अपना ही खेल बिगाड़ना कोई कांग्रेस से सीखे. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियों और फिर नतीजों के बाद जो हुआ उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है. अपनी चूकों से पार्टी ने पहले तो एकतरफा लग रहे मैच को रोमांचक बना दिया. फिर किसी तरह भाजपा से एक सीट ज्यादा जीतकर मैच उसके हाथ आया भी तो उसके बाद उसने ऐसे फैसले लिए कि उसकी खासी फजीहत होगई है. फिलहाल अंदरूनी खींचातानी के बावजूद भले ही विजय बहुगुणा सरकार के पास बहुमत दिख रहा हो, लेकिन घटनाएं जिस तरह से घटी हैं उससे साफ लगता है कि मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के लिए आगे की राह मुश्किल होगी.
सबसे पहले तो बहुगुणा को छह महीने के भीतर विधानसभा का चुनाव लड़ना है. पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद चुनाव हार गए थे. इसलिए मुख्यमंत्री की जीत सुनिश्चित मान कर चलना अब कठिन है. अगले ही साल यानी 2013 में राज्य में स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव होंगे. इनमें भी नए मुख्यमंत्री की परीक्षा होगी. इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती का नंबर है यानी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव. इस समय राज्य की पांचों सीटों पर कांग्रेसी सांसद हैं. गौरतलब है कि पिछली बार भाजपा की खंडूड़ी सरकार के खिलाफ पहले दिन से चल रहा आंतरिक असंतोष सत्ता परिवर्तन में तभी बदला जब लोकसभा चुनाव के नतीजे पार्टी के खिलाफ गए.
बहुगुणा के सामने सभी गुटों और निर्दलीयों के बीच संतुलन बैठाना भी बड़ी समस्या होगी. उनकी कैबिनेट में अनुभवी इंदिरा हृदयेश, यशपाल आर्य, सुरेंद्र सिंह नेगी और प्रीतम सिंह जैसे कद्दावर नेता हैं. पिछली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे हरक सिंह रावत के कैबिनेट में शामिल होने के बाद तो स्थितियां और भी चुनौतीपूर्ण होंगी. हाल के घटनाक्रमों से साफ है कि पार्टी के भीतर हरीश रावत गुट को तरजीह दी जा रही है. सूत्रों के मुताबिक इसकी वजह से बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने में समर्थन देने वाले कांग्रेस नेता सतपाल महाराज और राज्य में पार्टी के अध्यक्ष यशपाल आर्य के गुट खुलेआम अपना असंतोष प्रकट करने लगे हैं. उधर, मझोले कद के दर्जन भर कांग्रेसी विधायकों के दिल में मंत्री न बन पाने की कसक भी है. इसके अलावा बहुगुणा को सबसे पहले समर्थन देने वाले निर्दलीय दिनेश धनै भी मंत्री न बन पाने के बाद असंतुष्टों की भाषा बोल रहे हैं.
उत्तराखंड राज्य का निर्माण विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण हुआ था. लेकिन नए मंत्रिमंडल में राज्य के 13 में से छह धुर पहाड़ी जिलों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है
भले ही हरीश रावत और विजय बहुगुणा अब बयान दे रहे हों कि सरकार पूरे पांच साल चलेगी, लेकिन महीने भर की घटनाओं और इस दौरान आए असंतुष्ट कांग्रेसियों के बयानों से किसी को भी सरकार के स्थायित्व की गारंटी वाले नए बयानों पर भरोसा नहीं हो रहा. 12 मार्च को कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में मनोनीत किया था. इसके अगले ही दिन ही केंद्र में मंत्री हरीश रावत अपने समर्थक विधायकों सहित कोप भवन में चले गए थे. 15 मार्च को विधानसभा में जब नवनिर्वाचित विधायकों को शपथ दिलाई गई तो वहां कांग्रेस के 32 में से सिर्फ 15 विधायक मौजूद थे. शपथ न लेने वाले दिग्गजों में इंदिरा हृदयेश, नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत और नए विधानसभा अध्यक्ष बने गोविंद सिंह कुंजवाल भी थे. हरक सिंह ने तो बयान भी दे डाला था कि यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी.
एक सप्ताह की अनिश्चितता के बाद मुख्यमंत्री और असंतुष्ट खेमे में बातचीत का दौर शुरू हुआ. इस बीच कांग्रेस आलाकमान ने हरीश रावत के समर्थक महेंद्र सिंह माहरा को उत्तराखंड से राज्यसभा के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित कर दिया. हालांकि 19 मार्च को राज्यसभा के नामांकन के समय भी न तो हरीश रावत और न ही उनके कैंप के 11 विधायक पहुंचे. अगले दिन मुख्यमंत्री कैबिनेट में विस्तार करके दिल्ली चले गए. दिल्ली में हरीश रावत और विजय बहुगुणा की फिर बातचीत हुई . कैबिनेट में अपने समर्थकों के लिए जगह पक्की करने के बाद रावत ने नरमी का संकेत दिया.उनका कहना था, ‘मेरी ओर से संकट खत्म हो गया है, लेकिन विजय बहुगुणा को कुछ कदम उठाने होंगे.’ संकेत साफ था कि रावत अपने खेमे के लिए अधिक-से-अधिक पद सुनिश्चित कराना चाहते थे. जानकार बताते हैं कि उनके सामने अपने समर्थकों को राजनीतिक रूप से पदस्थापित करने के साथ-साथ हरक सिंह को भी सम्मानपूर्वक कांग्रेस की राजनीति में जिंदा रखने की चुनौती थी.
खबर लिखे जाने तक इस मामले में कुछ भी फैसला नहीं हुआ है. सूत्रों के अनुसार हरीश रावत खेमा हरक सिंह को उपमुख्यमंत्री बनाने की जिद कर रहा है लेकिन आलाकमान छोटे-से राज्य में सत्ता के दो केंद्र नहीं चाहता. रावत यह भीचाहते हैं कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद से यशपाल आर्य को हटवा कर यह कुर्सी उनके समर्थक और सांसद प्रदीप टम्टा को दे दी जाए.
बहुगुणा को चिंता है कि राज्य गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है. उन्हें यह भी लगता है कि राज्य में क्षेत्रीय असंतुलन है और इस कारण पलायन हो रहा है. हरीश रावत की भी चिंता सीमांत क्षेत्रों से होने वाला पलायन है. लेकिन उनकी पार्टी की सरकार का आगाज जैसे हुआ है वही ढर्रा अगर जारी रहा तो साफ है कि ये चिंताएं बस जुबानी कवायद बनकर रह जाएंगी.