आखिर हम मज़हबी भी कहाँ हैं

हम सब हमेशा इस बात का दम्भ भरते हैं कि हमसे बड़ा मज़हबी यानी धर्म का पालन करने वाला कोई दूसरा नहीं; लेकिन क्या हम वास्तव में अपने मज़हब की शिक्षाओं, नीतियों और आज्ञाओं का पालन करते करते हैं? इसका सीधा-सा जवाब है- शायद नहीं। क्योंकि यह जीवन-परीक्षा है; अच्छाई के रास्ते पर चलने के जीवन-परीक्षा…; जिस पर चलना तलवार की धार पर चलना है। इसमें खुद को जीवन भर दु:खों, त्याग और तपस्या की आग में तपाना है। दूसरों के हित में ही अपना हित समझना है। कौन करता है यह सब? बड़े-बड़े संन्यासी, साधु-सन्त और वैरागी भी इस जीवन-परीक्षा में पास नहीं हो पाते; क्योंकि अधिकतर मोह-माया में विचलित हो जाते हैं; जो या तो मानव के लिए स्वाभाविक है या शायद लोभ का मकडज़ाल है, जिसमें कभी-न-कभी हर कोई उलझ ही जाता है।

दरअसल हम सबकी आदत है कि हम बुराई की जमकर बुराई करते, यहाँ तक कि दूसरों की कमियाँ निकालकर उनकी भी मौका मिलते ही बुराई करने लगते हैं। लेकिन आखिर वह कौन-सी वजह है, जिसके चलते हम सब बुराई के रास्ते को बुरा मानते हुए भी खुद अच्छे रास्ते पर नहीं चल पाते? आखिर क्यों अधिकतर लोग जीवन भर अच्छे इंसान नहीं बन पाते? या कहें कि शायद एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश ही नहीं करते। अच्छाई अच्छी तो सबको लगती है; लेकिन क्यों अधिकतर लोग दूसरों को अच्छा बनने की सीख देते नज़र आते हैं? जबकि खुद अच्छा बनने को तैयार नहीं होते। क्योंकि हम इंसानों ने अपने स्वार्थवश हमेशा अपने फायदे की तरफ कदम बढ़ाये हैं। फिर चाहे हमें ईश्वर को छलना पड़ा हो या मज़हब का दुरुपयोग करना पड़ा हो। हमने वह सब किया है, जिसमें भी हमारा लौकिक स्वार्थ निहित है। फिर हम मज़हबी यानी धार्मिक कहाँ हैं? मज़हब तो यह सब नहीं सिखाता। मज़हब तो परहित सिखाता है। आपस में प्रेम से रहना सिखाता है। दूसरों की, खासकर निर्बलों की मदद करना सिखाता है। जीव हत्या को पाप बताता है। त्याग सिखाता है। सभी का सम्मान करना सिखाता है। दूसरों के कल्याण के लिए बलिदान करना सिखाता है।

क्या कभी हमने सोचा है कि जो आदतें हममें हैं कोई भी मज़हब उन्हें अच्छा नहीं बताता। और इन्हीं बुरी आदतों के चलते हम मज़हबों को अलग-अलग मानकर ईश्वर को भी अलग-अलग मानने लगे हैं, जिसके चलते हम दूसरे मज़हब में अलग नाम से पुकारे जाने वाले अपने ही परमपिता परमात्मा को गालियाँ तक दे डालते  हैं! छी:, कितने गिरे हुए हैं हम?

सवाल यह है कि जो आदतें हमें एक बुरा इंसान बनाती हैं, उन आदतों को अपने बर्ताव में रखकर हम अच्छे कैसे हो सकते हैं? और अगर हम अच्छे नहीं हैं, तो हम अच्छे दिख कैसे सकते हैं? लोगों को अच्छे कैसे लग सकते हैं? उस परमपिता परमात्मा के प्रिय कैसे हो सकते हैं? आजकल एक सोच लोगों में पनप गयी है कि अच्छा खान-पान होगा, अच्छा रहन-सहन होगा, तो इ•ज़त होगी। और यह हो भी रहा है। लेकिन कभी किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आपके ठाट-बाट देखकर लोग भले ही आपके मुँह पर झूठी या दिखावे की तारीफ कर दें, मगर पीठ पीछे वही लोग आपके बारे में वह सब कुछ कहते हैं, जो आप कभी नहीं चाहते। इतना ही नहीं, आप अगर कुछ भी गलत करते हैं, तो आपको आत्मगिलानी भी ज़रूर होती है। चेहरे पर मलिनता ज़रूर आती है। उदासी ज़रूर रहती है, और रूखापन साफ-साफ दिखता है। यह अलग बात है कि हम उस पर दिखावे की हँसी के, बनावटी बातों के परदे डालते रहते हैं। लेकिन मन तो दर्पण की तरह होता है। वह यह सब कुछ बहुत दिनों तक छिपने नहीं देता। आपने अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग चाहे जितना भी मीठा बोल लें, चाहे जितना भी भला दिखने की कोशिश कर लें, अगर वह अच्छे नहीं हैं, तो उनके चेहरे की कुरूपता, भयंकरता और भयावहता साफ नज़र आती है। ऐसे लोग यह नहीं सोचते कि जब वे अन्दर से बहुत बुरे इंसान बन चुके हैं, तो बहुत अच्छे कैसे दिख सकते हैं? आप सोचिए, किसी का मुस्कुराता हुआ चेहरा अच्छा लगता है या गुस्से से तमतमाता हुआ? ज़ाहिर-सी बात है कि मुस्कुराता हुआ चेहरा ही सभी को अच्छा लगता है; लेकिन फिर भी हम सब कभी-न-कभी गुस्सा करते हैं। कई बार तो यह गुस्सा इतना भयंकर होता है कि हम अपना या सामने वाले का बड़ा नुकसान कर बैठते हैं।

 गुस्से में हम कभी सुन्दर नहीं दिख सकते। ठीक इसी तरह अन्दर से बुरे होकर हम बहुत दिनों तक बाहर अच्छा होने का दिखावा करके भी अच्छे नहीं दिख सकते। क्योंकि बुरे होकर भी अच्छे बनने का नाटक करते-करते एक दिन वह आता है, जब इंसान चेहरे पर झूठी हँसी, मीठी बोली और दिखावे की सज्जनता के परदे डालते-डालते थक जाता है और कभी-न-कभी या कम-से-कम ज़िन्दगी के आखिर में जाकर उसे खुद भी इस बात का अहसास ज़रूर होता है कि हाँ, हम गलत थे। तब चेहरे की बनावटी हँसी, बातें, सब काफूर हो जाती हैं और आँखों की शर्मिंदगी, झेप, डबडबाहट बता देती है कि हम एक बुरे इंसान थे। लेकिन तब पछताने से कोई फायदा नहीं होता। देखा गया है कि तब कुछ लोग मज़हब के सहारे ईश्वर की तरफ मुडऩे की कोशिश करते हैं और जिस बात को खुद ज़िन्दगी भर नहीं समझ पाये, वह दूसरों को समझाने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन यह बात कभी कोई नहीं सोचता कि वह खुद सही रास्ते पर नहीं चला, तो उसके कहने पर दूसरे लोग क्यों किसी रास्ते पर चलेंगे? क्यों उसका कहना मानेंगे? मेरा मानना है कि इस अवस्था में जाने से पहले एक सवाल हर किसी को खुद से पूछना चाहिए कि आखिर हम मज़हबी कहाँ हैं?