बेहतर तो यही होता कि कुछ चीज़ें इस्लामी या गैर इस्लामी होने की अंतहीन बहस में न खींची जातीं. ऐसी बहस में तब तक कोई बुराई नहीं जब तक कि इसका निष्कर्ष ज़रूरी चीजों को गैरइस्लामी न बताता हो. वे चीजें जो किसी प्रगतिशील समाज के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं. लेकिन जब एक बड़ी तादाद अंधे तरीके से इन चीजों पर गैरइस्लामी होने की मुहर लगा रही हो तो इसकी पड़ताल बहुत जरूरी हो जाती है. इसलिए भी कि ये ठप्पा मुसलमानों के विकास के आड़े आकर खड़ा हो सकता है. साथ ही इस्लाम के विषय में भी एक बंधी-बंधाई और गफलत भरी सोच बनाने का जोखिम भी पैदा हो जाता है.
राहत देने वाली बात यह है कि इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन करने और मुस्लिम विद्वानों से बात करने पर जल्द ही पता चल जाता है कि ज्यादातर जरूरी चीजें जिनको गैरइस्लामी मान लिया गया है, इस्लाम में उनकी कोई मनाही नहीं है. सिर्फ अज्ञान और कुछ लोगों के निहित स्वार्थ के चलते इन्हे इस्लाम के खिलाफ प्रचारित किया जाता है.
1परिवार नियोजन-सामान्यत: परिवार नियोजन को गैरइस्लामी माना जाता है. इसी वजह से कई मुसलमान परिवार नियोजन से सख्त गुरेज करते हैं. इसके चलते समाज में मुसलमानों की ‘लंबा-चौड़ा परिवार रखने वाले’ की एक स्टीरियोटाइप छवि भी बन गई है. जबकि मुस्लिम विद्वानों से बात करने पर हम पाते हैं कि इस्लाम में परिवार नियोजन की बिल्कुल भी मनाही नहीं है. प्रख्यात मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं- ‘कुरआन शरीफ कहता है कि मुफलिसी के खौफ से अपने बच्चे का कत्ल मत करो. बहुत से लोगों ने परिवार नियोजन से जोड़कर इसकी गलत व्याख्या पेश कर दी है. ये आयत एक निश्चित समय के बाद गर्भपात करवाने से मना करती है. जो कि डाक्टर भी करते हैं. ये परिवार नियोजन के बारे में नहीं है. क्योंकि परिवार नियोजन से बच्चे का कत्ल नहीं होता. इस्लाम के मुताबिक और डाक्टरों के मुताबिक भी, संभोग के बाद हुए गर्भ को एक निश्चित समय सीमा बीतने के बाद ही बच्चा कहा जा सकता है इसलिए परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करना गैरइस्लामिक कतई नहीं.’ यानी कि इस्लाम में बच्चे को नुकसान पहुंचाने की मनाही है मगर बच्चे हों ही नहीं इसके लिए परिवार नियोजन के तरह-तरह के साधन अपनाना इस्लाम के खिलाफ बिल्कुल भी नहीं है. इस मामले में हमारे देश का कानून भी एक निश्चित समय के बाद गर्भपात कराने को गैरकानूनी कहता है.
‘अगर इस्लाम में संगीत हराम होता तो अल्लाह मियां हज़रत दाऊद को सुरीली आवाज क्यों अता करता’
2पोलियो वैक्सीन-मुस्लिम समुदाय में पोलियो वैक्सीन जैसी अनिवार्य रूप से ज़रूरी चीज़ के प्रति भी गहरा असंतोष और विरोध रहा है. खासकर उत्तर प्रदेश में. सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में एक लंबे समय तक पोलियो वैक्सीनेशन प्रोग्राम कामयाब नहीं हो सका क्योंकि मुस्लिम-बहुल इलाकों में लोग पोलियो की दवा पिलाने से मना कर देते थे. उनका तर्क था कि इस दवा को बाहरी ताकतों के इशारे पर कोई ऐसा तत्व मिलाकर तैयार किया गया है जो कि गैरइस्लामी है और इससे मुसलमानों की बच्चे पैदा करने की क्षमता खत्म हो जाएगी. लाख समझाने के बाद भी मुसलमानों के बीच टीकाकरण कामयाब नहीं हो रहा था. आखिरकार सरकार ने मुसलिम धर्मगुरुओं से लोगों के बीच यह गलतफहमी दूर करने की अपील की. इसके बाद उलेमा की एक कमेटी बनी जिसने पूरे सूबे में घूम-घूम कर मुसलमानों को पोलियो वैक्सीन के फायदे बताए साथ ही यह भी कि वैक्सीन में गैरइस्लामी होने जैसी कोई बात नहीं है. कुछ ही दिनों में चौंकाने वाले नतीजे सामने आए. 2010-11 में उत्तर प्रदेश पूर्णत: पोलियो मुक्त राज्य बन गया. उलेमा कमेटी के सदस्य धर्मगुरु खालिद रशीद फिरंगी महली कहते हैं, ‘मैने खुद अपने एक साल के बच्चे को मुसलमानों के एक गांव में ले जाकर भीड़ के सामने पोलियो ड्राप पिलवाई ताकि इसके नुकसानदायक और गैरइस्लामी होने की गलतफहमी दूर की जा सके. मुझे खुशी है कि हमारी कोशिश कामयाब हुई.’
3विज्ञान और तकनीक-विज्ञान और तकनीक के बिना आज के दौर में किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ गलतफहमियों और चंद मौलानाओं की तंगनजरी की वजह से इस पर भी गैरइस्लामी होने की छाप-सी लगी है. एक दौर में जब आदमी ने चांद पर पहला कदम रखा तब भी कुछ मौलवियों ने अव्वलन तो इस घटना पर यकीन करने से ही इनकार कर दिया और फिर इसे गैरइस्लामी बता दिया. इसी तरह कुछ लोगों ने वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी को भी गैरइस्लामी करार दे दिया. यह सही है कि 21 वीं सदी में साइंस और टेक्नोलॉजी से पूरी तरह बच पाना असंभव है और इसलिए मुस्लिम समुदाय के बीच भी चीजें पहले से थोड़ी-बहुत तो बदली ही हैं लेकिन फिर भी विज्ञान और तकनीक के प्रति मुसलमानों में वह उत्साह नहीं जाग पाया है जैसाकि जरूरी है. आज भी ज्यादातर मदरसों में विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई नहीं होती. मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं, ‘अधिकतर मदरसों में बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं की जाती. साइंटिफिक अप्रोच बहुत जरूरी है. लेकिन कुछ लोग हैं जो मुसलमानों को समय के साथ नहीं चलने देना चाहते. ये लोग विज्ञान और तकनीक के खिलाफ लोगों में गलतफहमियां फैलाते हैं. उन्हें समझना पड़ेगा कि आधुनिक दौर में बैलगाड़ी से यात्रा करना न तो संभव है और न ही उचित.’
4संगीत-पिछले दिनों कश्मीर में मुफ्ती बशीरूद्दीन ने लड़कियों के रॉक बैंड के खिलाफ यह कहते हुए फतवा दिया कि रॉक बैंड गैरइस्लामी है और इसके जरिए जनमानस में ‘गलत भावनाएं’ उभरती हैं. इसके बाद सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बैंड के सदस्यों को इस कदर धमकियां मिलीं कि उन्हे कश्मीर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. संगीत को गैरइस्लामी करार दिए जाने का यह अकेला मामला नहीं है. संगीत हमेशा से इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा है. जबकि उदारवादी विचारक इससे इत्तेफाक नहीं रखते. उनके मुताबिक इस्लाम सिर्फ उस तरह के संगीत से बचने को कहता है जो इंसान को अपने कर्तव्यों से विमुख कर रहा हो और नेकी के रास्ते से हटा रहा हो. ‘ये गलतफहमी है कि इस्लाम संगीत की इजाजत नहीं देता. अगर इस्लाम में संगीत हराम होता तो अल्लाह मियां हज़रत दाऊद को सुरीली आवाज क्यों अता करते. आज भी जब मुसलमानों में कोई अच्छा गाता है जो कहा जाता है कि उसके पास दाऊदी गला है.’ मुस्लिम मामलों के जानकार मशहूर पत्रकार हसन कमाल कहते हैं, ‘मोहम्मद साहब के जीवन की भी कई घटनाएं इस बात का खंडन कर देती हैं कि इस्लाम में संगीत हराम है. एक बार जब रसूल अपने घर में दाखिल हुए तो घर की महिलाएं कुछ गा रही थीं, हुज़ूर को देखकर वे रूक गईं. इस पर रसूल ने उनसे कहा कि तुम लोग अच्छा गा रहे थे, रुक क्यों गए. गाना जारी रखो.’ रॉक बैंड पर फतवे के संदर्भ में लेखिका शीबा असलम फहमी जोर देकर कहती हैं कि उन्होंने आज तक कोई बलात्कारी ऐसा नहीं देखा-सुना जो संगीत सुनने के बाद बलात्कार करने के लिए प्रेरित हो गया हो. उनके मुताबिक असल में इस्लामी या गैरइस्लामी होने की परिभाषाएं मौलवी अपनी सहूलियत के हिसाब से गढ़ते हैं.
‘गर्भ को एक निश्चित समय सीमा बीतने के बाद ही बच्चा कहा जा सकता है इसलिए परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करना गैरइस्लामिक कतई नहीं है’
5फिल्में- धर्म के खिलाफ होने का विरोध अगर कोई एक चीज़ सबसे ज्यादा झेलती है तो वह है फिल्में. फिल्मों को सभी धर्मों के कट्टरपंथियों का विरोध बराबर झेलना पड़ता है. इस्लामी कट्टरपंथी तो फिल्म को इस्लाम के ऐतबार से हराम तक बता देते हैं. क्योंकि इसमें संगीत, वीडियोग्राफी और अश्लीलता होती है. इसके अलावा कई फिल्मों के कथानक को भी मुस्लिम विरोधी करार देकर बखेड़ा कर दिया जाता है. ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अमल बहुत मुश्किल होता जाता है. पिछले दिनों दक्षिण के कुछ मुस्लिम संगठनों ने कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम को बिना देखे इसे इस्लाम विरोधी करार देकर बवाल खड़ा किया इससे फिल्म जगत में काफी रोष था. कमल हासन ने तो यहां तक कह डाला कि अगर उनकी फिल्म को रिलीज़ नहीं होने दिया गया तो वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएंगें. मुस्लिम फिल्मकारों और अभिनेता-अभिनेत्रियों के खिलाफ फतवा जारी किए जाने की खबरें गाहे-ब-गाहे अखबारों में आती ही रहती हैं जिसमें मजहबी ऐतबार से फिल्म को हराम बताया जाता है. ऐसे में सिनेमा जैसे प्रभावी और चमत्कारी माध्यम के सामने गंभीर चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ती दिखती है. फिल्मी गीतकार और उर्दू पत्रकार हसन कमाल कहते हैं, ‘असल में फिल्मों का ज्यादातर विरोध अलोकतांत्रिक तरीके से अपने निहित स्वार्थों के कारण होता है. बगैर फिल्म को देखे और उसकी मूल भावना को समझे उसके विरोध का क्या औचित्य है. हकीकतन ये लोग इस्लाम को ही ठीक ढंग से नहीं समझते.’
साफ है कि मानव सभ्यता के लिए कल्याणकारी और अनिवार्य रूप से जरूरी चीजों को गैरइस्लामी बताए जाने के पीछे या तो परले दर्जे का अज्ञान है अथवा शातिराना किस्म का निहित स्वार्थ. मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं, ‘इस्लाम रीजनिंग को सर्वोपरि मानता है. यह आस्था पर नहीं विश्वास पर आधारित मजहब है. विश्वास रीजनिंग के बाद उत्पन्न होता है. यह कहता है कि जब तक तुम्हारी अक्ल न गवाही दे किसी चीज को न मानो.’ शीबा फहमी बताती हैं कि कुरान में चालीस से ज्यादा जगह पर अक्ल का इस्तेमाल करने पर जोर दिया गया है. जो चीजें मोहम्मद साहब के जमाने में थीं ही नहीं उनके इस्लामी या गैर इस्लामी होने का फैसला तो हम अपने विवेक के आधार पर ही कर सकते हैं और ये अधिकार कुरआन भी हमें देता है. हसन कमाल भी बताते हैं, ‘जब मोहम्मद साहब से उनके एक शिष्य ने पूछा कि अगर किसी बात को लेकर शंका हो तो क्या किया जाए? हुजूर बोले कुरान देखो. शिष्य ने पूछा फिर? हुजूर बोले- मेरी जिंदगी में इसका हल ढूंढ़ने की कोशिश करो. शिष्य ने पूछा फिर? हुजूर बोले- मेरे साथियों की जिंदगी में इसका हल ढूंढ़ो. शिष्य ने पूछा अगर फिर भी हल न मिले तो? हुजूर बोले- अल्लाह ने तुमको अक्ल किस वक्त के लिए दी है?
–हिमांशु बाजपेयी