्षिणा की रस्म अदा की थी. हालांकि यह चुनाव भाजपा के लिए कभी आसान नहीं था, मगर जिस तरह के नतीजे आए उसने भाजपा को भी आश्चर्यचकित कर दिया. इसके बाद आडवाणी को चुपचाप से नेपथ्य में चले जाना था.
मगर आडवाणी इस बात को नहीं समझे. लोकसभा चुनाव के बाद ऐसे संकेत जरूर मिले कि वे 2014 का चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन ये केवल संकेत ही थे. उनके इस बर्ताव के चलते उन्हें लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद से हटाने के लिए पार्टी और संघ को थोड़ी कसरत तक करनी पड़ गई. इसके बाद पार्टी के संविधान में संशोधन करके आडवाणी के लिए पार्टी में एक नए ही पद का सृजन किया गया. उन्हें भाजपा संसदीय दल का अध्यक्ष बना दिया गया. मगर अभी भी आडवाणी ने मैदान नहीं छोड़ा था. उस मौके पर उनका कहना था, ‘मेरी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है. मैं अभी रिटायर नहीं हुआ हूं.’ वर्तमान संदर्भ में संघ के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘उन्हें लगता है कि 2014 से पहले चुनाव हो सकते हैं या किसी अन्य किस्म की कोई व्यवस्था बन सकती है. वे ऐसी हालत में खुद को दौड़ से बाहर नहीं करना चाहते. राजनीति के गलियारों में भी आजकल यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि अगले चुनाव 2012 में भी हो सकते हैं. अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो संप्रग बिखर सकता है. साफ है कि आडवाणी इस विचार में यकीन रखते हैं. ऐसा उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान कहा भी है.
अपनी यात्रा के दूसरे ही दिन एक टीवी चैनल के साथ साक्षात्कार में प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर आडवाणी के जवाब से भी यात्रा के पीछे की उनकी मंशा का अंदाजा लग जाता है. उनका गोल-मोल जवाब था, ‘मैं प्रधानमंत्री की रेस में नहीं हूं, मगर इसका फैसला पार्टी तय करेगी.’ यात्रा का मकसद पूछने पर उनका कहना था कि इसके पीछे पिछले डेढ़ साल की घटनाएं हैं जिनमें मूल्य वृद्धि से निपटने में सरकार की अक्षमता से लेकर केंद्र सरकार के घटकों द्वारा किया भ्रष्टाचार तक शामिल है. किंतु जानकार मानते हैं कि इसका संबंध डेढ़ साल से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों की आडवाणी की देश के सबसे शीर्ष पद पर पहुंचने की इच्छा से है.
तो ऐसे में जब उनके ऊपर पार्टी में दूसरी पीढ़ी को दिशा दिखाने और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा को निपटाने की जिम्मेदारी थी तो वे खुद ही इस पीढ़ी के प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं. मगर इस दूसरी पीढ़ी के उम्मीदवारों से पहले भाजपा की पहली और दूसरी के बीच की पीढ़ी यानी यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और मुरली मनोहर जोशी की बात करते हैं. इस पीढ़ी को दरकिनार करके ही सुषमा स्वराज और अरुण जेतली के हाथों में संसद के सदनों में विपक्ष के नेता की कमान दी गई है. भले ही मुरली मनोहर जोशी को पार्टी में आडवाणी का विरोधी माना जाता हो मगर आज की परिस्थितियों में इन नेताओं में से शायद ही किसी को आडवाणी का आगे आना बुरा लगे. उन्हें अपने से छोटे और कम अनुभवी सहयोगियों के मंत्रिमंडल का सदस्य बनने की बजाय आडवाणी के नीचे काम करना निश्चित ही ज्यादा अच्छा लगेगा.
भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेताओं को भी अब युवा कहना थोड़ा अजीब ही होगा. इनमें से कई तकरीबन 60 साल के हैं, दादा बन चुके हैं. वे कितना और इंतजार करेंगे? पिछले दो साल और प्रधानमंत्री पद के भाजपा के दो सबसे अग्रणी उम्मीदवारों की बात करें तो सुषमा स्वराज और जेतली ने संसद में सत्ता पक्ष को घेरने का काम अपने पूर्ववर्तियों – 2004 से 2009 के बीच आडवाणी और जसवंत – से बेहतर तरीके से किया है. उन्होंने एक हद तक विभिन्न मुद्दों पर अन्य राजनीतिक दलों के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करने में भी सफलता हासिल की है. इनमें बीजू जनता दल के अलावा सीपीएम और राष्ट्रीय जनता दल भी शामिल हैं जो भाजपा के साथ शायद ही कभी किसी तरह का चुनावी संबंध रखना चाहेंगे. लेकिन इन दोनों की अपनी कमियां भी हैं. सुषमा स्वराज जमीन से जुड़ी नेता हैं. लोगों से संवाद स्थापित करने में उन्हें महारत है, लेकिन उनके ऊपर नीतिगत मसलों पर उतनी समझ नहीं रखने के आरोप लगते रहते हैं. उधर जेतली हर मसले पर बेबाक और स्पष्ट राय तो रख सकते हैं. संसद के भीतर सरकार को बुरी तरह घेर भी सकते हैं. मगर उनका जनाधार नहीं है. दूसरी पीढ़ी के एक और नेता हैं भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह. सिंह को पार्टी में एक धड़े का समर्थन है. संघ का भी एक धड़ा उनके साथ है. यदि उत्तर प्रदेश में 2012 में पार्टी अनुमान से कुछ अच्छा प्रदर्शन करती है तो वे भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की पांत में शामिल हो सकते हैं. मगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में उनकी कितनी स्वीकार्यता होगी यह एक बड़ा सवाल है.
एक विकल्प भाजपा से बाहर के किसी नेता को राजग का नेता बनाने का भी है. इस विकल्प के तौर पर फिलहाल केवल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ही नाम लिया जा सकता है. अगर लोकसभा चुनावों के बाद वे थोड़ा और मजबूत होकर उभरते हैं या अपनी स्थिति बरकरार रखते हैं और चुनावों के बाद राजग का दायरा बढ़ाने के लिए कुछ और घटकों की आवश्यकता पड़ती है तो ऐसी हालत में उनके बारे में बड़ी संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
इन सबके अलावा नरेंद्र मोदी भी हैं. मोदी शायद पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के सबसे चहेते और अगली पीढ़ी के सबसे करिश्माई नेता हैं. ऐसा करना बेहद मुश्किल है मगर यदि 2002 के गुजरात दंगों को किनारे किया जा सके तो कई लोग मानते हैं कि वे एक बढ़िया प्रशासक हैं जो गुजरात को प्रगति के रास्ते पर बहुत तेजी से दौड़ा रहे हैं. भाजपा में मोदी एक ऐसे नेता हैं जिससे कांग्रेस को सबसे ज्यादा डर है. पार्टी में तमाम लोग मानते हैं कि कोई एक व्यक्ति जो भाजपा को नब्बे के दशक वाले दिनों में ले जा सकता है तो वह नरेंद्र मोदी ही हैं.
मगर मोदी के लिए गुजरात के दंगों को पीछे छोड़ना आसान नहीं है और इसके चलते वे भाजपा के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा कारण बन जाते हैं. उनकी समस्त क्षमताओं और सामर्थ्य के बीच पार्टी में ऐसा मानने वालों की कमी नहीं कि वे एक दुधारी तलवार हैं. उन्होंने उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय को अपने पक्ष में मानकर इससे फायदा उठाने और अपने राजनीतिक कायाकल्प के उद्देश्य से तीन दिन का सद्भावना उपवास रखा था. मगर यह कायाकल्प क्या 2014 से पहले पूरा हो सकता है? क्या पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर यह खतरा उठाने के लिए तैयार है या फिर उसे मोदी की स्वीकार्यता बढ़ने तक इंतजार करना चाहिए?
पार्टी में कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि अपने सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार को आगे लाने के लिए आखिर पार्टी कब तक इंतजार करेगी. उनका मानना है कि राजग के कुछ घटकों को तो वे कभी भी स्वीकार्य नहीं होने वाले. मगर मोदी पार्टी के लिए एक ऐसी दवा भी साबित हो सकते हैं जो या तो मर्ज का इलाज कर देती है या फिर प्राणघातक भी साबित हो सकती है. तो ऐसे वक्त में जब कांग्रेस कमजोर दिखाई दे रही है और कई पार्टियों से बना एक गठबंधन उसे हराने में सक्षम लग रहा हो क्या पार्टी ऐसा जोखिम उठा सकती है?
‘राजनीति में इसके बाद कौन ?’ जैसे सवाल हमेशा चलन में रहे हैं मसलन नेहरू के बाद कौन? वाजपेयी के बाद कौन? मगर भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि हिंदुत्व के बाद क्या. 1990 के हिंदुत्ववादी खुमार के छटने के बाद आज भाजपा का प्रेरक सूत्र क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जो भाजपा का आने वाला नेता कौन होगा इसका फैसला करने वाला है. उदाहरण के तौर पर, राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा एक विशेष वर्ग को आकर्षित करने वाली भाजपा होगी जबकि जेतली, स्वराज या मोदी के नेतृत्व में उसका चरित्र कुछ अलग होगा. जाहिर-सी बात है कि गडकरी के सामूहिक नेतृत्व के गोल-मोल सिद्धांत की बात की आड़ में नेतृत्व के मसले को हल न करना पार्टी में बड़े और जरूरी बदलावों को आने से रोक रहा है.
एक विचित्र बात यह है कि उदारीकरण के 20 साल बाद आज भारत में एक बड़ा तबका ऐसा है जो दक्षिणपंथी विचारों को ज्यादा सहजता से स्वीकार करता है. तो फिर भाजपा इस स्थिति का फायदा क्यों नहीं उठा पा रही? इस सवाल का जवाब भी भाजपा के भीतर नेतृत्व को लेकर चल रही उलझन में ही कहीं छिपा है.