पिछले समय के कवियों ने लोगों को संदेश दिए कि वे बोलें खुल कर और इज़हार करें गुस्से का। उन्होंने लिखा अपने समय की उन पीड़ाओं को जो लोग भोग रहे थे।
लोगों में प्रतिरोध के स्वर आज भी हैं, पर इन पर कहीं कोई कविता सुनाई नहीं देती। वे पंक्तियां जो जज़्बातों और भावनाओं से ओतप्रोत हों। कहां है हमारे कवि? कहीं नज़र नहीं आते, कहीं सुनाई नहीं देते, वे तराने जो पूरे वातावरण को ऊर्जावान बना दें और उस अराज़कता पर सीधा प्रहार करें जो धीरे-धीरे पूरी योजना के साथ फैलाई जा रही है।
यदि मैं गलत हूं तो मुझे सही कीजिए पर इतिहास गवाह है कि हमारे काले दिनों में विद्रोही कवियों और शायरों ने विद्रोह के स्वर उभारे और वे सड़कों पर भी उतरे। आज वे कवि और शायर कहां हैं वे लेखक कहां हैं जिनसे लोगों के साथ सड़कों पर उतरने की आस थी?
$खैर, जब तक वे स्वर सुनाई नहीं देते तो बेहतर है कि हम आराम से बैठ कर कै$फी आज़मी, फैज़ अहमद $फैज़, साहिर लुृधियानवी, जोश महलीयावादी, अली सरदार जाफरी को एक बार पढ़ें, बार-बार पढ़ें। असल में इस पूरे सप्ताह मैंने फिर से पढ़ा, ‘एनथम्स ऑफ रजिसटेंस’(इंडिया इंक/रोली बुक्स) को जिसमें दो भाई, अली हुसैन मीर और रज़ मीर पुराने ज़माने की मज़बूत कविताओं और $गज़लों पर काम कर रहे थे।
उनकी ज़बान में, ‘यह किताब कोशिश है उन यादों को सहेज कर रखने की जिन्हें हम जानबूझ कर भूल रहे हैं। इसके साथ ही उन प्रगतिशील कवियों की विरासत को बचाने की, उस काल में जब उनके शब्द, उनकी दृष्टि और राजनीति पूरी तरह सार्थक हैं। यह एक प्रयास है प्रतिरोध की उस उर्जा को फिर से उजागर करने का जो किसी ज़माने में उर्दू साहित्य में आम नज़र आती थी। यह समय था प्रगतिशील लेखक आंदोलन का। इस लिहाज से यह किताब केवल पुरानी यादों को ताज़ा करने से भी आगे, हमारी अपनी राजनैतिक परियोजना है। पर केवल भूतकाल का इतिहास नहीं बल्कि यह तो वर्तमान का इतिहास है या यह फिर इतिहास है भविष्य काल का भी।’
हालांकि मैें कई साल पहले 17 जनवरी 2006 को इस किताब के विमोचन समारोह में मौजूद थी जो जामिया मिलिया नस्लामिया में हुआ था, वहां ये दोनों भाई अमेरिका से आए थे, वहां वे विश्व विद्यालय में प्रोफेसर थे, पर आज जब मैं इसे फिर से पढऩे बैठी हूं ‘एनथम्स ऑफ रिजिसटेंस’ बार-बार मेरे जहन पर प्रहार कर रहे हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। शायद इस समय हम उनसे भी ज्य़ादा काले दिनों में जी रहे है।
इसी किताब से लेकर कुछ पंक्तियां यहां लिख रही हूं-
ये कैफी आज़मी की लाइनें हैं:-
कहां तक बिल जब्र मर-मर के जीना
बदलने लगा है अमल का करीना
लहू में है खौलत जबीं पर पसीना
खौलत, जलीं पर पसीना
धड़कती है नसबन, धड़कता है सीना
गरज़-ए-बगावत को तैयार हूं मैं
ये लाइनें हैं $फैज अहमद फैज़ की:-
चश्मनम जान-ए-शोरीदा का$फी नहीं
तोहमत-ए-इश्क पोशीदा का$फी नहीं
आज बाज़ार में पा-बा-जुलान चलो
साहिर लुधियानवी ने कुछ ऐसा लिखा है:-
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सिर से
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नगमें गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
साहिर साहिब की इन पंक्तियों को भी पढ़े:-
मेरे सरकश तरानों की हकीकत है, तो इतनी है,
कि जब मैं देखता हूं, भूख के मरते किसानों को
$गरीबों मुफलिसों को, बेकासों को, बेसहारों को
सिसकती नज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को
तो दिल्ल ताब-ए-निशात-ए-बज़म-ए-इशरत ला नहीं सकता
मैं चाहूं भी तो ख्वाब आवर तराने गा नहीं सकता
इसमें रोचक तथ्य यह है कि पुराने ज़माने के एक के बाद दूसरे शायर ने लोगों से यही कहा है कि वे बोलें, अपनी पीड़ा व्यक्त करें। खामोश न रहें। इस पर पेश हैं साहिर की कुछ पंक्तियां:-
बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है,
जिस्म-ओ-ज़बान की मौत से पहले
बोल, के सच जि़ंदा है अब तक
वो, जो कुछ कहना है कह ले!
इनके साथ ही फैज़ ने अपनी कविता ‘बोल’ में लिखा है:-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल, कि जां अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकां में
उंद है शोले, सूर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हर जंजीर का दामन
बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों ज़ुबां की मौत से पहले
फैज़ केवल यहां नहीं रु के, बल्कि
इससे आगे भी भावुक हो कर
करते है:-
माता-ए-लहू-ओ कलम छिन गई तो
क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डुबां ली है उंगलियां मैंने
ज़ुबां पे मोहर लगी है जो क्या, कि रख दी है
हर इक हलका-ए-ज़ंजीर में ज़ुबां मैंने
आज मैं इंतज़ार में हूं कवियों की उन पंक्तियों को सुनने की जिसमें आज बढ़ रही मुसीबतों और लोगों की पीड़ा की बात हो और आप को छोड़ रही हूं अहमद राही की इन लाइनों के साथ –
मायूसी में उम्र कटी थी, आस ने अंगड़ाई सी ली थी
सोचा था किस्मत बदलेगी, लेकिन हमने धोखा खाया