व्यक्ति कोई मक़सद लेकर पैदा नहीं होता। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसके जीने और जीने के लिए इच्छाओं की पूर्ति के लिए मक़सद बनते चले जाते हैं। यह मक़सद समयानुसार बढ़ते भी रहते हैं और बदलते भी रहते हैं। जैसे- पैदा होने के बाद किसी बच्चे का मक़सद पेट भरना मात्र होता है। लेकिन जैसे-जैसे वह अपने आसपास के लोगों को पहचानने लगता है, उसका मक़सद पेट भरने के साथ-साथ अपने आसपास के लोगों का, मुख्यत: अपनी माँ का प्यार पाना भी हो जाता है। जब वह और बढ़ा होता है, तो उसका मक़सद पेट भरने, अपनों का प्यार पाने के अतिरिक्त खेलने-कूदने, हर चीज़ को समझने की कोशिश करने और उसे पा लेने का मक़सद बन जाता है। जब वह पढऩे लगता है, तो उसका मक़सद पहले के सभी मक़सदों के अतिरिक्त अच्छे अंक पाना होता है। जब बढ़ा होता है, तो इन सब मक़सदों से कुछ आगे निकलकर दोस्ती, प्यार और करियर उसके मक़सद में शामिल हो जाते हैं। विवाह होने के बाद, जन्म के रिश्तों से मोह कम और पत्नी बच्चों से मोह बढऩे लगता है और वह पैसा कमाने का मक़सद लेकर आगे चलता है। इसके बाद घर, पैसा, बच्चों का करियर, माँ-बाप की सेवा और अच्छी कमायी उसका मक़सद होता है। लेकिन जब उसके ये सारे मक़सद पूरे हो जाते हैं, तो उसके अपने मक़सदों में बच्चों के मक़सद शामिल हो जाते हैं। बच्चों से सेवा की आशा होती है। वही अपनी सत्ता की इच्छा होती है। सभी मक़सद पूरे करने के पीछे उसका मक़सद सुख अर्थात् आनन्द पाना होता है।
अगर उसके सभी मक़सद पूरे हो जाएँ, तो अन्त में वह परमानन्द पाने का मक़सद लेकर बाक़ी का जीवन व्यतीत करते हुए परम् आनन्द अर्थात् ईश्वर में विलीन हो जाना चाहता है। लेकिन आख़िर जीवन के हर मक़सद को पाने के पीछे उसका मक़सद आनन्द अर्थात् सुख की प्राप्ति ही होता है। यह आनन्द परमानन्द अर्थात् परम् सुख में बदल जाए, यह इच्छा ज़्यादातर लोग मन में पालकर रखते हैं। इसी परमानन्द को पाने के लिए कोई संसार के सभी भौतिक और क्षणिक सुख पाने के पीछे पड़ा रहता है, तो कोई ईश्वर की ओर अपनी-अपनी मनोवृत्ति, सोच और भक्ति भाव के हिसाब से परमानन्द की खोज करता है।
यह एक कटु सत्य है कि संसार के कुछ विरले लोगों को छोड़ दें, तो परमानन्द की खोज में लगे ज़्यादातर लोग इसके लिए धर्म की सहायता चाहते हैं और इसी मक़सद से वे धर्म के प्रति आस्थावान रहते हैं। लेकिन जिन किताबों के दिशा-निर्देशों को ये लोग धर्म मानते हैं, उसी धर्म के चक्कर में ही उलझकर व्यक्ति सुख-शान्ति गँवा देता है और बहस, तर्क-वितर्क यहाँ तक कि कुतर्क के माध्यम से ख़ुद को परम् ज्ञानी और धार्मिक सिद्ध करने लगता है। यहीं से उसके परमानन्द की प्राप्ति के रास्ते बन्द हो जाते हैं। जीवन भर भौतिक सुखों की तलाश में भटकने वाला आख़िरकार अशान्ति और दु:ख की दलदल में फँस जाता है और धर्म भी उसे सही रास्ता नहीं दिखन पाते। आनन्द से परमानन्द की तरफ़ बढऩे के बजाय वह दु:ख, अशान्ति, क्लेश, चिन्ता और अवसाद में घिर जाता है। और इस तरह धर्मों की किताबों और आडंबर को धर्म समझकर सिर पर लादकर उम्र भर ढोने वाले व्यक्ति को उसका धर्म भी नहीं बचा पाता। इस तरह व्यक्ति परमानन्द से वंचित रह जाता है।
क्या कहा जाए, जो धर्म सुख, शान्ति, परमानन्द और परम् पिता अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति के लिए बने हैं, क्या वही लोगों को भटका देते हैं? और अगर धर्म लोगों को सही रास्ता दिखाते हैं, तो फिर उन्हें भटकाता कौन है? इसका उत्तर स्पष्ट है- धर्म के ठेकेदार, जो वास्तव में अल्पज्ञानी होते हैं। सदैव किताबों और पुरानी कहानियों को रटकर उनसे सीख लिये बग़ैर ही सुनाते हैं। धर्म को सही मायने में अमल में नहीं लाते। दूसरे के लोगों धर्म के प्रति उग्र रहते हैं और हमेशा बेतुकी बातें करते हैं। ऐसे लोग न ख़ुद धर्म पर होते हैं और न ही धर्मानुयायियों के लिए सही रास्ता दिखा पाते हैं। यही कारण है कि न तो लोगों को आनन्द मिल पाता है और न ही परमानन्द। न जीवन रहते हुए और शायद न जीवन के बाद ही। ऐसे तथाकथित धर्माचार्यों और उनके कहने पर उनके मार्गदर्शन में चलने वाले, लोगों के लिए सन्त कबीर दास ने गुरु-शिष्य की उपमा देते हुए ख़ूब कहा है :-
‘‘जाका गुरु आँधला, चेला निपट निरंध।
अन्धे अन्धा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।।’’
सही ही कहा है। जिन्हें ख़ुद ही परमानन्द नहीं प्राप्त हुआ है। जो भौतिक सुखों को ही परमानन्द समझते हैं। सिवाय आडंबर के धर्म का एक भी काम नहीं करते हैं। बिलकुल सामान्य लोगों की तरह जीवन जीते हैं। वे अपने पीछे चलने वालों को कैसे उस परम् सुख की अनुभूति करा सकते हैं। ऐसे लोग भेड़ों की तरह ही हैं। इन्हें धर्म का सही रास्ता तब तक नहीं दिखेगा, जब तक इन्हें इनके अपने-अपने धर्मों के अनुसार सज़ा नहीं मिलेगी।